भारत उन 163 देशों की सूची में सबसे ऊपर है, जिनके बाशिंदे हर साल सबसे अधिक बाढ़ की मुसीबतें झेलते हैं। हाल के दिनों में चेन्नई, श्रीनगर, मुंबई जैसे शहरों में सैलाब से तबाही का जो मंजर हमने देखा, उसके लिए बहुत हद तक दोषी हमारा गैर-जिम्मेदाराना रवैया और अनियोजित शहरीकरण है। मिन्ट के डिप्टी मैनेजिंग एडिटर अनिल पद्मनाभन का विश्लेषण
चेन्नई में आई बाढ़ अब उतार पर है। इस त्रासदी से निबटने में इस शहर ने जिस सिफत का परिचय दिया, जिस तरह से सोशल मीडिया ने एक बार फिर बचाव के काम में अहम किरदार निभाया, बल्कि कुछ मामलों में तो जान बचाने में भी उसकी भूमिका रही, इसे देखते हुए उसकी जितनी तारीफ की जाए, वह कम है।
इन तमाम अच्छी बातों के बावजूद इस हकीकत को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि इस त्रासदी से बचा जा सकता था। चेन्नई में आई बाढ़ की असली वजह थी अडयार नदी बेसिन का नए हवाई अड्डे के लिए अतिक्रमण। ठीक उसी तरह, जैसे दूसरे नदी विस्तारों का आवासीय निर्माण के लिए इस्तेमाल कर लिया गया है। नदी के कुदरती रास्तों को अवरुद्ध किए जाने से इसका जल आस-पास के इलाकों में उमड़ गया। जब तक प्रकृति अपना क्रोध नहीं दिखाती, हमारे योजनाकार हर जोखिम को नजरअंदाज करते रहते हैं और उस चीज की तलाश में रहते हैं, जिसे वे ले सकते हैं। हमने इसी तरह का विध्वंसक सैलाब मुंबई में भी देखा। कुछ ही दिनों पहले श्रीनगर में भी ऐसी ही बरबादी देखी।
हर जगह मुख्य वजह मिली- अनियोजित शहरीकरण और बुनियादी नियमों की अनदेखी। फिर भी हर बार त्रासदी की गंभीरता लोगों की यादों में धुंधली पड़ जाती है। चेन्नई की तरह दिल्ली में भी ऐसे सैलाब की संभावना है, क्योंकि यहां के अधिकारियों ने अपनी ‘बुद्धिमानी’ का परिचय देते हुए उस इलाके में एक शानदार कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज बनाने की इजाजत दी, जो बाढ़ का मैदानी क्षेत्र है।
यह रवैया वाकई चिंताजनक है। इसी रवैये ने पिछले ही हफ्ते गुजरी एक अन्य बड़ी घटना को प्रभावित किया यानी भोपाल गैस त्रासदी की 31वीं बरसी। वह भारत की सबसे भयानक औद्योगिक त्रासदी थी, पर उसे इस साल किसी ने याद तक नहीं किया। अफसोस की बात यह है कि इन त्रासदियों से कोई सबक भी नहीं सीखा गया। इस हकीकत को तो छोड़ ही दीजिए कि इनके शिकार लोगों को अब तक वाजिब मुआवजा नहीं मिला और मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के रिसाव के घातक परिणाम से लोग आज भी जूझ रहे हैं।
यह केवल हादसों की बारम्बारता का मसला नहीं, जो खतरनाक रूप से बढ़ती जा रही है, बल्कि देश के जोखिम से भरे होने का भी मुद्दा है। अपनी भौगोलिक स्थितियों और सघन आबादी के कारण हादसों के लिहाज से यह देश बेहद संवेदनशील है। हमारे अधिकारी भी इसे बखूबी जानते हैं। हमारी नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटी (एनडीएमए) अपनी वेबसाइट के जरिये इस जोखिम से हमें आगाह कर रही है। लेकिन क्या हमने उसे गौर से पढ़ा? उस पर विचार किया? आपदा प्रबंधन की इस शीर्ष संस्था के मुताबिक, हमारे देश का करीब 58.6 प्रतिशत भू-भाग कम और अधिक तीव्रता वालेभूकंप के लिहाज से अति संवेदनशील है। इसकी चार करोड़ हेक्टेयर धरती यानी कुल भू-भाग का 12 प्रतिशत हिस्सा बाढ़ और नदी कटाव से प्रभावित है।
इसके 7,516 किलोमीटर तटीय क्षेत्र का करीब 5,700 किलोमीटर इलाका सूनामी और समुद्री तूफान के लिहाज से बेहद संजीदा है। देश की 68% कृषि योग्य जमीन सूखे के लिहाज से संवेदनशील है, जो देश के कई राज्यों, खास कर मध्य व उत्तर भारत में फैली है। पिछले दो साल से इन इलाकों में सूखा पड़ रहा है। इनके पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन और चट्टानों के गिरने का खतरा होता है। जैसे लेह-लद्दाख में साल 2010 में अचानक बाढ़ आ गई थी। एनडीएमए की यह वेबसाइट एक नसीहत भी देती है, ‘भारत में हादसों का खतरा जनसांख्यिकी व सामाजिक-आर्थिक स्थितियों में बदलाव, अनियोजित शहरीकरण, बेहद जोखिम भरे इलाकों में निर्माण, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए जाने, जलवायु परिवर्तन और संक्रामक महामारियों से और बढ़ता जा रहा है।’
यह वेबसाइट और जो कुछ कहती है, यह कहती है, ‘ये सभी चीजें मिल कर एक ऐसी स्थिति के निर्माण में अपना योगदान दे रही हैं, जिसमें आपदाएं आने वाले दिनों में भारत की अर्थव्यवस्था, इसकी आबादी और टिकाऊ विकास के लिए गंभीर खतरा पैदा करेंगी।’
अगर इस पर भी इस देश की तंद्रा नहीं टूटती तो वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) की ताजा रिपोर्ट पर उसे गौर कर लेना चाहिए। रिपोर्ट के अनुसार, भारत बाढ़ से प्रभावित होने वाली आबादी के आधार पर 163 देशों की सूची में शीर्ष पर है। हर साल करीब 50 लाख भारतीय बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित होते हैं। साफ है कि भारत आपदाओं के लिहाज से काफी संवेदनशील है। यह भी स्वाभाविक है कि शहरीकरण और सघन आबादी वाले इलाके एक नई जीवन शैली के साथ उभर रहे हैं। कुल मिला कर एक ही निष्कर्ष दिखता है कि वहन करने की योग्यता के बिना भारत का शहरीकरण तबाही का ही नुस्खा है।
उपमहाद्वीप का हाल भी अलग नहीं
यह स्थिति सिर्फ भारत की ही नहीं है। भारतीय उपमहाद्वीप के तीन देश बाढ़ की वजह से प्रभावित होने वाले देशों की सूची में शुरुआती तीन पायदानों पर हैं। वर्ल्ड रिर्सोसेज इंस्टीट्यूट (डब्ल्यूआरआई) के अनुसार, भारत 163 देशों की इस सूची में शीर्ष स्थान पर है। यहां हर वर्ष 48.5 लाख आबादी बाढ़ से प्रभावित होती है, जबकि जीडीपी में इसे 14.3 अरब डॉलर का नुकसान होता है। दूसरा स्थान बांग्लादेश का है, जहां की 34.7 लाख जनसंख्या हर साल बाढ़ का मुकाबला करती है। इसके बाद इस सूची में चीन (32.7 लाख आबादी सालाना प्रभावित), वियतनाम (9.2 लाख आबादी सालाना प्रभावित) और पाकिस्तान (7.1 लाख आबादी सालाना प्रभावित) जैसे देश शामिल हैं। डब्ल्यूआरआई के आंकड़े बताते हैं कि बाढ़ की वजह से दुनिया भर में सालाना 2.1 करोड़ लोग प्रभावित होते हैं और सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में 96 अरब डॉलर का नुकसान होता है।
नहीं मिलती नदी को फैलने की जगह
पहले नदी में पानी बढ़ जाए तो उसे फैलने के लिए नदी की दोनों तरफ खाली जगहें होती थी।
बेहतर योजना नहीं
मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट स्टडीज के प्रोफेसरएसजनकराजन के अनुसार चेन्नई की बाढ़ मानवीय भूल की परिणति है। जनकराजन शहरी प्रबंधन व जलवायु परिवर्तन, दोनों के विशेषज्ञ हैं। वे कहते हैं कि शहर में पैदा हुई बाढ़ की स्थिति ‘खराब शहरी नियोजन’ की देन है। आवासीय भू-खंडों व बहुमंजिला इमारतों को इन्फ्रास्ट्रक्चर या जल-विज्ञान संबंधी जानकारी जुटाए बिना मंजूरी दी जा रही है। नतीजतन पानी निकासी के रास्ते बंद होते जा रहे हैं। जहां से पानी की निकासी हो सकती थी, वहां इमारतें खड़ी हो गई हैं। जब निकासी का रास्ता नहीं होगा तो बाढ़ आएगी। वे कहते हैं कि चेन्नई की जो दशा हुई है, उसकी जिम्मेदार अभूतपूर्व बारिश नहीं, बल्कि शहर के योजनाकारों की चूक है। यह अविवेकपूर्ण शहरी विस्तार को बढ़ावा देने का परिणाम है। योजनाबद्ध तरीके से अगर वे शहर का विस्तार करते तो चेन्नई को इतना बड़ा खामियाजा नहीं भुगतना पड़ता।