हालांकि दिल्ली विधानसभा चुनाव समाप्त होते ही प्याज के दाम कम होने शुरू हो गए और अब शहरों के फुटकर बाजार में दस-पंद्रह रुपए किलो की दर से प्याज बिक रही है। इसी प्रकार बिहार विधानसभा चुनावों से पहले अरहर दाल के दाम बढ़ने शुरू हुए थे, जो दो सौ रुपए किलो तक पहुंच गए थे। इसने बिहार विधानसभा चुनाव को बहुत प्रभावित किया। हालांकि चुनाव के बाद अरहर दाल के दाम भी घट कर एक सौ तीस-चालीस रुपए किलो तक पहुंच गए। अरहर की कीमत वृद्धि के समय भी भारत सरकार ने तर्क दिया था कि अरहर का उत्पादन कम हुआ है। इसके दाम कम करने के लिए अरहर का आयात किया गया।
बताया जाता है कि दिल्ली के एक ही आयात-निर्यात करने वाले व्यापारी को, जिसका संबंध सरकारी पार्टी के साथ था, अरहर की दाल आयात करने का अधिकार दिया गया और उसने कई लाख टन अरहर की दाल आयात की या आयात करना बताया। अब अचानक बाजार में लहसुन के दाम बढ़ कर चार सौ रुपए किलो तक पहुंच गए हैं। हालांकि इस समय कोई चुनाव नहीं है, मीडिया, सोशल मीडिया पर लहसुन की चर्चा उस तरह नहीं हो पा रही, जिस तरह प्याज और अरहर को लेकर हुई थी। इन दामों के उतार-चढ़ाव की वजह क्या है, इसके पीछे कौन-सी शक्तियां हैं और उनके क्या उद्देश्य हो सकते हैं? जब किसान की फसल आती है तो यही प्याज दो रुपए किलो के भाव से या कभी-कभी इससे कम में भी बिक जाती है। जिसे खरीद कर लखपति बिचौलिए अपने गोदाम में भर लेते हैं।
इसी प्रकार पिछले साल अरहर पैदा करने वाले किसानों को चौवालीस रुपए किलो यानी चौवालीस सौ रुपए क्विंटल की दर से दाम मिले थे, जो दाल बाद में बाजार में बीस हजार रुपए प्रति क्विंटल बिकी। जब लहसुन की फसल आती है तो वह एक-दो रुपए के भाव से बिक जाता है और अब वही लहसुन चार सौ रुपए के भाव से बिक रहा है! दरअसल, यह बाजार की लूट है। बाजार को सरकारों ने लूट की खुली छूट दी। चूंकि किसानों की फसल के दाम सरकार तय करती है और कभी-कभी बाजार और व्यापारी तय करते हैं। कुल मिलाकर बाजार पर सरकार या बिचौलियों का नियंत्रण है और नियंत्रण का पूरा लाभ बिचौलिए उठाते हैं। जो किसान फसलपैदा करता है उसे लागत मूल्य ही नहीं मिल पाता और वह भूखा और कर्जदार बना रहता है।
कई बार कर्ज के दबाव में आत्महत्या करने को लाचार होता है। मगर बिचौलिए, जिनके पास थोक खरीद करने, बेचने, भंडारण और यातायात की पूंजी और आर्थिक क्षमता है वे बगैर किसी परिश्रम के चंद वर्षों में अरबपति बन जाते हैं। कृषि उपज या खाद्यान्न की महंगाई का सीधा संबध उपभोक्ता से होता है, वही खाद्यान्न की महंगाई से प्रभावित होता है और मीडिया उसके महंगाई के घाव को कुरेद-कुरेद कर दर्द का अहसास कराता है, इसलिए राजनीतिक निर्णय में इस दाम वृद्धि का सीधा असर होता है। प्याज और दाल के दाम सरकार बदलने के हथियार बन जाते हैं। पिछले पैंतीस वर्षों यानी लगभग 1998 से प्याज के दाम खासकर मध्यवर्ग और गरीब वर्ग के मतदाताओं को प्रभावित करते हैं, हालांकि यह मतदाता कभी इस महंगाई के कारणों की खोज करने का प्रयास नहीं करता। नकारात्मक राजनीति केवल आलोचना को कार्यक्रम बना देती है। जिस सरकार के कार्यकाल में खाद्यान्न के दाम बढ़ते हैं, लोग उसके खिलाफ हो जाते हैं और मीडिया में दिखने वाली विरोधी ताकत और पार्टी के साथ हो जाते हैं। जब विरोधी पार्टी खुद सरकार में आ जाती है तब वह भी इसी दाम वृद्धि के ढर्रे पर चलने लगती है और फिर वही मतदाता उससे नाराज होकर पुरानी पार्टी को, जिसे उसने महंगाई के कारण हटाया था, वापस ले आता है।
यह चक्र चलता रहता है। अब इसके असली कारणों और उसके हल पर विचार किया जाए। लोहिया का कहना था कि दो फसलोें के बीच उतार-चढ़ाव छह प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। यानी अगर फसल आने पर किसानों को उत्पादन के एवज में सौ रुपए दाम मिले हैं, तो किसी भी सूरत में बाजार में उसके दाम एक सौ छह रुपए से अधिक न हो। अगर यह सिद्धांत लागू किया गया होता तो चौवालीस रुपए किलो की अरहर दाल, जिसे किसानों ने बेचा था, बाजार में उसकी कीमत सैंतालीस रुपए से अधिक नहीं हो सकती थी। प्याज तीन रुपए और लहसुन लगभग तीन रुपए के भाव से अधिक का नहीं बिक सकता था। पर यह नीति लागू करने को जब लोहिया ने दो फसलों के बीच उतार-चढ़ाव की सीमा बांधी थी तब उत्पादन भी कम था और यातायात के साधन भी कम थे। अब उत्पादक ज्यादा हैं और यातायात के साधन भी ज्यादा हैं। अगर इस सिद्धांत को लागू किया जाए तो बिचौलिए अरबपति नहीं बनेंगे। वे राजनीतिक दलों या नेताओं को खरीदने के लिए चंदा देने में समर्थ नहीं होंगे और लाचारी में अपने भंडारण में खाद्यान्न फसलों को दबा कर दाम बढ़ाने का खेल भी नहीं खेल सकेंगे।
यह राजनीति और सरकारों पर बिचौलियों का नियंत्रण ही है कि भारत सरकार इन बिचौलियों के आगे नतमस्तक है। लगभग एक माह तक बाजार में उपभोक्ता के लुटने के बाद भारत सरकार ने दाल के दामों के नियंत्रण के लिए दो उपाय किए: एक, उन्होंने राज्य सरकारों से कहा कि वे जमाखोरों पर छापा डालें, पर केवल महाराष्ट्रमेंमुंबई को छोड़ कर कहीं भी छापा मारने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई गई, क्योंकि जिन गोदामों में जमाखोरी का माल जमा होता है, उन्हीं के काले धन से सरकारें पैदा होती हैं। दिल्ली, जहां सबसे ज्यादा दाल का भंडारण था और जहां की सरकार ईमानदारी का सबसे ज्यादा ढोल पीटती है, वहां एक भी छापा नहीं पड़ा, जबकि जानकारों का कहना है कि अगर केवल दिल्ली के गोदामों पर दबिश डाली जाती तो लाखों टन दाल निकलती और आयात की आवश्यकता ही नहीं पड़ती।
पर यह विचारणीय है कि क्या भारत सरकार के पास देश में कुल उत्पादन और कुल संबंधित खपत के आंकड़े नहीं होते? पिछले वर्ष जब फसल आई थी तब दाल का कुल उत्पादन कितना था और कितनी दाल की आवश्यकता होगी? क्या वास्तव में कोई कमी है? क्या मात्र इन तीन आकड़ों को, जिन्हें देखने में किसी भी मंत्री को पांच मिनट का समय लगता, पूरे साल सरकार नहीं देख पाई? अगर उत्पादन या उपलब्धता और संभावित खपत में अंतर था तो सरकार तभी आयात करने का निर्णय कर सकती थी, ताकि बाजार में दाम न बढ़ पाते। जो निर्णय एक माह तक बाजार के लूटने और जनता के लुटने के बाद लिया गया, अगर तभी ले लिया जाता तो न जनता लुटती न बिचैलियों की तिजोरियां भरतीं। आयात के पहले जो दाल साठ-सत्तर रुपए किलो से बढ़ कर दो सौ रुपए किलो के भाव पहुंची वह गोदामो में भरी हुई थी।
पिछले वर्ष के उत्पादन वाली दाल, यानी जिसका दाम चौवालीस रुपए किलो की दर से किसानों को मिला था। सत्ताधारी दल के कुछ बड़े नेता, एकाध मंत्री और सांसदों ने यह अज्ञानतापूर्ण बयान भी दिया कि कृषि उपज के दाम बढ़ने का विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे किसानों की आमदनी बढ़ती है। अब कौन समझाए कि यह दाम वृद्धि का पैसा किसानों को नहीं मिला, बल्कि बिचौलियों की जेब में गया है। इसलिए अगर सचमुच खाद्यान्न की कीमत में वृद्धि को नियंत्रित करना और किसानों की माली हालात सुधारना है, यानी किसान की आय बढ़े और बाजार की लूट घटे, तो उसका एक ही उपाय हैदाम बांधिए और दो फसलों के बीच के उतार-चढ़ाव की सीमा रेखा खींचिए। फसल आई तो नीचे उतरो, फसल जाए तो ऊपर जाओ, यह नहीं चलेगा।