57 साल में 225 गुना बढ़ी सैलरी..- धर्मेन्द्रपाल सिंह

करीब पौने दो साल की मशक्कत के बाद केंद्र द्वारा गठित सातवें वेतन आयोग ने जो रिपोर्ट सौंपी है उससे भारत सरकार के सैंतालीस लाख कर्मचारियों और बावन लाख पेंशनभोगियों को सीधे-सीधे लाभ पहुंचेगा। परंपरा के अनुसार मामूली कतर-ब्योंत के बाद देश भर की राज्य सरकारें, स्वायत्तशासी संस्थान और सरकारी नियंत्रण वाली फर्म भी वेतन आयोग को अपना लेती हैं। इस हिसाब से इसका असर संगठित क्षेत्र के दो करोड़ से ज्यादा कर्मचारियों पर पड़ेगा। अनुमान है कि आयोग की सिफारिशें लागू होने से अकेले केंद्र सरकार के खजाने पर करीब एक लाख करोड़ रुपए का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। कर्मचारियों के वेतन में औसतन 23.55 फीसद और पेंशन में चौबीस प्रतिशत इजाफा होगा। नए वेतनमान एक जनवरी, 2016 से लागू होंगे, इस कारण सरकार ‘एरियर’ के बोझ से बच जाएगी।

सुझाव और टिप्पणी के लिए वेतन आयोग की रिपोर्ट को अब विभिन्न मंत्रालयों के पास भेजा जाएगा। राय मिलने के बाद मंत्रिमंडल की मंजूरी ली जाएगी और फिर इस पर अमल के लिए कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता में एक समिति गठित होगी। अनुमान है कि अगले साल के मध्य तक केंद्रीय कर्मचारियों को बढ़ा वेतन मिलने लगेगा। उसके बाद ही अन्य का नंबर आएगा। जब करोड़ों कर्मचारियों की जेब में अतिरिक्त पैसा होगा तब कुछ न कुछ असर बाजार पर भी पड़ेगा। अनुमान है कि अगले साल उपभोक्ता सामग्री और रीयल स्टेट बाजार में रौनक आएगी। साथ ही उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में इजाफे का खतरा भी है। दाल, सब्जी और अन्य खाद्य सामग्री की कीमतों में वृद्धि से आम आदमी खासा परेशान है। अगर महंगाई और बढ़ी तो उसकी कमर ही टूट जाएगी। ऐसे में बाजार की चमक कब तक बनी रहेगी, कहना कठिन है।

सातवें वेतन आयोग के अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश एके माथुर ने इस बार कई भत्तों को मिला दिया है। न्यूनतम वेतन 18000 रुपए और अधिकतम 2.50 लाख रुपए (कैबिनेट सचिव, तीनों सेना प्रमुख और सीएजी) तय किया गया है। निश्चय ही आज भी निम्न और मध्य श्रेणी के सरकारी कर्मचारियों का वेतन निजी क्षेत्र से बेहतर है, लेकिन वरिष्ठ सरकारी मुलाजिमों के मुकाबले निजी महकमों के सीनियर एक्जीक्यूटिव को कहीं अधिक तनख्वाह मिलती है। इसीलिए वरिष्ठ सरकारी बाबुओं के निजी कंपनियों में जाने का चलन जोरों पर है और शायद इसी वजह से कई मजदूर संगठन वेतन आयोग की सिफारिशों से निराश हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबद्ध भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने तो साफ कह दिया है कि आयोग की सिफारिशों के कारण प्रतिभाशाली लोगों का देश से पलायन बढ़ेगा, जिसका अर्थव्यवस्था पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

भले आज देश की अर्थव्यवस्था उतनी अच्छी न हो, लेकिन मोदी सरकार की माली हालत बेहतर है। कच्चे तेल के अंतरराष्ट्रीय मूल्यों में आई भारी कमी और सबसिडी बिल में कटौती के कारण उसके हाथ में पर्याप्त पैसा है, जिससे अगले वित्त वर्ष से नए वेतन लागू करने में ज्यादा कठिनाई नहीं होगी। मुश्किल बाद के वर्षों में आ सकती है। बजट विशेषज्ञ जानते हैं कि केंद्रीय राजस्व का करीब पचपन फीसद पैसा ऐसा है, जिसे सरकार किसी भी सूरत में छेड़ नहींसकती। इसकी हर मद तय है। इसमें से दस फीसद से अधिक पैसा कर्मचारियों के वेतन और पेंशन में निकल जाता है और काफी बड़ा हिस्सा सबसिडी और जन-कल्याण से जुड़ी योजनाओं के लिए आरक्षित होता है।

यों वेतन आयोग का असर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का मात्र 0.65 प्रतिशत आंका जा रहा है। मोटे तौर पर माना जा सकता है कि केंद्र तो जैसे-तैसे एक लाख करोड़ रुपए का जुगाड़ कर लेगा, लेकिन राज्य सरकारों को भारी परेशानी का सामना करना पड़ेगा। अधिकतर राज्य वित्तीय संकट में घिरे हैं। अगर वे अपने कर्मचारियों को सातवें वेतन आयोग का लाभ देना चाहते हैं, तो उन्हें अतिरिक्त धन का जुगाड़ करना पड़ेगा, जो अग्निपरीक्षा से गुजरने जैसा है। नए कर लगा कर या मौजूदा करों में इजाफा करके और पैसा जुटाया जा सकता है। कर वृद्धि का अर्थ है आम जनता पर अतिरिक्त बोझ, जिसे अच्छे दिनों का लक्षण कतई नहीं माना जा सकता। दूसरा विकल्प खर्च में कटौती है। इसका मतलब है कि विकास योजनाओं पर कैंची चलाई जाए, जिसका खमियाजा भी अंतत: आम जनता को भोगना पड़ेगा।

जाहिर है कि वेतन आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद सरकार का खर्चा बढ़ जाएगा और उसके लिए वित्तीय अनुशासन का अपना संकल्प पूरा करना कठिन हो जाएगा। ऐसे में राजकोषीय घाटा कम कर वर्ष 2016-17 में 3.5 फीसद और वर्ष 2017-18 में तीन प्रतिशत पर लाने का सपना पूरा होना असंभव है। फिलहाल केंद्र और सभी राज्य सरकारों का मिलाजुला घाटा सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का छह फीसद से ऊपर बैठता है, इसलिए अकेले केंद्र की सदिच्छा से इस मर्ज पर काबू नहीं पाया जा सकता। दूसरी दिक्कत बढ़ते कर्ज का बोझ है। सरकार भारी उधारी (जीडीपी का 65 प्रतिशत) में दबी है, इसलिए नए वेतन के भारी खर्चे को सहन करने के लिए उसकी आय में इजाफा जरूरी है। लेकिन देश और दुनिया की मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों में आमदनी बढ़ाना आसान नहीं दिखता।

वित्तमंत्री अरुण जेटली अगले साल से कॉरपोरेट टैक्स में कटौती का एलान कर चुके हैं। इसका असर कर वसूली पर पड़ना लाजिमी है। इन तमाम परेशानियों के साथ-साथ महंगाई को काबू में रखना भी एक बड़ी चुनौती है। सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें महंगाई की आग में घी डालने का काम करेंगी। भारतीय रिजर्व बैंक का लक्ष्य जनवरी 2017 तक उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को पांच और जनवरी 2018 तक चार प्रतिशत पर लाने का है, जिस पर वेतन आयोग की ‘मेहरबानी’ से पानी फिरता दिखता है।

पिछले सत्तावन बरस में सरकारी मुलाजिमों का वेतन 225 गुना बढ़ गया है। देश में आजादी के बाद 1959 में दूसरा वेतन आयोग आया, जिसमें न्यूनतम वेतन अस्सी रुपए था, जो अब बढ़ा कर 18000 रुपए हो गया है। सुनने में यह बढ़त बड़ी लगती है। लेकिन अगर पिछले छह दशक की महंगाई पर नजर डालें तो वार्षिक वेतन वृद्धि दस प्रतिशत ही बैठती है, जो निजी क्षेत्र की औसत वेतन वृद्धि (12-13 प्रतिशत वार्षिक) से कम है। सरकारी मुलाजिमों के लिए पहले वेतन आयोग की रिपोर्ट स्वतंत्रता से पूर्व 1947 में आ गई थी। इसमें न्यूनतम वेतन पचपन रुपएतयकिया गया और सिफारिशें 1946 से लागू हुर्इं। उसके बाद छह वेतन आयोग आ चुके हैं। हर दस साल बाद आने वाले वेतन आयोग में न्यूनतम वेतन वृद्धि अमूमन ढाई से चार गुना के बीच रहती है। चौथे आयोग से बढ़ोतरी का आंकड़ा लगातार तीन गुना से ऊपर चल रहा था, जो इस बार घट कर 2.57 गुना पर आ गया है। हां इस बार अधिकतम वेतन वृद्धि की दर जरूर ज्यादा है।

न्यूनतम वेतन की गणना एक परिवार में चार सदस्यों के आधार पर की जाती है। कर्मचारी की कम से कम इतनी तनख्वाह तय की जाती है, जिससे वह अपने परिवार के खाने, कपड़े, मकान, दवा, र्इंधन, बिजली, मनोरंजन, शादी आदि का खर्चा निकाल सके। सभी सरकारी मुलाजिमों को ‘स्किल’ (प्रशिक्षित) श्रेणी में रखा जाता है और इसी आधार पर उनका वेतन तय होता है। सातवें वेतन आयोग ने न्यूनतम वेतन (18000 रुपए) तय करते समय प्रतिमाह 9218 रुपए भोजन और कपड़ों और 2033 रुपए विवाह, मनोरंजन और तीज-त्योहार के लिए तय किए हैं। वेतन निर्धारण का फार्मूला 1957 के श्रम सम्मेलन की सिफारिशों के आधार पर तय हुआ था, जो अब तक जारी है।

समाज में सरकारी कर्मचारियों की संख्या को लेकर व्याप्त भ्रम को सातवें वेतन आयोग ने तार-तार कर दिया है। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के पैरोकार अक्सर आरोप लगाते हैं कि हमारे देश में सरकारी मुलाजिमों की भारी-भरकम फौज है, जो खजाने पर फालतू बोझ है। इसी भ्रम को सच मान कर पिछले कई साल से कर्मचारियों की संख्या में कटौती की जा रही है और हजारों ऐसे पद हैं, जो वर्षों से खाली पड़े हैं। आयोग ने अन्य देशों से तुलना कर सच को उजागर किया है। आज अमेरिका में प्रति एक लाख आबादी पर 668 सरकारी कर्मचारी हैं, जबकि भारत में यह संख्या महज 139 है। अमेरिका में सर्वाधिक चौंतीस फीसद मुलाजिम सेना में हैं, जिनके बल पर वह दुनिया का सबसे ताकतवर देश कहलाता है।

निजी क्षेत्र के विस्तार के बावजूद आज जिस भी व्यक्ति को सरकारी नौकरी मिल जाती है उसे सौभाग्यशाली माना जाता है। कुछ माह पूर्व जब उत्तर प्रदेश में चपरासी के 368 पद के लिए तेईस लाख से अधिक युवाओं ने आवेदन किया, तो पता चला कि देश में बेरोजगारी की स्थिति कितनी भयावह है और सरकारी नौकरी का कितना आकर्षण है। आवेदन करने वालों में एक लाख से अधिक पेशेवर डिग्रीधारी थे। इस बात से अब कोई इनकार नहीं कर सकता कि उदारीकरण के मौजूदा दौर में हमारी अर्थव्यवस्था युवाओं के लिए पर्याप्त रोजगार सृजित करने में विफल रही है।

निजी क्षेत्र में जहां रोजगार मिलता भी है, वहां वेतन अक्सर बहुत कम होता है और डावांडोल आर्थिक परिदृश्य में नौकरी बनी रहने की गारंटी नहीं होती। इसीलिए आज हर पढ़े-लिखे नौजवान का सपना सरकारी नौकरी पाना है। सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद भारत सरकार में चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी का वेतन (भत्ते जोड़ कर) करीब 25000 रुपए हो जाएगा। ऐसे में सरकारी नौकरियों के लिए मारामारी और बढ़ेगी।

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