यूपीए सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान (2004-2014), एक छोटे-से अंतराल को छोड़ कर, कच्चे तेल की कीमतें काफी ऊंची रहीं। पेट्रोलियम उत्पादों पर, खासकर पेट्रोल और डीजल पर, टैक्स लगाने से बचा नहीं जा सकता था, क्योंकि हमें राजस्व की जरूरत थी और खपत पर लगाम लगाने की भी। कुछ पेट्रोलियम उत्पादों खासकर केरोसिन और रसोई गैस पर सबसिडी देने से भी बचा नहीं जा सकता था, क्योंकि गरीबों पर उनकी कीमतों के असर को हल्का करना और जंगलों को बचाना भी जरूरी था। यह एक संतुलन भरी कार्रवाई थी, जिसे काफी तनाव के बीच अंजाम देना पड़ता था। फिर भी, जब भी कीमत बढ़ाई गई, विपक्ष खासकर भाजपा ने यूपीए सरकार की बखिया उधेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
जिंसों व तेल की कीमतें लुढ़कीं
अगर हम यह मान कर चलें कि देश में पेट्रोल और डीजल की खपत उतनी ही मात्रा में हो रही है, तो इसका अर्थ है कि सरकारें मई 2014 में जितना कर-राजस्व प्राप्त कर रही थीं, उसका दुगुना वसूल रही हैं। इसमें मुख्य दोषी केंद्र सरकार है: प्रति लीटर पेट्रोल पर यह मई 2014 के 9.48 रु. के मुकाबले 21.48 रु. और प्रति लीटर डीजल पर मई 2014 के 3.56 रु. के मुकाबले 17.33 रु. वसूल रही है। जबकि वास्तव में खपत पिछले तीन साल में 17 फीसद बढ़ी है, लिहाजा बढ़ी हुई दरों पर कुल कर-संग्रह और अधिक होगा!
आसान कमाई
इस तरह जो कर-संग्रह किया गया वह आसान कमाई है। आसान कमाई की लत हो गई है। राजग सरकार ने मई 2014 से ग्यारह बार पेट्रोल और डीजल के उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी की है।केवल इन दो उत्पादों से, केंद्र सरकार ने 2016-17 में 3,27,550 करोड़ रु. अर्जित किए। (संशोधित अनुमान)
मई 2014 से ब्रेंट कच्चे तेल की औसत कीमत 49 फीसद गिरी है। इस गिरावट का लाभ दिया जाता और अगर केंद्रीय कर का हिस्सा मई 2014 के स्तर पर बना रहता, तो पेट्रोल की खुदरा कीमत 19 फीसद तक और डीजल की खुदरा कीमत 21 फीसद तक कम हो जानी चाहिए थी। पर ऐसा नहीं हुआ, और कीमतें उसी स्तर पर या उससे भी ज्यादा हैं।
उपभोक्ता-विरोधी
सरकार की लुटेरी कर-नीति के कारण कच्चे तेल की औसत कीमत में गिरावट का महंगाई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सका। परिवहन लागत ऊंची बनी हुई है। अन्य वस्तुओं और सेवाओं पर खर्च करने की उपभोक्ता की क्षमता सिमट गई है। 2017-18 की पहली तिमाही में निजी उपभोग में मुश्किल से 6.66 फीसद की बढ़ोतरी हो पाई है। भारतीय उत्पादकों और सेवा प्रदाताओं की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता, उनके विदेशी प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले, काफी घट गई है। यह भी समझदारी नहीं मानी जाएगी कि एक ही जिंस से भारी राजस्व कमाने का भरोसा पाला जाए; अगर कच्चे तेल की कीमत तेजी से चढ़ती है, तो सरकार को राजस्व का मोह छोड़ना होगा, या लोगों पर भारी बोझ डालना पड़ेगा। किसी भी कोण से देखें, पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों को मई 2014 के स्तर पर बनाए रखना उपभोक्ता-विरोधी और प्रतिस्पर्धा-विरोधी है, और यह आर्थिक सिद्धांतों के खिलाफ है।