भारतीय कंपनियों ने दुनियाभर के टैक्स हैवन यानी भारी कर रियायतें देने वालेे वाले देशों में काफी पैसा छिपा रखा है। 2012-13 से भारतीयों ने 31,000 करोड़ रुपए से ज्यादा सिंगापुर में निवेश किए हैं। नीदरलैंड्स को भी बहुत पसंद किया जाता है। वहां 2013-14 में 11,330 करोड़ लगाए गए। सत्ता में आने के पहले भाजपा के प्रमुख वादों में काले धन को वापस लाने का वादा भी था। इस ओर प्रतिबद्धता दिखाने के लिए वित्तमंत्री को बजट प्रस्ताव में उन टैक्स हैवन देशों की सूची देनी चाहिए, जिनके साथ भारत कर सूचना आदान-प्रदान संधि (टीआईईए) करने जा रहा है। सवाल हो सकता है कि बजट में ऐसा करने की क्या जरूरत है, लेकिन इसका बहुत फायदा होगा। विभिन्न देशों ने ऐसे करीब एक हजार समझौते किए हैं, लेकिन बहुत कम में भारत शामिल है। ऐसी सूची सामने आने से संधियों को लेकर सरकार के परफॉर्मेंस की समीक्षा की जा सकेगी। काला धन वापस लाने के इसके प्रयासों का भी जायजा लिया जा सकेगा।
कंपनियों द्वारा बड़े पैमाने पर कर योग्य राशि छिपाने और इस विषय पर इतनी चर्चा के बाद भी ताज्जुब है कि टैक्स हैवन स्थित सहयोगी कंपनियों का इस्तेमाल करने वाली कंपनियों व उसके पीछे छिपे इरादे के बारे में ज्यादा कुछ मालूम नहीं है। इकोनॉमिक रिसर्च ने 52 देशों की 13,639 सूचीबद्ध कंपनियों और उनकी 1,64,000 घरेलू और विदेश सहयोगी कंपनियों के अपूर्व डेटा सेट से सबूत लेकर इस खामी को भर दिया है। टीआईईए द्विपक्षीय संधि होती है, जिसमें व्यक्ति या कंपनी के आपराधिक टैक्स मामलों से संबंधित सूचनाओं के आदान-प्रदान की बात होती है।
इस संधि से दोनों देशों के कर-नियमों में बदलाव नहीं होता। बहुराष्ट्रीय कंपनियां प्राय: टैक्स हैवन में स्थित सहयोगी कंपनियों का इस्तेमाल भारत में आय कम दिखाने व मुनाफे को शून्य या न्यूनतम कर दर पर अन्य देशों को भेज देती हैं। किंतु टैक्स हैवन वाला देश सूचना देने को राजी न हो तो सरकार के लिए इसका भांडाफोड़ करना कठिन होता है। टैक्स हैवन में इनकी सहयोगी कंपनियां नाम की ही होती हैं, लेकिन भारत में उनकी मूल कंपनी पेटेंट, लाइसेंस, ब्रैंड आदि जैसे असेट हस्तांतरित कर करों में काफी राहत ले लेती हैं, क्योंकि यदि ऊंची टैक्स दर वाले देश में सहयोगी कंपनी होगी तो उन असेट के उपयोग पर ज्यादा टैक्स लगेगा, जबकि टैक्स हेैवन में न के बराबर टैक्स लगेगा।
कर चोरी के अलावा शेयरधारकों की नज़र से बचने के लिए भी ऐसा किया जाता है। याद करें कि एनरॉन के सीएफओ एंड्रयू फैस्टो ने विदेश में 892 सहयोगी कंपनियां खोल ली थीं। 692 तो कैमैन आइलैंड्स में ही थीं। इससे उसे कर बचाने में बहुत मदद मिली। बाद में तो यह भी पता चला की फैस्टों व उनके मित्र एनरॉन के बाहर की कंपनियों के संसाधन भी हस्तांतरित करते थे।
टैक्स हैवन अपने ढंग से बहुत बंद व्यवस्था होती है। ऐसे में शेयरधारकों के लिए यह पता लगाना मुश्किल होता है कि फर्म के संसाधनों का कैसा इस्तेमाल हो रहा है। मैनेजरों की रुचि विदेश में नकदी इकट्ठी करभविष्य की ऐसी गतिविधियों के लिए पैसा इकट्ठा करना भी हो सकता है, जिन्हें शेयरधारक कंपनी की मर्यादा से बाहर का समझते हों। अधिग्रहणों में पैसा कम पड़ने पर इस पैसे का उपयोग होता है। तीसरे पक्ष के जरिये भी संसाधन बाहर भेेजे जाते हैं, ये प्राय: नॉन ट्रांसपैरेंट और नॉन कंट्रोलिंग ओनर होते हैं। टीआईईए से यह सब गोरखधंधा जांच के दौरान काफी-कुछ पारदर्शी हो जाता है और विदेश में नकदी छिपाना मुश्किल हो जाता है। अर्थव्यवस्था पर काले धन के असर को घटाने की दिशा में हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि एक टैक्स हैवन से संधि करने पर ये कंपनियां किसी दूसरे टैक्स हैवन में चली जाती हैं, इसलिए सभी प्रमुख टैक्स हैवन देशों से संधियां जरूरी हैं।
कृष्णमूर्ति सुब्रमनियन
एसो. प्रोफेसर, इंडियन स्कूल ऑफ बिज़नेस तथा बोर्ड सदस्य, बंधन बैंक अौर एनआईबीएम