शिक्षा, स्वच्छता और सशक्तीकरण- मणिशंकर अय्यर

प्रसिद्ध वकील इंदिरा जयसिंह ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके उस फैसले पर पुनर्विचार करने अपील की है, जिसमें पंचायत चुनावों में उम्मीदवारों की न्यूनतम योग्यता तय करने के हरियाणा सरकार के फैसले को सही ठहराया गया है। हमारे लोकतंत्र का आधार वयस्क मताधिकार है। इसमें हर किसी के पास एक वोट देने का अधिकार है।

किसी के पास एक से ज्यादा वोट देने का अधिकार नहीं है। इस अधिकार का दूसरा पहलू यह है कि हर किसी के पास किसी भी चुनाव में खड़़े होने का अधिकार है। इसका अपवाद सिर्फ वही लोग हैं, जिसके लिए जन-प्रतिनिधित्व कानून 1951 में पाबंदी लगाई गई है। यह कानून खासकर उन लोगों को चुनाव लड़ने से रोकता है, जो किसी आपराधिक मामले में दोषी पाए गए हों। यह एक विधायक, सांसद,मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, यहां तक कि राष्ट्रपति बनने के लिए भी न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता की बात नहीं करता। इसलिए हरियाणा का यह कानून उन दो-तिहाई लोगों के लिए बहुत खराब है, जो पहले तो पंचायत चुनाव जीत चुके हैं, लेकिन इस बार न्यूनतम योग्यता तय हो जाने की वजह से उसमें भाग नहीं ले सके।

इस न्यूनतम योग्यता में सबसे प्रमुख है- शैक्षणिक योग्यता। संविधान के दिशा-निर्देशक सिद्धांत कहते हैं कि राज्य को प्राथमिक शिक्षा सभी को देनी चाहिए। चाहे हरियाणा हो या बाकी देश, राज्य-सत्ता 70 साल में भी इसे पूरा करने में नाकाम रही है। अब इसकी सजा बजाय राज्य को मिलने के, अगर उसके नागरिकों को मिले, तो यह नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है। बरसों-बरस पूर्ण स्वच्छता अभियान और हाल ही में चले स्वच्छ भारत अभियान के बावजूद राज्य यह सुनिश्चित करने में भी नाकाम रहा है कि हर घर में शौचालय हो। एक बार फिर यह भी सरकार की ही नाकामी है, मगर हरियाणा सरकार ने इसकी सजा भी उन लोगों को दी, जो सारी परेशानियां झेलते हैं और घर में शौचालय की शर्त को पूरा करने के लिए उन्हें कोई प्रोत्साहन भी नहीं मिलता।

हरियाणा में पंचायत चुनाव लड़ने की एक शर्त यह भी है कि उम्मीदवार के घर में शौचालय होना चाहिए, हालांकि इसका न तो लोकतांत्रिक मूल्यों से कुछ लेना-देना है और न ही चुनाव लड़ने के अधिकार से।

और फिर राज्य सरकार ने हाल में सामने आई उन सारी जानकारियों पर भी ध्यान नहीं दिया कि मूल समस्या यह नहीं है कि घर में शौचालय का ढांचा खड़ा हो जाए, समस्या लोगों को ऐसे शौचालय के इस्तेमाल के लिए प्रेरित करने की है।
इस फैसले में उसी तरह की संवेदनहीनता है, जिसके चलते हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्र रोहित वेमुला को आत्महत्या करनी पड़ी थी। शिक्षा और सफाई के राष्ट्रीय अभियान की परिधि से जो लोग बाहर रह जाते हैं, वे आमतौर पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सभी जातियों की महिलाओं जैसे वंचित तबके होते हैं। इसलिए जब हम कहते हैं ‘अन्य पिछड़ी जातियां’, तो इसका अर्थ ही होता है कि वे जो सामाजिक व शैक्षणिक तौर पर पिछडे़ हुए हैं।

सच्चर कमिटी की रिपोर्ट ने इस बात में संदेह की कोई गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है कि पूरा मुस्लिम समुदाय ही शैक्षणिक रूप से काफीपीछे है। अब राजस्थान सरकार ने न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय करके एक ही झटके में इस समुदाय को पीछे करने की कोशिश की है। पिछली बार पंचायत चुनाव जीतने वाले 67 फीसदी लोग इस बार वहां चुनाव ही नहीं लड़ सकेंगे। वे अशिक्षित हैं, इसके बारे में मतदाताओं को उस समय भी पता था, जब उन्होंने वोट दिए थे। मतदाताओं ने उन्हें फिर भी वोट दिए, क्योंकि वे उन्हें बाकी उम्मीदवारों से बेहतर मानते थे। उन लोगों से भी बेहतर, जिनकी शैक्षणिक योग्यता ज्यादा थी। लोगों ने उन्हेें चुना, जो उनकी नजर में गांव के कल्याण के लिए सबसे ज्यादा समर्पित थे। कई मामलों में लोगों ने ज्यादा शिक्षित, ऊंची जाति और ऊंची हैसियत के लोगों को वोट देना ठीक नहीं समझा, क्योंकि वे मानते थे कि अगर ये लोग चुन लिए गए, तो वे पंचायत पर कब्जा कर लेंगे। हरियाणा सरकार ने अपने फैसले से जाति और समुदाय के आधार को पूरी राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और प्रशासनिक सत्ता सौंप दी है।

यह कई अध्ययनों से पता चला है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की महिलाएं भले उच्च जातियों की महिलाओं के मुकाबले कम पढ़ी-लिखी हों, लेकिन पंचायती राज के कारण मिले आर्थिक और प्रशासनिक सशक्तीकरण का राजनीतिक-सामाजिक फायदा सबसे ज्यादा उन्हीं ने उठाया है। इसमें कोई हैरत की बात नहीं है, क्योंकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की गरीब महिलाएं जब सार्वजनिक पदों पर सक्रिय होती हैं, तो वे प्रभावी पुरुष वर्ग से ज्यादा अच्छी तरह से निपटती हैं, बनिस्बत ऊंची जातियों या उच्च वर्ग की ग्रामीण महिलाओं के, जिनका अक्सर अपमान कर दिया जाता है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण कर्नाटक है, जहां अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षित सीटों में महिलाओं का कोटा 33 फीसदी है, लेकिन उन्हें 54 से 65 फीसदी (कोटे से लगभग दोगुनी) सीटों पर जीत हासिल हुई है। लेकिन कर्नाटक में पंचायत चुनाव जीतने वाली ये महिलाएं अगर हरियाणा प्रदेश में होतीं, तो वहां पर उनमें से ज्यादातर को चुनाव लड़ने की इजाजत ही नहीं मिल पाती।

पंचायती राज का सबसे बड़ा लाभ यह मिला है कि इसने लैंगिक भेदभाव को परास्त किया है। हमारे करीब 2,50,000 स्थानीय निकायों में14 लाख महिला जन-प्रतिनिधि हैं। यह संख्या बाकी दुनिया के सभी महिला जन-प्रतिनिधियों की कुलजमा संख्या से कहीं ज्यादा है। इनमें से 86,000 ऐसी हैं, जिन्होंने अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के रूप में प्रशासन के तीनों स्तरों (जिला, ब्लॉक और पंचायत) पर पूरी बागडोर संभाली है। लैंगिक सशक्तीकरण की यह बहुत बड़ी उपलब्धि है। दुनिया के इतिहास में इसका ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं है।

हरियाणा में बहुत बड़ी संख्या में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की सीटें ऐसी हैं, जिन पर किसी उम्मीदवार ने चुनाव ही नहीं लड़ा। यह संख्या बताती है कि वहां महिलाओं से उस समय कितना भेदभाव हो रहा है, जब उनकी हिस्सेदारी बढ़ रही है। इस समय देश के 14 राज्य नीतीश कुमार के उस उदाहरण का अनुसरण करने जा रहे हैं, जिसमें उन्होंने स्थानीय निकायों में महिलाओं का आरक्षण बढ़ाकर 50 फीसदी कर दिया है।

हरियाणा में जो हुआ क्या वह न्याय है? क्या वह सही है? इंदिरा जयसिंह की पुनर्विचारयाचिकाको सुप्रीम कोर्ट का समर्थन मिलना ही चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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