आदर्श ग्राम योजना, मेक इन इंडिया, मुद्रा योजना की तरह कौशल विकास योजना को लेकर भी बड़ी-बड़ी बातें की गर्इं। लेकिन जब सरकार ने इस योजना की सच्चाई जानने के लिए धरातल पर एक आंतरिक सर्वे करवाया तो बहुत चिंताजनक स्थिति सामने आई। कौशल विकास योजना को संचालित करने वाले मंत्रालय की आंतरिक आॅडिट रिपोर्ट में इस बात का स्पष्ट रूप से जिक्र है कि सरकार द्वारा अनुदान-प्राप्त करीब सात फीसद संस्थान सिर्फ कागजों पर चल रहे हैं। इनके अलावा इक्कीस फीसद संस्थान ऐसे हैं जिनके पास ट्रेनिंग के लिए बुनियादी उपकरण व संसाधन तक नहीं हैं। सर्वे के दौरान अनेक स्थानों पर ट्रेनिंग सेंटर की जगह कहीं मैरिज हॉल तो कहीं हॉस्टल मिला। देश के युवाओं को हुनरमंद बनाने वाली यह योजना शुरुआती दौर में ही पटरी से उतरती दिख रही है।
सनद रहे कि इस योजना को लेकर विश्व बैंक भी बेहद आशावादी रहा है। इसी के चलते ‘स्किल इंडिया’ मिशन को विश्व बैंक ने न केवल अपना समर्थन दिया बल्कि पच्चीस करोड़ डॉलर का कर्ज भी बिना किसी विलंब के मंजूर कर दिया। बता दें कि बीते साल आॅस्ट्रेलिया के एक थिंक टैंक ने भी इस योजना के तहत भारत की मदद करने को कहा था। उस समय आॅस्ट्रेलिया के मेलबर्न के थिंक-टैंक इंडिया इंस्टीट्यूट (एआइआइ) ने कहा था कि वह कौशल विकास सुधार के लिए भारत की मदद कर सकता है लेकिन उसे मौजूदा प्रशिक्षण व्यवस्थाओं पर मूलभूत शोध करने की जरूरत है। इसके साथ ही उसने योजनाओं को भारत की दीर्घकालीन आर्थिक रणनीति के अनुरूप ढालने की बात कही थी। एआइआइ ने ‘स्किल इंडिया’ को भारत सरकार की एक बड़ी नीतिगत पहल भी बताया था।
अब तक इस योजना का लाभ कितने युवाओं को मिला, इसका संचालन कैसे हो रहा है इसकी जमीनी सच्चाई क्या है जैसे तमाम व्यावहारिक पहलुओं को जानने के लिए एक मीडिया संस्थान ने भी धरातल पर स्टिंग किया। इस संस्थान ने भी अपने स्टिंग में यही पाया कि देश भर में ऐसे सैकड़ों सेंटर हैं, जिनके नाम सरकारी वेबसाइट की सूची में तो हैं लेकिन असल में वहां कोई ट्रेनिंग सेंटर नहीं चल रहा है। उसने एक रिपोर्ट भी जारी की है, जिसके अनुसार सात फीसद संस्थान भूतों का अड््डा बन चुके हैं। यानी उन संस्थानों में किसी तरह का कौशल विकास प्रशिक्षण नहीं दिया जा रहा है। प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना के तहत चलने वाले ऐसे अधिकांश ट्रेनिंग सेंटर राजस्थान, उत्तर प्रदेश और हरियाणा में संचालित हैं। मीडिया संस्थान के रिपोर्टर जब दिल्ली से साठ किलोमीटर दूर एनसीआर के ग्रेटर नोएडा पहुंचे तो वहां एक ऐसे सेंटर का पता लगा जो वहां था ही नहीं।
वहां एक छात्रावास चल रहा था, जबकि राष्ट्रीय कौशल विकास निगम की वेबसाइट के मुताबिक वहां एसपीईजी नाम के कौशल विकास केंद्र का संचालन हो रहा है और उसमें 480 छात्रों को ब्यूटी और हेयर ड्रेसिंग की ट्रेनिंग दी जा रही है। जब छात्रावास के गार्ड से इस बारे में पूछा गया तो उसने किसी तरह के ट्रेनिंग सेंटर होने या ट्रेनिंग कोर्सचलाए जाने से इनकार कर दिया। गार्ड ने स्पष्ट कहा कि यहां बस ब्वॉयज हॉस्टल चलता है। ठीक इसी तरह से उत्तर प्रदेश के ही एक दूसरे शहर इटावा के जसवंत नगर में एक फुटवेयर डिजायन इंस्टीट्यूट का भी सच सामने आया। वहां पहुंचने पर पता चला कि यहां भी किसी प्रकार की ट्रेनिंग नहीं दी जा रही है बल्कि यह एक वेडिंग हॉल है। जब संबंधित मंत्रालय के अधिकारियों को इस बाबत जानकारी दी गई तो उन लोगों ने इस तरह के संस्थानों के नाम वेबसाइट की सूची से हटाने की बात कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया। जब इस तरह की फर्जी गतिविधियों व अनियमितताओं की सूचना हमें कर्ज देने वाले विश्व बैंक तक पहुंचेगी तो हमारी साख का क्या होगा?
इन सबसे भी हट कर बात करें तो हमारे उन अकुशल युवाओं को रोजगार कौन देगा जो बेरोजगारी की कतार को दिन दूनी रात चौगुनी लंबी कर रहे हैं। फिलवक्त भारत में श्रमिकों में सिर्फ 3.5 फीसद किसी खास कौशल में प्रशिक्षित हैं, जबकि चीन में 46 फीसद, जर्मनी में 74 फीसद और दक्षिण कोरिया में 96 फीसद तक श्रमिक प्रशिक्षित हैं। इन देशों में पिछले पचास-साठ वर्षों में सरकार व उद्योगों के प्रयास से ही वहां की श्रमशक्ति हुनरमंद बन सकी है। पर क्या हम 2022 तक एक तिहाई श्रमशक्ति को प्रशिक्षित व हुनरमंद बना पाएंगे?
पांच साल में चालीस करोड़ युवाओं को हुनरमंद बनाना असंभव नहीं है, मगर जिस तरह से हुनरमंद बनाने की योजना चल रही है उसे देखते हुए तो यह काम बड़ा चुनौतीपूर्ण ही दिखाई देता है। आज जिस हुनर और कौशल के प्रति हम आशान्वित हैं, जरूरी नहीं कि भविष्य में भी उनकी जरूरत बनी रहे। गौरतलब है 2030 में विकसित देशों में पांच करोड़ नौकरियों के लिए युवा शक्ति की कमी होगी और तब भारत में पांच करोड़ युवा नौकरियां ढूंढ़ रहे होंगे। आने वाला समय और भी भयावह होने वाला है। रोबोटिक, इंटरनेट, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, बायोटेक्नालॉजी, डाटा-एनेलिटिक्स, ई-कामर्स जैसे क्षेत्रों में जो तीव्र परिवर्तन हो रहे हैं वे भी करोड़ों मौजूदा नौकरियों को निगल जाएंगे। क्या ऐसी स्थिति में हमारे युवा फिर से बेरोजगारी के शिकार नही बनेंगे?
इस योजना पर अनुमानत: आठ लाख करोड़ रुपए खर्च होंगे। इस हिसाब से सालाना छह हजार करोड़ रुपए का बजट ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। बजट की समस्यासेभी निजात पा लें तो सवाल है कि युवा कौशल-विकास के प्रशिक्षण पर अपना पैसा और समय क्यों लगाएं, जब नियोक्ता उन्हें बेहतर पारिश्रमिक देने को तैयार न हों। अगर नौकरी देने वाला कम वेतन देकर अकुशल श्रमिकों से संतुष्ट है, तो कौशल प्रशिक्षण की मांग बहुत कम होगी।
आज के समय में यही हाल स्कूलों व कॉलेजों से निकलने वाले युवाओं का है, जो कि कौशल विकास के बजाय डिग्रियां लेना ज्यादा पसंद कर रहे हैं। आज के अभिभावक भी यह नहीं चाहते हैं कि उनके बच्चे प्लंबर, हेयर ड्रेसर, ब्यूटीशियन, ड्राइवर, टेलर, इलेक्ट्रिशियन, कंपाउंडर या नर्स बनें। अभिभावक अपने बच्चों को डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, पत्रकार, चार्टर्ड एकाउंटेंट, आइएएस, आइपीएस, सिविल सेवा के अफसर बने हुए देखना चाहते हैं। बेशक ये सभी पद कभी भारतीय उच्चवर्ग की बपौती समझे जाते थे लेकिन आज तो हर कोई ‘स्टेटस’ की जिंदगी जीना चाहता है।