इस गांव में कभी ख़त नहीं आया

736135. ये महज कोई संख्या नहीं बल्कि भारत के सबसे नए गाँव मशालडांगा का पिन कोड है.

भारत-बांग्लादेश ज़मीन समझौते के तहत इसी हफ़्ते पश्चिम बंगाल के कूच बिहार ज़िले का मशालडांगा गाँव भारत का हिस्सा बना है.

देश की आज़ादी के बाद अब पहली बार इस बस्ती में डाक आएगी.

विभाजन के समय कूचबिहार ज़िले और इससे सटे बांग्लादेश के तीन ज़िलों में कई ऐसे इलाक़े रह गए थे, जो थे तो पड़ोसी देशों के अधिकार में, लेकिन उन्हें किसी देश का नागरिक नहीं माना जाता था.

भारत का हिस्सा बनने वाली बस्तियों के कई युवक रोज़गार के सिलसिले में केरल और तमिलनाडु के दूरदराज के इलाकों में रहते हैं. लेकिन यहां कोई चिट्ठी नहीं आई क्योंकि इन बस्तियों का अपना पता नहीं था.

कभी नहीं आया ख़त
मशालडांगा जैसी ही एक बस्ती में रहने वाली मैमना ख़ातून कहती हैं, "मेरे पति केरल के एक होटल में काम करते हैं. पहले साल भर बाद घर आने पर ही उनकी खैरियत मिलती थी. कभी-कभी उनके साथ काम करने वाले बस्ती के दूसरे लोग उनके ख़त ले आते थे."

असल में फर्जी नामों से भारतीय बाज़ारों से ख़रीदे गए सिम से चलने वाला मोबाइल ही यहां बाहरी दुनिया से संपर्क का अकेला साधन था.

लेकिन यहां बिजली की सप्लाई भी नहीं होती इसलिए मोबाइल चार्ज करना भी भारी समस्या थी. अब यहां बिजली आने की उम्मीद भी जगी है.

कूचबिहार के जिला मजिस्ट्रेट पी उलगानाथन कहते हैं, "इन बस्तियों के 14 हज़ार से ज़्यादा लोगों के पास अपना कोई पता नहीं था. इसलिए भारत का हिस्सा बन जाने के बाद उन्हें पिनकोड आबंटित करना मेरा पहला और सबसे प्रमुख काम था."

मशालडांगा के आसपास के गांवों में बीते छह वर्षों से डाक बांटने वाले दिनहाटा पोस्ट आफिस के नूरुल हक़ कहते हैं, "अब तक इन नई बस्तियों के किसी व्यक्ति के नाम कोई ख़त नहीं आया है. लेकिन बीते दो-तीन दिनों से लोग मुझे रोकते हैं और पूछते हैं कि कहीं मेरे नाम कोई ख़त तो नहीं आया है."

पहचान मिलने की खुशी
मशालडांगा
इसी बस्ती के एक बुजुर्ग मुश्ताक़ अली कहते हैं, "आज़ादी के बाद मिले इस पिनकोड से हमारी जिंदगी में बदलाव की उम्मीद है. अब बस्ती के बेरोज़गार युवा रोज़गार की तलाश में बेखटके देश के दूसरे इलाक़ों में जा सकते हैं. अब हमें अपना एक पता जो मिल गया है."

भारत में शामिल होने का सबसे बड़ा जश्न इसी मशालडांगा बस्ती में मनाया गया था. गांव के लोगों ने चंदा जुटाकर दो लाख रुपए की लागत से एक पंडाल बनाया था जहां 31 जुलाई को पूरी रात नाच-गाना चला.

मुश्ताक कहते हैं, "यह हमारी आजादी, पहचान और पता मिलने का जश्न था."

बस्ती के लोगों ने दिनहाटा जाकर दूर रहने वाले अपने परिजनों को ख़त भेजना तो शुरू कर दिया है. लेकिन अब उन्हें उस दिन का इंतजार है जब पहली बार डाकिया इन बस्तियों में डाक लेकर आएगा.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *