सूत्रों के मुताबिक रिपोर्ट में बताया गया है कि प्रदेश के 27 जिले डॉक्टरों की संख्या, सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन से लेकर मातृ-शिशु मृत्यु दर को कम करने में बेहद पिछड़े हुए हैं। खास बात यह है कि सरकार इन जिलों में सरकारी डॉक्टरों को भेजने में भी नाकाम रही है। जब स्वास्थ्य के बिगड़ते हालात से प्रदेश सरकार को फटकार लगी तो एनजीओ का हाथ थाम लिया।
दीपक फाउंडेशन बड़ौदा (गुजरात) के साथ हाल ही में सरकार ने करार किया है। एनजीओ इन जिलों में अपने डॉक्टर तैनात करेगा। इनकी तनख्वाह तकरीबन सवा लाख रुपए महीना होगी। सरकार ने इन जिलों को हाई फोकस जिले माना है। इनकी मॉनीटरिंग का जिम्मा स्वास्थ्य विभाग के संभागीय संयुक्त संचालक को दिया गया है।
ऐसे माना पिछड़ा
-प्रदेश में प्रति लाख पर 235 मातृ मृत्यु दर, लेकिन इन जिलों में 270
-प्रदेश में शिशु मृत्यु दर प्रति हजार पर 70, जबकि हाई फोकस जिलों में 82
– बच्चों का टीकाकरण भी ठीक से नहीं।
-संस्थागत प्रसव की संख्या कम।
-मातृ-शिशु पंजीयन में पिछड़े।
-डॉक्टरों के पद वर्षों से खाली
अभी ये हैं हालात
इन जिलों में फिलहाल स्त्री रोग विशेषज्ञ (गायनेकोलॉजिस्ट) और एनेस्थेटिस्ट की सबसे ज्यादा कमी है। यह दोनों विशेषज्ञ नहीं होने से सिजेरियन डिलेवरी नहीं हो पाती। गर्भवती महिला की हालत बिगड़ने पर उसे इंदौर या दाहोद लेकर जाना पड़ता है। कई बार महिला दम तोड़ देती है। यही हालात शिशु स्वास्थ्य के हैं। इन जगहों पर विशेषज्ञ मौजूद नहीं हैं।
ऐसे हैं हालात
जरूरत 15000 डॉक्टरों की, हैं 3500
– प्रदेश में डॉक्टरों के सात हजार स्वीकृत पद हैं। ये भी 1980 की जनसंख्या के आधार पर हैं। इसमें भी आधे से अधिक पद खाली पड़े हैं। प्रदेश की वर्तमान जनसंख्या के हिसाब से 15 हजार डॉक्टरों की जरूरत है।
निजी को लाख-सवा लाख, सरकारी को 60 हजार
– एक सरकारी डॉक्टर नौकरी में आता है तो शुरुआती दौर में उसे करीब 50 हजार रुपए प्रतिमाह वेतन मिलता है। दूरस्थ और आदिवासी अंचल के अधिसूचित जिलों में जाने वाले डॉक्टरों को अनुबंध के तहत 60 हजार तक मिलता है। जबकि पीएसपी के जरिये चयनित डॉक्टर हैं तो उसे 41-42 हजार रुपए ही मिलते हैं। दूसरी तरफ एनजीओ से तैनात निजी डॉक्टरों को सरकार लाख-सवा लाख वेतन देने की तैयारी में है।
(मप्र चिकित्सा अधिकारी संघ के महासचिव डॉ. माधव हासानी के मुताबिक)
27 जिले प्राइवेट डॉक्टरोंके हवाले
ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सेवाओं के हालात सुधारने के लिए फर्टीलाइजर और पेट्रोकेमिकल इंडस्ट्री के संचालक सीके मेहता ने 1982 में दीपक फाउंडेशन की स्थापना की। औद्योगिक क्षेत्र नंदेसरी में काम करने वाले कर्मचारियों के परिवारों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया करवाने के लिए अस्पताल स्थापित किया। बाद में यह मिशन के रूप में ग्रामीण और औद्योगिक क्षेत्र के लोगों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मिले इसलिए काम करने लगा। फिलहाल फाउंडेशन गुजरात के अलावा महाराष्ट्र के पुणे, रोहा और तलोजा, हैदराबाद के अलावा दिल्ली में भी कार्य कर रहा है।
मैं अभी बताने की स्थिति में नहीं
मैं एक कार्यक्रम में हूं। इस समय कुछ बताने की स्थिति में नहीं हूं।
-डॉ. नरोत्तम मिश्रा, लोक स्वास्थ्य मंत्री
विशेष हेल्प डेस्क भी होगी
शासन से पत्र आया है। इससे पता चला कि शासन का एक एनजीओ के साथ करार हुआ है। इंदौर संभाग के तीन जिले स्वास्थ्य सूचकांक पर खरे नहीं उतर रहे हैं। यहां एनजीओ द्वारा विशेष तौर पर डॉक्टरों की नियुक्ति की जाएगी। इनका वेतन सरकार देगी। बड़वानी, झाबुआ और आलीराजपुर में जननी शिशु सुरक्षा योजना के तहत एक विशेष हेल्प डेस्क भी होगी। इसकी मॉनीटरिंग संभागीय कार्यालय द्वारा की जाएगी। -डॉ. शरद पंडित, संयुक्त संचालक, स्वास्थ्य विभाग इंदौर
स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकार संवेदनशील नहीं
स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर प्रदेश सरकार संवेदनशील नहीं है। सरकारी डॉक्टर गांवों में भी काम कर सकते हैं, लेकिन सरकार पहले डॉक्टरों की समस्याओं पर खुलकर बात तो करे। सेवा शर्तों और वेतनमान में कई विसंगतियां हैं। पदोन्न्ति के अवसर नहीं हैं तो कैसे काम करेंगे। अब सरकार स्वास्थ्य सेवाओं को निजी हाथों में देना चाहती है तो दे दे, हम क्या कर सकते हैं। -डॉ. ललित श्रीवास्तव, संरक्षक, मप्र चिकित्सा अधिकारी संघ