शुरुआत इसी विरोधाभासी तथ्य से करें कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है! पिछले पंद्रह वर्षों में भारत में प्रति व्यक्ति दूध उपलब्धता बढ़कर लगभग दोगुनी हो गई है। अब यह 322 ग्राम प्रतिदिन है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब भारत में दूध की मांग व आपूर्ति का तंत्र अच्छी तरह विकसित हो चुका है तो हम मिलावटी दूध पीने को मजबूर क्यों हैं? दूध उत्पादक हमारे और हमारे बच्चों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ करते हुए हमें मिलावटी दूध क्यों पिला रहे हैं?
शायद, कुछ हद तक इस सवाल का जवाब इस तथ्य में छिपा हो कि भारत में दूध उत्पादन समान नहीं है। देश के कुल दूध उत्पादन के 60 प्रतिशत में केवल पांच राज्यों (पंजाब, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात और राजस्थान) का योगदान है। उत्पादन की विषमता के कारण वितरण की भी विषमता है। मात्र 20 प्रतिशत दूध की प्रोसेसिंग ही संगठित क्षेत्र द्वारा की जाती है। फिर दूध का उत्पादन बढ़ने के साथ ही दूध की मांग भी बढ़ती जा रही है। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड के अनुसार दूध के रूप में दूध की खपत महज 46 प्रतिशत ही है, शेष का उपयोग घी, मक्खन, पनीर, खोया, मिल्क पावडर आदि बनाने में होता है।
चूंकि देश में बड़े पैमाने पर दूध उत्पादन असंगठित क्षेत्र (छोटे किसान और भूमिहीन मजदूर, जिनके पास चार-पांच गायें होती हैं) द्वारा किया जाता है, लिहाजा दूध की गुणवत्ता का नियमन बहुत कठिन हो जाता है। ग्रामीण सहकारी संस्थाओं के स्तर पर सामान्यत: दूध का परीक्षण उसमें वसा की जांच तक ही सीमित रहता है। इसका सीधा-सा गणित यह है कि दूध में जितना फैट होगा, उतनी ही उससे आमदनी होगी। इसी कारण भैंस के दूध का उपयोग करने को प्राथमिकता दी जाती है। आज देश में वितरित होने वाले दूध में से 56 प्रतिशत भैंस का दूध ही है।
इस मायने में अगर देखा जाए तो देश में दूध उत्पादन एक लो-इनपुट लो-आउटपुट प्रणाली है। हाईब्रिड फसलों के विकास के कारण मवेशियों के लिए चारा कम बचने लगा है और चरनोई की जमीनें भी घटती जा रही हैं। बायो-मास का इस्तेमाल ईंधन वगैरह के लिए भी किया जाने लगा है। ऐसे में चारे की कीमतें बढ़ रही हैं।
ये तमाम परिस्थतियां और मुनाफे के तमाम प्रलोभन हैं, जिनके चलते घरेलू पशुपालक दूध में मिलावट करने की प्रवृत्ति की ओर अग्रसर होते हैं। खाद्य संरक्षा और मानक प्राधिकरण के एक ताजा अध्ययन में यह चौंकाने वाला आंकड़ा पाया गया है कि देश में उपयोग किया जाने वाला 68 प्रतिशत दूध मिलावटी है। ऐसे में उपभोक्ताओं के लिए यह जानना बेहद जरूरी हो गया है कि दूध में किन चीजों की मिलावट की जा रही है और उनका उनके स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता है। साथ ही, क्या यह भी संभव है कि दूध पीने से पहले ही मिलावटी तत्वों का पता लगाया जा सके?
दूध बच्चों के लिए पहली खुराक है। वह उन्हें पर्याप्त पोषण प्रदान करता है। लेकिन अब बताया जा रहा है कि दूध में यूरिया, कॉस्टिक सोडा, हाइड्रोजन परऑक्साइड, फार्मेलिन जैसे रसायन मिलाए जाते हैं। इंडियन काउंसिलऑफ मेडिकल रिसर्च के अनुसार मिलावटी दूध का सेवन करने से फूड प्वॉइजनिंग, उदर रोग, दिल-किडनी-लिवर संबंधी बीमारियां और कैंसर तक हो सकता है। यह ऊतकों को नष्ट कर सकता है और इसके दीर्घकालीन दुष्प्रभाव भीषण हो सकते हैं।
दूध में मिलावट करते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि इससे दूध की मात्रा बढ़े, वह ज्यादा समय तक खराब ना हो और उसमें फैट की मात्रा अच्छी पाई जाए। स्टार्च, वनस्पति, सेलुलोज, जिलेटिन, नमक, शकर, बोरिक एसिड, अमोनियम सल्फेट, पोटेशियम या सोडियम क्लोरेट, हाइपोक्राइट्स, क्लोरेमाइन, ये तमाम चीजें और रसायन इस तरह दूध में मिलाए जाते हैं, मानो यह पीने की नहीं, रासायनिक प्रयोग की कोई चीज हो! सिंथेटिक दूध पीकर बड़ी होने वाली नस्ल का आने वाला कल कैसा होगा, यह सोचकर ही माता-पिताओं को सिहरन हो सकती है।
दूध में मिलावट के लिए जिस एक चीज का सबसे ज्यादा उपयोग किया जाता है, वह है पानी, जो खुद दूषित है। इसके लिए नल के पानी के बजाय पोखर-तालाब के पानी का इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि वह भारी होता है। अब कल्पना करें कि पोखर-तालाब का यह पानी अपने साथ कितनी बुराइयां लेकर आता होगा। एक तरफ तो उसमें साल्मोनेला, कैम्पीलोबेक्टर, लिस्टेरिया जैसे जैविक तत्व होते हैं, वहीं दूसरी तरफ पोखर-तालाब में आकर मिलने वाले विभिन्न् रसायनों के कॉकटेल्स की तो बात ही यहां क्या करें!
दूध में मिलाया जाने वाला एक आम केमिकल है डिटर्जेंट। चूंकि मलाई का मोल ज्यादा होता है, इसलिए कारोबारी उसमें से फैट निकाल लेते हैं और उसमें वनस्पति तेल मिला देते हैं। तेल दूध में आसानी से घुल जाए, यह काम डिटर्जेंट की मदद से संपन्न् होता है। दूध में मिलावट करने के लिए यूरिया बेहद लोकप्रिय है। यह दूध को गाढ़ा बनाता है और सहज रूप से उसमें घुल-मिल जाता है। लेकिन अगर दूध में जरूरत से ज्यादा यूरिया मिला दिया जाए तो इससे उल्टी, दस्त आदि की शिकायत हो सकती है और यह किडनी को नुकसान पहुंचा सकता है। दूध लंबे समय तक खराब ना हो, यह सुनिश्चित करने के लिए फॉर्मेलिन का इस्तेमाल किया जाता है। यह सीधे लिवर और किडनी पर हमला करता है। कॉस्टिक सोडा से हाइपरटेंशन की शिकायत हो जाती है। वर्ष 2008 में चीन में दूध में मेलामाइन की मिलावट से लाखों बच्चे बीमार हो गए थे। हजारों को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा था और उन्हें किडनी स्टोन की तकलीफ हो गई थी। लेकिन दूध में प्रोटीन की मात्रा बढ़ाने के लिए मेलामाइन का उपयोग किया जाता है, जो कि उसमें नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ा देता है। जिस एक केमिकल की तरफ पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता, वह है ऑक्सीटोसिन। दूधारू मवेशियों को इस केमिकल का इंजेक्शन लगाकर उनका दूध उत्पादन बढ़ाया जाता है। बैन होने के बावजूद धड़ल्ले से इसका उपयोग किया जाता है।
ऐसे में मिलावटी दूध की पहचान के लिए क्या किया जाए? कुछ उपाय तो गृहणियां खुद आजमा सकती हैं। मसलन, सिंथेटिक दूध को गरम करने पर उसमें पीलापन आ जाता है। हथेली पर लेकर उसे रगड़ें तो उसमें झाग आ जाता है। या दूध के विकल्पों की तलाश शुरू करदें।सोया और रागी बेहतर विकल्प हो सकते हैं। लेकिन जिस तरह से दूध हमारी दिनचर्या का हिस्सा बन गया है, उसमें तो केवल एक ही विकल्प हमारे सामने शेष रहता है कि हम दूध के उत्पादन, वितरण और प्रसंस्करण के तंत्र को दुरुस्त करें। बच्चों के मूलभूत पोषक पदार्थ दूध में मिलावट को जघन्य अपराध माना जाए और इस पर कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान किया जाए। महाराष्ट्र सरकार तो दूध में मिलावट करने वालों को मृत्युदंड तक देने पर विचार कर रही है। इसे एक गलत कदम नहीं कहा जा सकता।
(लेखिका पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार