अपनी हदों में रहें तो ही बेहतर – शंकर शरण

इधर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच विवाद की खबरें लगातार आ रही हैं। वित्त मंत्री ने संसद में कहा न्यायपालिका इतना हस्तक्षेप कर रही है कि लगता है कार्यपालिका के पास बजट पास करने के सिवाय कोई काम नहीं बचेगा। न्यायपालिका हर बात में घुसपैठ करती रहती है। इसके बाद रक्षा मंत्री ने कहा कि न्यायाधीशों की कई टिप्पणियां बेमतलब होती हैं। इसके बाद एक और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने प्रधान न्यायाधीश टीएस ठाकुर के उस बयान का प्रतिकार किया जिसमें उन्होंने कहा था कि जब सरकार फेल हो जाती है, तभी न्यायपालिका हस्तक्षेप करती है।

लगता है कि सरकार के दो अंगों के बीच तकरार बढ़ रही है। कोई पक्ष यह नहीं कह सकता कि वही ठीक है, लेकिन सर्वोच्च न्यायपाल कुछ यही मुद्रा दिखा रहा है। वह मानने को तैयार नहीं कि विधायिका एवं कार्यपालिका के कामों में दखलंदाजी, हल्की टिप्पणियां करने और खुद अपनी नियुक्ति करने जैसे अधिकार ले लेने में कुछ गलत है। अभी-अभी सहारा प्रमुख सुब्रत राय को पैरोल पर छोड़ते हुए सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश ने कहा, यह होता है मां का प्यार कि वह मरकर भी मदद कर जाती है। यह फिल्मी किस्म की टिप्पणी क्या दर्शाती है? यही कि न्यायाधीश कानूनी प्रावधानों के बदले भावनाओं और आवेगों को महत्व देते हैं? उन्हें यह एहसास भी नहीं कि न्यायिक फैसले देते हुए ऐसी बातें कहना सही संदेश नहीं देता।

दरअसल औसत नेताओं के अज्ञान और राजनीतिक दलों की आपसी खींचतान से विधायिका की स्थिति कमजोर हुई है और इसका लाभ अफसरशाही और न्यायपालिका उठा रही है। इसी क्रम में सर्वोच्च न्यायाधीशों ने खुद को नियुक्त और पुनर्नियुक्त करने की ताकत भी हथिया ली, जबकि सुप्रीम कोर्ट की कोलेजियम व्यवस्था यानी उच्चतर न्यायालयों के न्यायाधीश खुद तय करने की व्यवस्था न तो संविधानसम्मत है और न ही सामान्य विवेक से ठीक है। इसे संसद ने नहीं, स्वयं सुप्रीम कोर्ट ने 1993 से शुरू किया। यदि इसे न्यायिक स्वतंत्रता के नाम पर सही मानें तब इसी तर्क से विधानसभाओं की कार्रवाइयों में हस्तक्षेप का अधिकार न्यायालयों को कैसे है? यह तो विधायिका की स्वतंत्रता में अनुचित हस्तक्षेप हुआ। नेताओं ने अपनी गैरजिम्मेदारी और दलीय-द्वेष से न्यायपालिका को वह अधिकार लेने दिया है, जो उसे संविधान ने नहीं दिया था। यदि उच्चतर न्यायपालिका अपने उत्तराधिकारी खुद तय कर रही है तो उच्चतर विधायिका और कार्यपालिका भी अपने उत्तराधिकारी वैसे ही क्यों न तय करे? यानी वरिष्ठ सांसदों की समिति निर्णय ले कि अगले सांसद कौन-कौन होंगे। आखिर जो जरूरत न्यायिक स्वतंत्रता के लिए है, वही विधायिका और कार्यपालिका की स्वतंत्रता के लिए भी है। सभी जगह मनुष्य ही काम करते हैं। मनुष्य वाली खूबियां-खामियां सबमें होंगी। हमारे न्यायपाल उससे मुक्त नहीं हैं। वे कितने ही स्वामी और बालाकृष्णन दिखा भी चुके हैं। सवाल यह भी है कि क्या कानूनी विवादों का फैसला करना देश की सीमाओं, जन-गण की रक्षा करने या संपूर्ण प्रशासन चलाने से ज्यादा कठिन है? जब हम पता करें कि दुनिया के किस देश में न्यायाधीश अपने उत्तराधिकारी खुद नियुक्त करते हैं, तब पाएंगे कि भारत मेंविगत दो दशक से चल रही कोलेजियम व्यवस्था कितनी अनुचित है। व्यवहार में भी उसके परिणाम आदर्श नहीं कहे जा सकते। 23 वर्षों से चल रही इस स्वनियुक्ति प्रकिया से यदि उत्तमोत्तम न्यायाधीश आए होते तब भी एक बात थी, लेकिन देखा गया है कि ऐसे-ऐसे जजों को सुप्रीम कोर्ट लाया गया, जो हाई कोर्ट में ही तीन घंटे लेट आते थे। सुप्रीम कोर्ट आकर भी उनका यही रवैया रहा। इसी तरह ऐसे न्यायाधीश भी सुप्रीम कोर्ट पहुंचे जो समय काटकर चले गए। एक न्यायाधीश ने निर्णय लिखने में महीनों देरी होने पर पूछने पर कहा था कि उन्हें निर्णय लिखने की तनख्वाह नहीं मिलती।

संघीय लोकतंत्र में किसी अंग की शक्तियों की वरिष्ठता नहीं, सभी अंगों के बीच शक्तियों का पृथक्करण (सेपेरेशन ऑफ पावर) होता है। यही अमेरिका में भी है। वहां सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति यानी प्रमुख कार्यपाल अपने अधिकार से करता है। उसकी पुष्टि विधायिका करती है। न्यायाधीश खुद अपने को नियुक्त नहीं करते। वहां तो सरकार का कोई अंग अपने को नियुक्त नहीं करता। विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका, तीनों की नियुक्तियां दूसरे करते हैं, लेकिन नियुक्त हो जाने के बाद उसके काम में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। यह सरकार के तीनों अंगों की स्वतंत्रता के साथ-साथ निगरानी और संतुलन यानी चेक एंड बैलेंस की व्यवस्था है, जो शक्तियों के पृथक्करण का सहयोगी सिद्धांत है।

भारत में जो हो रहा है, वह विधायिका का पतन और न्यायपालिका में आई विकृति ही है। न्यायाधीशों ने खुद अपने को नियुक्त, अनुशंसित और तो और रिटायरमेंट के बाद फिर तरह-तरह के आयोगों, अधिकरणों में पुनर्नियुक्त होने-करने की ताकत झटक ली है। इसका भारत के संविधान या सामान्य न्याय-विवेक से कोई लेना-देना नहीं है। यह एक तरह से खालिस मनमानी ही है।

हैरत यह है कि इतनी ताकत जुटा लेने के बावजूद न्यायपालिका ने अपने में व्याप्त भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, विलंब, सुनवाई मामलों के चयन में पक्षपात आदि दूर करने का कोई उपाय नहीं किया। 1989 में ही सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायधीश सव्यसाची मुखर्जी में न्यायपालिका में भारी भ्रष्टाचार को चिंताजनक बताया था। मामलों की प्राथमिकता तय करने के पैमाने भी समझ में नहीं आते। सुप्रीम कोर्ट में किसी केस को आठ-आठ साल तक छुआ नहीं जाता, जबकि किसी आतंकी पर बार-बार पुनर्विचार, किसी बड़ी कंपनी, नेता या राजनीतिक विवाद पर त्वरित सुनवाई अथवा क्रिकेट, मोटर-प्रदूषण, परीक्षा, सड़क सफाई आदि पता नहीं कितने तरह के रोजमर्रा के विषयों में नगरपालिका अधिकारी जैसे काम करते देखा गया है। इससे संविधान व कानून की देखरेख का मुख्य काम और नैतिक मानदंड तक उपेक्षित हुए। तीस्ता सीतलवाड़ की गुजरात संबंधी शिकायतों पर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा उत्साह दिखाया कि दस्तावेजों की प्रामाणिकता संबंधी नियम तक की अनदेखी हो गई!

वस्तुत: शासन के तीनों अंगों की स्वतंत्रता और दक्षता सुनिश्चित करने के लिए सबको अपने कार्य की गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए। अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना और केवल दूसरों के दोष दिखाना अच्छा संदेश नहीं देता। न्यायपालिका को चुस्त, निष्पक्ष रखने के लिए न्यायिक शिक्षा से लेकर नियुक्ति तक, सभी पहलुओं पर गंभीरता से विचार होना चाहिए।सेवानिवृत्तिके बाद शक्ति एवं सुविधा वाले पदों पर न्यायाधीशों की पुन: नियुक्ति का चलन भी खत्म करना जरूरी है। मिनिमम गवर्नमेंट और मैक्सिमम गवर्नेंस की उक्ति साकार करने के लिए कार्यपालिका और न्यायपालिका, दोनों का सहयोग जरूरी है।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

 

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