दिल्ली और उसके आसपास का इलाका इन दिनों प्रदूषण की अभूतपूर्व मार से ग्रस्त है। जिधर नजर डालिए, उधर धुंध की मटमैली चादर तले खांसते, कांपते और कांखते लोग मिल जाएंगे।
अपना एक निजी अनुभव आपसे शेयर करता हूं।
दीपावली को दोपहर के बाद से मैं जब भी अपने घर का दरवाजा खोलता, तो बेचैन हो उठता। सामने वाले फ्लैट में एक प्यारा शिशु रहता है। अभी उसे अपना पहला जन्मदिन मनाना है। वह खांस-खांसकर बेहाल हुआ जा रहा था। वजह? दिल्ली के सनातन प्रदूषण ने दिवाली की आतिशबाजी से साझेदारी कर ली थी और समूचे एनसीआर के आसमान को गहरे काले धुएं ने ढकना शुरू कर दिया था। उसके नन्हे फेफड़ों को ऑक्सीजन की आवश्यकता थी। प्रदूषित हवा उसे बीमार कर रही थी।
पूजा का समय शाम ढलते ही था। जब हाथ में थाली लेकर आरती-वंदन के लिए उठा, तो लगा गला बैठा जा रहा है। स्वर बुलंदी से फूट नहीं रहे थे। पत्नी ने भी खांसना शुरू कर दिया था। यह पहला मौका था, जब प्रदूषण हमारे पवित्र भावों पर इस कदर आघात कर रहा था। उस क्षण तक हम नहीं जानते थे कि यह तो शुरुआत भर है। 10 बजते-बजते पटाखों के शोर और विषैली गैस ने समूचे वातावरण को अपने कब्जे में ले लिया। कई जगह ध्वनि अथवा वायु प्रदूषण खतरे की सीमा से 20 गुना तक बढ़ गया था।
यह सब तब हुआ, जब मीडिया, सरकार और तमाम सिनेमाई सितारे महीनों से पटाखे न फोड़ने की अपील कर रहे थे।
यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की गई थी। उसमें न्यायपालिका से अपेक्षा की गई थी कि वह पटाखों पर रोक लगाए। न्यायपालिका ने तर्क और युक्ति के आधार पर ऐसा नहीं किया। ऐसी बंदिश परंपराओं पर आघात मानी जाती। इस पर प्रतिक्रिया हो सकती थी। अंतिम अदालत का फैसला सिर-माथे, पर मन को एक सवाल मथ रहा है। दिवाली से अब तक जिन नवजात शिशुओं से लेकर बुजुर्गों तक का दम घुट रहा है, उनकी सुधि कौन लेगा?
परंपराएं उल्लास जगाएं, तो अच्छा। परंपराएं मर्यादा की रक्षा करें, तो बहुत अच्छा। परंपराएं हमें इंसानियत की सीख दें, तो सबसे अच्छा। मगर परंपरा के नाम पर समूचे समाज की सेहत से खिलवाड़! मामला समझ से परे है।
इस समय तो दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) का हाल और बेहाल है। दीपावली से शुरू हुआ प्रदूषण का आतंक चरम पर है। पिछले दिनों खबर आई कि दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर है। यह है जन्नत की हकीकत! जहां देश के सबसे ताकतवर हुक्मरां बैठते हैं, वहां का यह हाल!
ऐसा नहीं है कि सत्तानायक कोशिश नहीं कर रहे, पर उन्हें मन-मुताबिक समर्थन भी मिलना चाहिए।
दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जब सम-विषम संख्या के आधार पर गाडि़यों के आवागमन पर प्रतिबंध की घोषणा की, तो प्याली में तूफान उठ खड़ा हुआ। किसी ने कहा कि गाडि़यां ठहर जाएंगी, तो यातायात के साधन चरमरा जाएंगे। मेट्रो और डीटीसी की कमर तो पहले से दोहरा रही है, अब क्या होगा?बेतुके सवालों और निरर्थक कयासों ने सोशल मीडिया के अदृश्य महारथियों को मौका दे दिया। उन्होंने अपने दिमाग का कूड़ा-करकट लोगों पर थोपना शुरू कर दिया। वह तो अरविंद की इमेज अच्छी है, नहीं तो लोग इस फैसले में भी लाभ-हानि का गणित बैठाने लगते। कोई कहता कि ऐसा टैक्सी ऑपरेटर्स के लाभ के लिए किया गया है, तो कोई इसे बस लॉबी की करतूत बता देता। बाद में अरविंद गृह मंत्री राजनाथ सिंह से भी मिले। दिल्ली एक शहरी राज्य है। यहां की पुलिस सीधे गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है। इस फैसले के क्रियान्वयन के लिए सरकार और पुलिस में तालमेल जरूरी है। गृह मंत्री ने भी केजरीवाल के समर्थन की ताकीद कर दी। अब पहली जनवरी से इसे अमल में लाया जाना है।
यहां न्यायपालिका की भी प्रशंसा करनी पड़ेगी। देश के नवनियुक्त प्रधान न्यायाधीश ने सबसे पहले इस फैसले का साथ दिया। बाद में इस मुद्दे पर दायर ‘जनहित याचिका’ को खारिज कर हाईकोर्ट ने बिना कहे अपनी मंशा साफ कर दी।
उम्मीद कीजिए। दिल्ली में यह प्रयोग सफल हो और हम समूचे देश में समझदारी भरे उपाय लागू करने में कामयाब हो सकें।
एक बार फिर दिवाली की ओर लौटते हैं। कैकेयी के षड्यंत्र के बाद जब राम अयोध्या से 14 साल के लिए बेदखल हुए, तब उन्होंने वन प्रांतर की शरण ली। जंगल प्रकृति का प्रतीक है और प्रकृति बेहतरीन पर्यावरण की निशानी। राम, लक्ष्मण और सीता को अगले 14 बरस यहीं बिताने थे। उनके इस नेक विचार में जब रावण ने खलल डाला, तो उसे उसके किए की सजा देने के लिए राम न तो अयोध्या लौटे और न किसी राजा-महाराजा से याचना की।
उन्होंने रघुवंश की रवायतों को नई पहचान दी। वह वन के हवाले थे और उन्होंने जंगल के बेटों को ही अपने साथ लिया। ये वे लोग थे, जो सदियों से उपेक्षित थे। इतिहास साक्षी है। साम्राज्यों के निर्माण की शुरुआत अक्सर छोटी जगहों पर कुछ मुट्ठी भर लोगों के सद्प्रयासों से शुरू हो महानगरों में आकर समूचा आकार हासिल करती हैं। हालांकि, साम्राज्यों की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि एक बार महानगरीय बनने के बाद वे जंगल और जमीन से जुड़े लोगों को बिसरा देते हैं। आज तक हमारे हुक्मरां इस आत्मघाती परंपरा से चिपके बैठे हैं। ऐसा नहीं होता, तो यमुना की गोद में बसे दिल्ली का हाल बेहाल न होता।
राम और लक्ष्मण ने इसे चुनौती दी।
उन्होंने संसार के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य से भिड़ने के लिए ऐसे लोगों की फौज तैयार की, जिनमें आदिवासी थे, पिछड़े थे और भूले-बिसरे लोग थे। राम जानते थे, अपनी जमीन से जुड़े लोग कभी स्वाभिमान और ईमान का सौदा नहीं करते। यदि इनकी निष्ठा एक बार साथ हो गई, तो भला रावण को पराजित होने से कौन रोक सकता है? रावण कैसे हारा, फिर क्या हुआ, इस कथा को हम-आप सैकड़ों बार सुन चुके हैं। इसे याद दिलाने का एक ही मकसद था कि यदि मर्यादा पुरुषोत्तम आज एक बार फिर प्रकट हों, तो यकीनन वह उन लोगों को प्रकृति का नुकसान करनेसेमना करेंगे, जो अनजाने में ऐसा कर रहे हैं। उन्होंने खुद प्रकृति की शरण ली थी और प्रकृति-पुत्रों को साथ लेकर लड़ाई लड़ी थी। सीता-हरण के बाद उन्होंने वृक्षों-लताओं से भी उनका पता पूछा था। वह भला कैसे पर्यावरण को नुकसान पहंुचाने वाले पटाखों से पुलकित हो सकते हैं?
वही परंपराएं जिंदा रहती हैं, जो कल्याणकारी होती हैं। समय आ गया है कि हम त्योहारों और रोजमर्रा के रहन-सहन को नए नजरिये से देखें। हमारे इतिहास में ही हमारी सफलताओं और असफलताओं के सूत्र छिपे हुए हैं। यह हमें तय करना है कि हम इन दोनों में से किसका वरण करते हैं?
इस वर्ष की दिवाली तो बीत गई, अगली की सोचिए। कहीं ऐसा न हो कि अपने बनाए गैस चेंबर में हमारा दम घुटकर रह जाए!