आबादी का दबाव बढ़ा रहा है रेगिस्तान– पंकज चतुर्वेदी

एक तरफ परिवेश में कार्बन की मात्रा बढ़ रही है, तो दूसरी ओर ओजोन परत में हुए छेद का विस्तार हो रहा है। इससे उपजे पर्यावरणीय संकट का कुप्रभाव कई तरह से सामने आ रहा है।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूनेप की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया भर के करीब 100 देशों में उपजाऊ या हरियाली वाली जमीन रेत से ढक रही है और इसका असर लगभग एक अरब लेागों पर पड़ रहा है। यह खतरा पहले से मौजूद रेगिस्तान वाले इलाकों से इतर है। इसकी चपेट में आए इलाकों में लगभग आधे अफ्रीका के व एक-तिहाई एशियाई देश हैं। यहां बढ़ती आबादी के खाद्यान्न, आवास, विकास आदि के लिए बेतहाशा जंगल उजाड़े गए ।

बेहद धीमी गति से विस्तार पा रहे इस रेगिस्तान का सबसे ज्यादा असर एशिया में ही है। इसरो का एक अध्ययन बताता है कि थार रेगिस्तान अब राजस्थान से बाहर निकलकर कई राज्यों में अपनी जड़ें जमा रहा है। हमारे 32 प्रतिशत भूभाग की उर्वर क्षमता कम हो रही है, जिसमें से 24 फीसदी ही थार के ईद-गिर्द के इलाके हैं। सन 1996 में थार का क्षेत्रफल एक लाख, 96 हजार,150 वर्ग किलोमीटर था, जो कि आज दो लाख, आठ हजार, 110 वर्ग किलोमीटर हो गया है।

भारत की कुल 32 करोड़, 87 लाख वर्ग किलोमीटर जमीन में से 10 करोड़, 51 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि पर बंजर ने डेरा जमा लिया है, जबकि आठ करोड़, 21 लाख वर्ग किलोमीटर भूमि रेगिस्तान में बदल रही है। यह चिंताजनक है कि देश के एक-चौथाई हिस्से के आगे अगलेे सौ वर्ष में मरुस्थल बनने का खतरा पैदा हो गया है।

हम वैश्विक प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के शिकार तो हो ही रहे हैं, जमीन की अधिक जुताई, जंगलों के विनाश और सिंचाई की दोषपूर्ण परियोजनाओं ने इस संकट को और बढ़ा दिया है। बेशक, इन कारकों का मूल कारण बढ़ती आबादी है। देश आबादी नियंत्रण में तो सफल हो रहा है, लेकिन मौजूदा आबादी का ही पेट भरने के लिए हमारे खेत और मवेशी कम पड़ रहे हैं।

ऐसे में, एक बार फिर मोटे अनाज को अपने आहार में शामिल करने, ज्यादा पानी की खपत वाली फसलों को अपने भोजन से कम करने जैसे प्रयास जरूरी हैं। सिंचाई के लिए भी स्थानीय तालाबों, कुओं पर निर्भर रहने की अपनी जड़ों की ओर लौटना होगा। साथ ही रासायनिक खाद व दवाओं का इस्तेमाल कम करना रेगिस्तान के बढ़ते कदमों पर लगाम लगा सकता है। भोजन व दूध के लिए मवेशी पालन तो बढ़ा, मगर उनके चरने की जगह कम हो गई।

ऐसे में, मवेशी अब बहुत छोटी-छोटी घास को भी चर जाते हैं और इससे जमीन बिलकुल नंगी हो जाती है। तेज हवाओं और पानी से जमीन खुद की रक्षा नहीं कर पाती। मिट्टी कमजोर पड़ जाती है और सूखे की स्थिति में मरुस्थलीकरण का शिकार बन जाती है। मरुस्थलों के विस्तार के साथ कई वनस्पतियों और पशु प्रजातियों की भी विलुप्ति हो सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *