बीमारी पता हो और उसका इलाज भी, फिर भी बीमारी बनी रहे तो इसे क्या कहेंगे? अपने देश में किसानों और खेती-बाड़ी के साथ यही हो रहा है। बीते सात दशक से किसान को इंतजार है ऐसी सरकार का जो उसके मर्ज का इलाज करे, लक्षण का नहीं। समस्या इतनी-सी है कि किसान फसल उपजाने के लिए जितना खर्च करता है, उसे बेचकर वह उतना भी नहीं कमा पाता। सरकारों का आलम यह है कि सिर ढंकती हैं तो पैर निकल आता है। हरित क्रांति आई तो देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर हो गया। अब दूसरी हरित क्रांति की बात हो रही है। वह भी आ जाएगी पर किसान भूखा रहे, आत्महत्या करे या गोली खाए, यही उसका प्रारब्ध बन गया है। खेती घाटे का सौदा बन गई है। किसान खेती छोड़ना चाहता है, पर छूट नहीं रही, क्योंकि और कोई विकल्प नहीं है। उसे मुनाफे में लाने के लिए फूड प्रोसेसिंग (खाद्य प्रसंस्करण) को युद्धस्तर पर बढ़ावा देने के सिवा कोई रास्ता नहीं है।
अपने देश की अर्थव्यवस्था में तरह-तरह के विरोधाभास हैं। किसान अपनी उपज बढ़ाता है तो सूखे या किसी प्राकृतिक आपदा के समय से भी ज्यादा दुर्गति को प्राप्त होता है। प्राकृतिक आपदा से उसके बचाव के लिए अब एक कारगर प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना है, पर ज्यादा उपज से निपटने का न तो उसके पास कोई उपाय है और न ही सरकार के पास। सरकार समर्थन मूल्य तो बढ़ा देती है, पर किसान की पूरी उपज खरीदने का उसके पास साधन नहीं है। ज्यादा उपज के समय निर्यात पर प्रतिबंध और स्टॉक लिमिट हटने में समय लगता है। स्टॉक लिमिट बनी रहने से निजी व्यापारी ज्यादा खरीद नहीं पाता और सरकार के पास भंडारण की क्षमता नहीं है, इसलिए मारा किसान जाता है। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र का ताजा आंदोलन इसी का नतीजा है। इस मर्ज का इलाज करने के लिए जो कदम उठाया जाता है, वह कोढ़ में खाज का काम करता है। राजनीतिक दलों को इससे निकलने का सबसे आसान रास्ता नजर आता है किसानों की कर्ज माफी। किसान भी यह समझने को तैयार नहीं हैं कि यह कर्ज माफी उन्हें जीवन नहीं देती, सिर्फ मौत की तारीख टाल देती है। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में किसानों के कर्ज माफ करने का वादा करके भाजपा ने इस जिन्न् को फिर से बोतल से निकाल दिया। उत्तर प्रदेश में सरकार बनने और कर्ज माफी की घोषणा के साथ ही महाराष्ट्र में भी ऐसी मांग उठी और सरकार को मानना पड़ा। यह आग धीरे-धीरे फैल रही है। मध्य प्रदेश के मंदसौर और आसपास के इलाकों में जो हुआ वह भारतीय कृषि की एक दूसरी समस्या है, लेकिन वहां पर भी कर्ज माफी की मांग हो रही है।
मध्य प्रदेश देश का इकलौता राज्य है जहां पिछले दस साल से कृषि विकास की दर दहाई के आंकड़े में है। इसके बावजूद किसान आंदोलित है। मध्य प्रदेश की समस्या पिछले सत्तर सालों में किसानों को लेकर होने वाली राजनीति का ज्वलंत उदाहरण है। देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी के नेता राहुल गांधी किसानों कीसमस्या का एक ही हल जानते हैं और वह है कर्ज माफी। इससे पता चलता है कि उन्हें किसानों और कृषि क्षेत्र की समस्या की कोई समझ नहीं है। उन्होंने कभी यह सोचने की जरूरत नहीं समझी कि 2008 में हुई कर्ज माफी का किसान की हालत पर क्या असर पड़ा? मध्य प्रदेश की समस्या कृषि क्षेत्र के बारे में प्रशासनिक अव्यवस्था का भी उदाहरण है। सरकार ने तुअर की दाल का समर्थन मूल्य बढ़ाकर पांच हजार पचास रुपए कर दिया। इसके साथ ही मोजांबिक से भी दाल आयात कर ली। नतीजा यह हुआ कि बाजार में भाव गिर गया। समर्थन मूल्य पर कोई खरीदने को तैयार नहीं था। किसानों ने शिकायत की तो सरकार ने घोषणा कर दी कि समर्थन मूल्य से कम पर खरीदना गैरकानूनी होगा। व्यापारियों ने खरीदना बंद कर दिया, जिससे किसान और कठिनाई में फंस गया। न सरकार खरीद रही थी और न व्यापारी।
अपने देश में फूड प्रोसेसिंग की हालत नौ दिन चले अढ़ाई कोस जैसी है। देश में कोल्ड स्टोरेज की हालत अच्छी नहीं है। 2007 में केंद्र सरकार ने कोल्ड चेन के विकास की स्थिति और सुधार के उपाय सुझाने के लिए टास्क फोर्स का गठन किया था। उसके मुताबिक देश के अस्सी फीसदी कोल्ड स्टोरेज सिर्फ आलू रखने के काम आते हैं। देश के नब्बे फीसदी कोल्ड स्टोरेज अमोनिया रेफ्रिजरेशन की पुरानी तकनीक से चलते हैं। जो कोल्ड स्टोरेज हैं भी, उनके लिए प्रशिक्षित लोगों की भारी कमी है। एक तरफ जरूरत बहुत है, पर प्रशिक्षित लोगों की उपलब्धता नहीं है। यह स्थिति कौशल विकास मंत्रालय बनने के बाद है। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि कौशल विकास मंत्रालय और खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय में कोई तालमेल नहीं है। देश में डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ का उपभोग सालाना प्रति व्यक्ति केवल 24 किलो है। विकसित देशों में कुल कृषि उपज का 90 फीसद पैकेज्ड होता है। अपने देश में यह अनुपात छह फीसदी है। एक आकलन के मुताबिक यदि देश की कुल कृषि उपज का साठ फीसदी डिब्बाबंद होने लगे तो किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी।
किसानों की समस्या के फौरी हल में सरकारें हमेशा किसान की बजाय उपभोक्ता के हितों को तरजीह देती हैं। किसी कृषि उपज का दाम बढ़ जाता है तो देशभर में हल्ला हो जाता है और सरकार भी सक्रिय हो जाती है। अगर किसान की उपज का दाम गिर जाए तो उससे किसान को ही निपटना पड़ता है। किसान चाहता है कि सरकार उसे इस अनिश्चितता और असुरक्षा के माहौल से मुक्ति दिलाए। कर्ज माफी से किसान की समस्या का कोई स्थायी समाधान होता नहीं, उल्टे बैंकिंग व्यवस्था पर बुरी मार पड़ती है। इसका खामियाजा पूरी अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ता है। देश में कर्ज माफी की इस संस्कृति ने नए तरह के बिचौलियों को जन्म दिया है जो किसानों को कर्ज दिलाने का ही धंधा करते हैं, इस आश्वासन के साथ कि ये नहीं तो अगली सरकार कर्ज माफ कर ही देगी।
किसानों की स्थिति सुधारना है तो सरकार को एग्रो इंडस्ट्री क्षेत्र में कुछ बड़े कदम उठाने होंगे। 2016-17 के केंद्रीय बजट में सरकार ने इस क्षेत्र में ऑटोमेटिकरूटसे सौ फीसदी विदेशी निवेश की इजाजत दे दी है, लेकिन जब तक सरकारी और निजी (देश का) निवेश नहीं बढता, स्थिति में कोई बड़ा बदलाव होना मुश्किल है। समस्या यह है कि जितने लोग कृषि पर निर्भर हैं, उनका बोझ उठाने की क्षमता कृषि क्षेत्र में नहीं है। इसलिए बड़े पैमाने पर किसानों को वैकल्पिक रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे। राजनीतिक दबाव में कर्ज माफी के जरिए समस्या को टालने की एक सीमा है और नुकसान भी। अब तक जितना पैसा कर्ज माफी में गया है, उतना यदि कृषि क्षेत्र में बुनियादी ढांचा खड़ा करने में लगता तो आज किसान की हालत बेहतर होती। किसान का उद्धार कर्ज माफी से नहीं, बल्कि उसे कर्ज लौटा सकने योग्य बनाने से होगा।