उपभोक्ता, प्रतिस्पर्द्धा और अर्थशास्त्र– पी. चिदंबरम

मुझे जुलाई 2008 का वह दिन याद है जब कच्चे तेल की कीमत 147 डॉलर प्रति बैरल पर पहुंच गई थी। मुझे वह दिन भी याद है जब सऊदी अरब के शाह ने तेल की चढ़ती कीमतों के संकट पर चर्चा करने के लिए तेल उत्पादक देशों और तेल खरीदार देशों की बैठक बुलाई थी। मैंने भारतीय प्रतिनिधिमंडल की अगुआई की थी, जिसमें तब के पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा भी शामिल थे। बैठक में हमने एक मूल्य सीमा (प्राइस बैंड) का प्रस्ताव रखा था: एक ऊपरी सीमा हो जिसे तेल उत्पादक देश न लांघें, और एक निम्नतम सीमा भी हो, जिसका उल्लंघन तेल खरीदार देश न करें। यह दोनों तरफ से एक प्रकार की पारस्परिक गारंटी थी। हरेक ने सहमति जताई थी, पर वास्तव में कोई समझौता नहीं हो पाया था।

यूपीए सरकार के पूरे कार्यकाल के दौरान (2004-2014), एक छोटे-से अंतराल को छोड़ कर, कच्चे तेल की कीमतें काफी ऊंची रहीं। पेट्रोलियम उत्पादों पर, खासकर पेट्रोल और डीजल पर, टैक्स लगाने से बचा नहीं जा सकता था, क्योंकि हमें राजस्व की जरूरत थी और खपत पर लगाम लगाने की भी। कुछ पेट्रोलियम उत्पादों खासकर केरोसिन और रसोई गैस पर सबसिडी देने से भी बचा नहीं जा सकता था, क्योंकि गरीबों पर उनकी कीमतों के असर को हल्का करना और जंगलों को बचाना भी जरूरी था। यह एक संतुलन भरी कार्रवाई थी, जिसे काफी तनाव के बीच अंजाम देना पड़ता था। फिर भी, जब भी कीमत बढ़ाई गई, विपक्ष खासकर भाजपा ने यूपीए सरकार की बखिया उधेड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।

जिंसों व तेल की कीमतें लुढ़कीं

 

2014 से तेल की दुनिया उलट गई है। तेल समेत जिंसों की कीमतें लुढ़क गई हैं। शेल आॅयल उत्पादित करने के नए और सस्ते तरीके ईजाद किए गए। कच्चे तेल की कीमत में भारी गिरावट आई है। रूस को मंदी से गुजरना पड़ा है। सऊदी अरब को अपने नागरिकों के एक हिस्से पर आय कर लगाने को बाध्य होना पड़ा। वेनेजुएला दिवालिया हो गया। तेल के खरीदार देशों ने खूब चांदी काटी।
भारत अपवाद है। भारत को अप्रत्याशित लाभ हुआ, पर भारतीय उपभोक्ता पहले जैसी ही कीमत चुका रहा है! संलग्न तालिका पर नजर डालें:

 

अगर हम यह मान कर चलें कि देश में पेट्रोल और डीजल की खपत उतनी ही मात्रा में हो रही है, तो इसका अर्थ है कि सरकारें मई 2014 में जितना कर-राजस्व प्राप्त कर रही थीं, उसका दुगुना वसूल रही हैं। इसमें मुख्य दोषी केंद्र सरकार है: प्रति लीटर पेट्रोल पर यह मई 2014 के 9.48 रु. के मुकाबले 21.48 रु. और प्रति लीटर डीजल पर मई 2014 के 3.56 रु. के मुकाबले 17.33 रु. वसूल रही है। जबकि वास्तव में खपत पिछले तीन साल में 17 फीसद बढ़ी है, लिहाजा बढ़ी हुई दरों पर कुल कर-संग्रह और अधिक होगा!

आसान कमाई

इस तरह जो कर-संग्रह किया गया वह आसान कमाई है। आसान कमाई की लत हो गई है। राजग सरकार ने मई 2014 से ग्यारह बार पेट्रोल और डीजल के उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी की है।केवल इन दो उत्पादों से, केंद्र सरकार ने 2016-17 में 3,27,550 करोड़ रु. अर्जित किए। (संशोधित अनुमान)

मई 2014 से ब्रेंट कच्चे तेल की औसत कीमत 49 फीसद गिरी है। इस गिरावट का लाभ दिया जाता और अगर केंद्रीय कर का हिस्सा मई 2014 के स्तर पर बना रहता, तो पेट्रोल की खुदरा कीमत 19 फीसद तक और डीजल की खुदरा कीमत 21 फीसद तक कम हो जानी चाहिए थी। पर ऐसा नहीं हुआ, और कीमतें उसी स्तर पर या उससे भी ज्यादा हैं।

 

हम इस स्थिति में इसलिए हैं क्योंकि हमारे पास एक लोभी सरकार है जो ‘टैक्स वसूलने और खर्च करने’ में यकीन करती है। इसे ‘सरकारी व्यय’ के लिए धन जुटाना है, क्योंकि इस वक्त आर्थिक वृद्धि का यही एक इंजन काम कर रहा है (पढ़ें ‘कुछ नहीं मालूम दिल्ली को’, जनसत्ता, 17-09-2017)। मौजूदा सरकार मानती है कि मध्यवर्ग और निम्न मध्यवर्ग के उपभोक्ताओं को, जो वाहन रखते हैं, भारी कर अदा करने ही चाहिए, क्योंकि नए पर्यटन मंत्री के मुताबिक ‘वे भूखों नहीं मर रहे!’
अगर पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतें घटा दी जाएं, तो यह आर्थिक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने वाला होगा। सरकार कई तरह से लाभान्वित होगी: केरोसिन और रसोई गैस पर सबसिडी का व्यय कम होगा, और रेलवे, रक्षा तथा अन्य विभागों को र्इंधन की कम लागत उठानी होगी।

 

उपभोक्ता-विरोधी

सरकार की लुटेरी कर-नीति के कारण कच्चे तेल की औसत कीमत में गिरावट का महंगाई पर कोई प्रभाव नहीं पड़ सका। परिवहन लागत ऊंची बनी हुई है। अन्य वस्तुओं और सेवाओं पर खर्च करने की उपभोक्ता की क्षमता सिमट गई है। 2017-18 की पहली तिमाही में निजी उपभोग में मुश्किल से 6.66 फीसद की बढ़ोतरी हो पाई है। भारतीय उत्पादकों और सेवा प्रदाताओं की प्रतिस्पर्धात्मक क्षमता, उनके विदेशी प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले, काफी घट गई है। यह भी समझदारी नहीं मानी जाएगी कि एक ही जिंस से भारी राजस्व कमाने का भरोसा पाला जाए; अगर कच्चे तेल की कीमत तेजी से चढ़ती है, तो सरकार को राजस्व का मोह छोड़ना होगा, या लोगों पर भारी बोझ डालना पड़ेगा। किसी भी कोण से देखें, पेट्रोल और डीजल की खुदरा कीमतों को मई 2014 के स्तर पर बनाए रखना उपभोक्ता-विरोधी और प्रतिस्पर्धा-विरोधी है, और यह आर्थिक सिद्धांतों के खिलाफ है।

 

लोगों के बीच असंतोष पनप रहा है। देश के कई हिस्सों में विरोध-प्रदर्शन हुए हैं। करों को कम करने तथा कच्चे तेल की घटी हुई कीमतों का लाभ उपभोक्ताओं को देने की मांग को सरकार अनसुनी करती आ रही है।
जीएसटी के संदर्भ में डॉ मनमोहन सिंह ने कहा था कि यह ‘संगठित लूट और कानूनी डकैती है’। मेरे खयाल से, वे शब्द राजग सरकार की पेट्रोल-डीजल संबंधी कर-नीति को सटीक ढंग से व्यक्त करते हैं।

 

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