अनशन तोड़ने से मानवाधिकार कार्यकर्ता इरोम चानू शर्मिला की आगे की राह आसान नहीं होगी। लेकिन यह भी सच है कि आखिर सोलह साल तक लगातार भूख हड़ताल करने पर भी उनकी एकसूत्री मांग पूरी नहीं हो पाई, अफस्पा (सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून) नहीं हट पाया। लंबे समय तक भूख हड़ताल से इरोम का शरीर जरूर कमजोर हुआ है लेकिन कठिनाइयों व चुनौतियों का सामना करने की उनकी आंतरिक शक्ति और इच्छाशक्ति में इजाफा भी हुआ है। उनके अंदर स्वतंत्रता की छटपटाहट है और वे अदम्य साहस से लबरेज हैं। अफस्पा को हटाने के लिए इरोम राष्ट्रपति, तत्कालीन यूपीए सरकार और वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी कई पत्र लिख चुकी हैं लेकिन कहीं से भी उन्हें अफस्पा को हटाने के स्पष्ट संकेत नहीं मिले हैं। केंद्रीय खुफिया एजेंसियों ने एक बार नहीं कई बार केंद्रीय गृह मंत्रालय को भेजी गई रिपोर्टों में साफ-साफ कहा कि पूर्वाेत्तर राज्यों के अलावा जम्मू-कश्मीर में अफस्पा को हटाना कतई संभव नहीं है। अफस्पा में जो भी आवश्यक संशोधन किए जाने थे, हो गए हैं। इन रिपोर्टों के मुताबिक यदि अफस्पा हटाया गया तो इन राज्यों की विधि-व्यवस्था और बदतर हो सकती है। केंद्र सरकार भविष्य में इन राज्यों में होने वाली उथल-पुथल को झेलने की स्थिति में नहीं रहेगी। इसलिए न यूपीए सरकार अफस्पा को हटाने का निर्णय ले पाई और न ही राजग सरकार ले पा रही है। मुठभेड़ों को लेकर हाल में सुप्रीम कोर्ट ने जरूर सवाल खड़ा किया है। कोर्ट ने कहा है कि अशांत क्षेत्रों में भी सेना अत्यधिक और बदला लेने वाली शक्ति का इस्तेमाल नहीं कर सकती। मणिपुर की बाबत सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वहां राष्ट्रीय सुरक्षा को युद्ध जैसा खतरा नहीं है। कथित फर्जी मुठभेड़ों की गहन पड़ताल का आदेश भी अदालत ने दिया है।
दरअसल, अफस्पा काफी सख्त कानून है। या यों कहा जाए कि इसको लागू करने से आपातकाल जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। इसके तहत केंद्र व राज्य सरकार किसी भी क्षेत्र को गड़बड़ी वाला क्षेत्र घोषित कर सकती हैं। सेना को बिना वारंट तलाशी, गिरफ्तारी व जरूरत पड़ने पर शक्ति के चरम इस्तेमाल की इजाजत भी है। सेना संदिग्ध व्यक्ति को गोली से उड़ा भी सकती है। नियमत: सेना गिरफ्तार व्यक्ति को जल्द से जल्द स्थानीय पुलिस को सौंपने के लिए बाध्य है। लेकिन इस कानून में जल्द से जल्द की कोई व्याख्या नहीं है और न ही कोई सीमा तय की गई है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस कानून के दायरे में काम करने वाले सैनिकों के खिलाफ किसी भी तरह की कानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती है। मानवाधिकार उल्लंघन या कानून की आड़ में ज्यादती करने के आरोपी सैनिक पर केंद्र की अनुमति से ही मुकदमा चलाया जा सकता है या सजा दी जा सकती है। कानून के जानकार भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि अफस्पा सुरक्षा के नाम पर संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक नागरिक अधिकारों का हनन है। मानवाधिकार आयोग के दबाव में इस कानून को लेकर कई बार मंथन भी हुआ जिसके तहत तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस कानूनमें सुधार की संभावना तलाशने के लिए न्यायमूर्ति बीपी जीवन रेड््डी समिति गठित की, लेकिन नतीजा कुछ खास नहीं निकल पाया। इस सख्त कानून को खत्म कराने के मकसद से इरोम का संघर्ष 2 नवंबर 2000 से शुरू हुआ। इसके पीछे का प्रकरण यह है कि इरोम शर्मिला एक शांति रैली की तैयारी में जुटी थीं कि फौज ने मालोम बस स्टैंड पर अंधाधुंध गोलीबारी की, जिसमें दस बेगुनाहों की मौत हो गई। मारे गए लोगों में बासठ साल की लेसंगबम इबेतोमी और बहादुरी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित सिनम चंद्रमणि भी शामिल थीं।
अफस्पा एक बार फिर देश-दुनिया में चर्चा का विषय बना, जब थांगजाम मनोरमा नाम की मणिपुरी महिला के साथ कुछ सैनिकों ने बलात्कार किया, फिर उसकी हत्या कर दी। उसके बाद न केवल मणिपुर, बल्कि पूरे पूर्वोत्तर में जनाक्रोश फैल गया। इस घटना के विरोध में असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने एक दर्जन बुजुर्ग महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया। वर्ष 1958 में संसद ने अफस्पा (एएफएसपीए- आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट) को पारित किया। शुरुआती दौर में इसे आंतरिक सुरक्षा के नाम पर नगालैंड में लागू किया गया। वर्ष 1958 के बाद पूर्वाेत्तर के कई राज्यों के कई इलाकों में इसे लागू किया गया। वर्ष 1990 में लद्दाख को छोड़ कर, जम्मू-कश्मीर में भी अफस्पा लागू किया गया। यहां गौरतलब है कि मणिपुर सरकार ने, केंद्र की इच्छा के विपरीत, अगस्त 2004 में राज्य के कई हिस्सों से इस कानून को हटा दिया था। इसे लेकर केंद्र व मणिपुर सरकार के बीच काफी तनातनी का माहौल बना। बाद में फिर से वहां यह कानून सख्ती के साथ लागू किया गया। देश में सबसे पहले ब्रिटिश सरकार ने भारत छोड़ो आंदोलन को कुचलने के लिए अफस्पा को अध्यादेश के जरिए 1942 में पारित किया। अपना संविधान लागू होने के बाद पूर्वाेत्तर राज्यों में बढ़ रहे अलगाववाद और हिंसा से निपटने के लिए मणिपुर और असम में वर्ष 1958 में अफस्पा लागू किया गया। वर्ष 1972 में कुछ संशोधनों के साथ इसे लगभग सारे उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में लागू कर दिया गया। अस्सी और नब्बे के दशक में क्रमश: पंजाब और कश्मीर में भी अफस्पा के तहत सेना को विशेष अधिकार दिए गए।
अफस्पा को लेकर शुरू से ही काफी विवाद रहा है। मानवाधिकार संगठन इस कानून के औचित्य पर सवाल उठाते रहे हैं। वर्ष 2005 में जीवन रेड्डी समिति और वर्मा समिति ने अपनी-अपनी रिपोर्ट में सुरक्षा बलों पर काफी गंभीर आरोप लगाए। इसी आधार पर अफस्पा पर तुरंत रोक लगाने की मांग भारत सरकार से की गई। लेकिन रक्षा मंत्रालय और सेना ने असहमति जताते हुए रेड््डी समिति व वर्मा समिति के सुझावों को सिरे से खारिज कर दिया। इसके अतिरिक्त दो और समितियों का गठन किया गया, लेकिन उनकी रिपोर्ट कहां गई, कौन बता सकता है! दरअसल, यह कानून सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देता है। सेना की मानें तो नगालैंड, पंजाब और कश्मीर में शांति बहाली में इस कानून से काफी मदद मिली है। केंद्रीय खुफिया रिपोर्ट पर यकीन करें तो अधिकतर आरोप अलगाववादियों की शह पर लगाए गए होते हैं और तीन सेचारफीसद मामलों में ही सेना पर लगाए गए आरोप सही पाए गए हैं। हालांकि इस मसले पर एक और समिति वर्ष 2015 में गठित की गई, लेकिन उसकी रिपोर्ट अब तक नहीं आई है। इरोम शर्मिला ने एलान किया है कि वे 2017 में मणिपुर विधानसभा का चुनाव लड़ेंगी। माना वे जीत भी गर्इं, तो क्या अफस्पा हट पाएगा? अफस्पा केवल मणिपुर से जुड़ा प्रकरण नहीं है, बल्कि अरुणाचल, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड व जम्मू-कश्मीर से भी जुड़ा हुआ है। इस सख्त कानून को हटाने के लिए इरोम ने महात्मा गांधी, भगत सिंह, निगमानंद व अण्णा हजारे की तरह सत्याग्रह जरूर किया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। इरोम को इस बात का भी मलाल है कि इन सोलह वर्षों के दौरान उनके सत्याग्रह को जो जन-समर्थन मिलना चाहिए था, नहीं मिल पाया। इरोम को भले ही अफस्पा को हटाने में सफलता अब तक नहीं मिल पाई, लेकिन उनका सोलह वर्षों तक किया गया सत्याग्रह व्यर्थ नहीं जाएगा।
इरोम अब बतौर जनप्रतिनिधि काम करना चाहती हैं, लेकिन उनकी यह डगर आसान नहीं दिख रही क्योंकि पूर्वाेत्तर के राज्यों में सबसे ज्यादा उबाल मणिपुर में ही है। मणिपुर के हालात निरंतर बिगड़ रहे हैं। करीब उनतीस लाख की आबादी वाले इस राज्य में बाहरी लोगों की संख्या आठ से नौ लाख है। मणिपुर के मूल निवासी कहते हैं कि नेपाली, बांग्लादेशी, म्यांमारवासी व बिहारी मणिपुर की जनसांख्यिकी को बिगाड़ रहे हैं। इतना ही नहीं, इरोम को भूमिगत बलवाई संस्था कांग्लेयी यावेल कन्नालुप, जिसने स्वतंत्र मणिपुर राष्ट्र के लिए सशस्त्र संघर्ष छेड़ रखा है, को भी झेलना होगा। मणिपुर में इनर लाइन परमिट प्रणाली की समस्या है। यहां यह भी बता देना उचित होगा कि सितंबर 2015 में मणिपुर सरकार ने राज्य में बाहरी लोगों के प्रवेश को लेकर तीन विधेयक (मणिपुर के लोगों का संरक्षण विधेयक, मणिपुर भूमि राजस्व और भू सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक और मणिपुर दुकान व प्रतिष्ठान (दूसरा संशोधन) विधेयक) पारित किए। इन विधेयकों को लेकर भी मणिपुर में काफी हिंसा हुई थी। अलबत्ता मणिपुर सरकार बार-बार मणिपुर के बाशिंदों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश करती रही कि इन विधेयकों से यहां की जनजातियों को कोई खतरा नहीं है। बावजूद इसके वहां हिंसा महीनों बाद थमी। वृहद नगालिम बनाने की मांग को लेकर नगालैंड में भी उबाल है। केंद्र सरकार ने नेशनलिस्ट सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड के इसाक-मुइवा गुट के साथ शांति समझौता कर रखा है। समझौते में क्या है, इसका खुलासा अब तक नहीं हो पाया है। लेकिन इससे कहीं न कहीं मणिपुर, असम व अरुणाचल भी प्रभावित होंगे। इन तीनों राज्यों की सरकारों ने समझौते के तुरंत बाद केंद्र के समक्ष अपना विरोध जता दिया था। इन राज्यों को भय है कि वृहद नगालिम यदि बनेगा तो इनका कुछ-कुछ भूभाग उसमें चला जाएगा। इरोम जब राजनीति में शामिल होंगी तो उनके सामने भी ये सारी समस्याएं आएंगी। यों वे काफी सुलझी हुई शख्सियत हैं लेकिन सवाल है कि राजनीति में वे कहां तक फिट बैठेंगी!