लगभग 2 डिग्री कम रखना है तापमान
पेरिस समझौते का मुख्य लक्ष्य सदी के अंत तक वैश्विक औसत तापमान 2 डिग्री सेल्सियस बढ़ने से रोकना है। तापमान 2 डिग्री से अधिक बढ़ने पर समुद्र का जलस्तर बढ़ेगा, मौसम में परिवर्तन, भोजन और पानी के संकट के साथ ही दुनिया के सामने कई तरह के जोखिम पैदा हो जाएंगे। आलोचकों का तर्क है कि तापमान 2 डिग्री सेल्सियस कम करना काफी नहीं है क्योंकि इससे कोई बड़ा अंतर नहीं होगा। मगर, यह एक शुरूआत है। पेरिस समझौते से पहले दुनिया के सभी देश बेतहाशा कार्बन उत्सर्जन करने के रास्ते पर चल रहे थे।
समझौता बाध्यकारी नहीं है
समझौते में कहा गया है कि इस 2 डिग्री के लक्ष्य को पूरा करने के लिए देशों को जितनी जल्दी हो सके चरम उत्सर्जन में कटौती करने का प्रयास करना चाहिए। मगर, समझौते में यह बिल्कुल भी विस्तार से नहीं बताया गया है कि इन देशों को ऐसा कैसे करना चाहिए। इसके बजाय यह कुछ निरीक्षण और जवाबदेही के साथ ग्रीनहाउस गैस में कमी लाने की रूपरेखा देता है।
अमेरिका के लिए लक्ष्य था कि वह 2025 तक 26 से 28 प्रतिशत की कटौती करे। मगर, ट्रम्प की मौजूदा नीतियों के अनुसार, इस लक्ष्य को पूरा करना असंभव है। 195 देशों ने इसके लिए सहमति व्यक्त की है। मगर, इसे तोड़ने पर किसी भी तरह की सजा का प्रावधान नहीं किया गया है। इस समझौते के पीछे यह विचार है कि देश उत्तरदायित्व की संस्कृति पैदा करें और अपनी जलवायु को बेहतर रखने के लिए काम करें।
अमीर देश करें, गरीब देशों की मदद
वैश्विक उत्सर्जन के मामले में मौलिक असमानता है। अमीर देशों ने भारी मात्रा में जीवाश्म ईंधन जला दिया है और उनसे वे अमीर हो गए हैं। अपनी अर्थव्यवस्थाओं को विकसित करने की मांग करने वाले गरीब देशों को अब ईंधन का इस्तेमाल करने से वंचित कर दिया गया है। जलवायु परिवर्तन के सबसे खराब प्रभावों को सहन करने वाले पहले देशों में वे गरीब देश ही शामिल होंगे।
पेरिस समझौते के तहत अमेरिका जैसे अमीर देशों को साल 2020 तक 10 करोड़ डॉलर सालाना की मदद गरीब देशों को करनी चाहिए। इस राशि को समय-समय पर बढ़ाया जा सकता है। हालांकि, समझौते के अन्य प्रावधानों की तरह यह भी बाध्यकारी नहीं है।
बिखर सकता है अंतरराष्ट्रीय गठबंधन
इस समझौते के मुद्दे इसलिए हैं क्योंकि इन मुद्दे पर गति देने की जरूरत है। पेरिस समझौता काफी हद तक प्रतीकात्मक है। अब जबकि ट्रंप ने अमेरिका को इस समझौते से अलग कर लिया है, तो उम्मीद है कि यह समझौता कमजोर हो जाएगा। इससे भी महत्वपूर्णपहलू यह है कि जलवायु परिवर्तन के मामले में अंतरराष्ट्रीय गठबंधन बिखर सकता है।
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