बेड़ियों को तोड़ती मुस्लिम महिलाएं – नाइश हसन

मशहूर शायर फैज अहमद फैज ने अरसा पहले अपनी एक नज्म के जरिए औरतों को झकझोरने की कोशिश की थी। नज्म कुछ यूं है, ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे, बोल जुबां अब तक तेरी है। उनकी इस नज्म ने महिलाओं पर गहरा असर डाला। यह नज्म जगह-जगह गुनगुनाई जाने लगी और अब इसका असर भी दिखने लगा है।

 

यूं तो औरतों पर बंदिशों की कमी नहीं, लेकिन मुस्लिम समुदाय में ये कुछ ज्यादा नजर आती हैं। बहरहाल, औरतें अब बोलने लगी हैं। उन्होंने अपने हक में आवाज बुलंद करनी शुरू कर दी है। यह एक खुशनुमा सवेरे की दस्तक है।

 

 

देश ही नहीं, दुनियाभर में मुसलमान औरतें बदल रही हैं और सही मायनों में अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही हैं। हाल के वर्षों में औरतों ने कई झंडे गाड़े हैं, जो किसी नजीर से कम नहीं। इनमें से एक नाम है इराक में यजीदी समुदाय की 15 साल की लड़की लाम्या का। नौवीं कक्षा की छात्रा लाम्या को वर्ष 2014 में आईएसआईएस ने बंधक बना लिया था। पांच मर्तबा उसकी खरीदफरोख्त की गई। किसी तरह आतंकियों के चंगुल से निकलकर छूटी लड़की आज दुनियाभर में घूम-घूमकर अपनी दास्तान सुना रही है। वह उम्मीद जताती है कि एक दिन दुनिया आईएसआईएस नामक नासूर से जरूर मुक्ति पा लेगी। पड़ोसी पाकिस्तान में पख्तून औरतें भी बगावत पर उतर आई हैं और वजीरिस्तान में उन्होंने खुद को ‘सेक्स स्लेव बनाए जाने से इनकार कर दिया। फ्रांस की एक नेता मैरीन ली पेन को लेबनान यात्रा के दौरान सिर पर स्कार्फ पहनने के लिए कहा गया, लेकिन उन्होंने ऐसा करने से साफ मना कर दिया।

 

अपने अधिकारों के लिए सऊदी अरब की महिलाओं का संघर्ष भी धीरे-धीरे रंग लाया। नतीजतन, 2014 के नगर परिषद चुनाव में उन्हें पहली बार मताधिकार मिला। उन्हें चुनाव में उम्मीदवार बनने का अधिकार भी मिला और पहली बार ही 200 महिलाएं चुनावी मैदान में उतर गईं। मतदाता पंजीयन कराने वाली पहली महिला सलमा अल रशादी ने कहा कि उन्हें बहुत अच्छा लग रहा है, बदलाव एक बड़ा शब्द है, लेकिन चुनाव ही एकमात्र जरिया है, जिससे हमें वास्तव में प्रतिनिधित्व मिल सकेगा। 43 साल में पहली बार 20 वर्षीय शायमा अब्दुर्रहमान मिस इराक चुनी गईं। इस आयोजन के मुख्य द्वार पर एके47 की चाकचौबंद पहरेदारी में ही सही, चार दशकों में पहली बार किसी ने जंग की नहीं, बल्कि जिंदगी की बात की। ईरान की एक लड़की मसीह अलीनेजाद ने फेसबुक पर हिजाब फ्री कैंपेन चलाया, ईरानी लड़कियों से बिना हिजाब वाली फोटो मंगाई और लाखों लड़कियों ने अपनी फोटो अपलोड कर दी। जबकि आज भी ईरान में बिना हिजाब निकलने पर गिरफ्तारी हो सकती है। ये मुसलमान औरतों के मुसलसल संघर्ष की मुकम्मल होती मिसालें हैं।

 

भारत में भी मुस्लिम महिलाएं पितृसत्तात्मक बेड़ियों को तोड़ सफलता के नए प्रतिमान गढ़ रही हैं। हाजी अली दरगाह में अचानक महिलाओं का प्रवेश बंद कर दिया गया। मुस्लिम औरतों ने इस पर बहस-मुबाहिसा किया। उससे बात नहीं बनी तो उन्होंने अदालत का रुख किया। अदालत में उन्हें मिली जीत से धर्म के ठेकेदार मुंह ताकते रह गए।

 

शाहबानो मामले से लेकर सायरा बानो मामले तकआते-आते मुस्लिम महिलाएं काफी बदल गईं। उन्होंने तीन तलाक के मुद्दे को भी अदालत में चुनौती दे डाली और किसी भी स्त्री विरोधी मजहबी व्याख्या को मानने से इनकार कर दिया। हरियाणा में एक लड़की ने सिर्फ इसलिए निकाह करने से इनकार कर दिया, क्योंकि वर पक्ष के यहां शौचालय नहीं था।

 

उत्तर प्रदेश में नई सरकार बनने के साथ ही रोजाना बड़ी संख्या में आ रहे तीन तलाक के मामलों को लेकर महिलाएं मुख्यमंत्री से मुलाकात कर रही हैं। महिलाएं बाकायदा प्रतिनिधिमंडल गठित कर महिला कल्याण मंत्री रीता बहुगुणा जोशी के पास चली जाती हैं और उनसे पूछती हैं कि आप की पार्टी के चुनावी संकल्प पत्र में तीन तलाक का मसला भी था तो इस पर अब आप क्या कर रही हैं?

 

यह सच है कि भारत के इतिहास में पहली बार किसी सियासी दल के चुनावी घोषणा पत्र में मुस्लिम महिलाओं की पीड़ा का पर्याय बने तीन तलाक को शामिल किया गया। लिहाजा अब जवाबदेही भी सरकार की बनती है। महिलाएं बेहद उत्साहित, आशान्वित हैं खासकर पीड़ित महिलाएं बार-बार सवाल कर रही हैं।

 

मुस्लिम महिलाओं से जुड़े मुद्दे पिछले सत्तर सालों के इतिहास में हमेशा हाशिये पर ही रहे। अल्पसंख्यक अधिकारों के नाम पर मुसलमान मर्द अपने लिए तो सब कुछ लेना चाहते हैं, लेकिन औरतों को वे अपनी मर्जी के मुताबिक ही देना चाहते हैं। कौम की आधी आबादी को तवज्जो ही नहीं मिली। उसे अनसुना किया गया। उसी कौम के तथाकथित रहनुमाओं ने उसकी लगातार अनदेखी की। उनकी बदजुबानी और मजहबी जकड़बंदी ने भी औरत को पीछे धकेल दिया। स्वयंभू उलमाओं ने खुद की गढ़ी किताबों के जरिए उसकी भूमिका को सीमित करने का काम किया। पितृसत्ता इतना डरती है औरत से! ये देखकर हैरानी होती है। बाबासाहेब आंबेडकर ने एक बार कहा था – गुलाम को गुलामी का एहसास करा दो तो वह विद्रोह कर गुलामी की बेड़ियां तोड़ देगा। मुस्लिम औरतों को गुलामी का एहसास हो गया है और अब वे विद्रोह पर उतारू हो आजाद हवा में सांस लेने पर आमादा हैं।

 

किसी सियासी दल ने मुस्लिम औरत का वर्ग तैयार नहीं किया। यह तबका खुद अपनी परेशानियों से आजिज आकर खड़ा हुआ है। उसे लगातार अनसुना करते रहे, बेड़ियों में जकड़े रहे, मजहबी खौफ से डराते रहे, जन्न्त जाने के लिए उसे जमीनी खुदा शौहर की खिदमत करने का सबक दिया गया। इससे औरतों का दम घुटता ही रहा और आखिरकार वह दिन आ ही गया जब वे बिना जंजीरों वाले कैदखाने से खुद ही निकल भागने में कामयाब हो गई।

 

अब उन्हें स्त्री विरोधी गढ़ी हुई मजहबी किताबों से डराया नहीं जा सकता। उन्हें तीन तलाक की मनमानी व्याख्या भी कतई नामंजूर है। औरतें सवाल उठा रही हैं। पूछ रही हैं कि इसी देश की धरती पर हिंदू धर्म में प्रचलित ‘सती जैसी कुप्रथा को तिलांजलि दी गई। वे यह सवाल भी कर रही हैं कि हिंदू धर्म में तलाक नहीं है, फिर भी धर्म को किनारे रखकर इसी देश ने 1955 मे हिंदू स्त्री को तलाक का हक कैसे दिया? अगर ये मुमकिन है तो फिर उसी देश में मुस्लिम मजहबी किताबों को किनारेरखकरमुस्लिम स्त्री को जुबानी तीन तलाक से निजात मिलना क्यों मुमकिन नहीं है? मुस्लिम औरतों के इस जायज सवाल का जवाब भारत सरकार को देना ही होगा। वे आसभरी निगाहों से सरकार की ओर ताक रही हैं कि जिस तरह यूपी की भाजपा सरकार ने अपने संकल्प पत्र में किए अन्य वादों के प्रति दृढ़ता दिखाई है, उसी तरह तीन तलाक के मामले में भी सरकार जल्द जरूरी कदम उठाएगी।

 

(लेखिका रिसर्च स्कॉलर व मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ता हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

 

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