ग्रीस मॉडल पर भारी हमारा एक छोटा-सा राज्य – सईद नकवी

हाल ही में एक अंग्रेजी अखबार में पहले पन्ने पर छपी एक तस्वीर ने मेरा ध्यान खींचा। उसमें अगरतला में एक इंटरनेट गेटवे के शुभारंभ अवसर पर केंद्रीय संचार एवं आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद को त्रिपुरा के कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री माणिक सरकार के साथ गर्मजोशी से हाथ मिलाते दिखाया गया था। इस तस्वीर के साथ अखबार हमें सूचित कर रहा था कि अपराध-नियंत्रण के मामले में त्रिपुरा का रिकॉर्ड लाजवाब रहा है। हत्या, अपहरण, एनकाउंटर, बलवा आदि सभी को लेकर कानून-व्यवस्था का लगभग सौ फीसदी रिकॉर्ड वहां रहा है। एक साल पहले जब त्रिपुरा के पूर्व पुलिस महानिदेशक बीएल वोहरा ने मुझे इसी तरह के आंकड़े बताए थे तो मैं यकीन नहीं कर पाया था। लिहाजा, मैं खुद गत अप्रैल में अगरतला जा पहुंचा। संयोगवश मैंने जल्द ही खुद को राज्य के मौजूदा पुलिस महानिदेशक के. नागराज की सोहबत में पाया और उस अंग्रेजी अखबार में जो भी आंकड़े छपे थे, वे पूरे के पूरे उनकी जुबान पर रखे हुए थे।

निश्चित ही, उस दिन अंग्रेजी अखबार में पहले पन्ने पर छह कॉलम में व्यापमं घोटाले की खबर छाई हुई थी, लेकिन त्रिपुरा की उस खबर ने मेरे दिल को छू लिया। इसकी अनेक वजहें थीं, जिनमें से एक यह भी थी कि हाल ही में हमने ग्रीस में कम्युनिज्म को लड़खड़ाते हुए देखा है। स्पेन में पाब्लो इग्लेसियास के वामपंथ और लातीन अमरीका में हो रही घटनाओं के बारे में भी शायद यही कहा जा सकता है।

भारत की पहली कम्युनिस्ट सरकार वर्ष 1957 में केरल में बनी थी, जिसे इंदिरा गांधी के आग्रह पर नेहरू सरकार ने बर्खास्त कर दिया था। पश्चिम बंगाल में 35 साल तक वाम सरकार चली, लेकिन ज्‍योति बसु के उत्तराधिकारियों ने भूमि संबंधी मामलों में गंभीर भूलें कीं और सत्ता गंवा दी। केरल और पश्चिम बंगाल की ही कड़ी में त्रिपुरा की कम्युनिस्ट सरकार का नाम जोड़ा जा सकता है, जहां पिछले 37 में से 32 साल वाम मोर्चा की सरकार रही है। ह्यूमन डेवलपमेंट के क्षेत्र में त्रिपुरा ने कमाल की उपलब्धियां अर्जित की हैं, जिनके बारे में कोई बात ही नहीं करता। क्या 40 लाख आबादी वाले इस राज्य के बारे में महज इसलिए बात नहीं की जाती है, क्योंकि वह एक छोटा और अलग-थलग राज्य है? देश में केवल सिक्किम और गोवा ही त्रिपुरा से छोटे राज्य हैं। इसलिए भी अखबार के पहले पन्ने पर माणिक सरकार की तस्वीर देखना सुखद था, क्योंकि मैं यूरोप से लौटकर आया था और वहां के अखबारों में मुझे ग्रीस की राजनीतिक प्राथमिकताओं के बारे में कुछ

भी सकारात्मक नजर नहीं आया था।

कम ही लोगों को पता होगा कि आज त्रिपुरा देश का सबसे साक्षर राज्य है। वहां 96 प्रतिशत साक्षरता है। पहले केरल इस मामले में अव्वल हुआ करता था, लेकिन हाल के सालों में वह पिछड़ता चला गया है। त्रिपुरा में पुरुषों की औसत आयु 71 और महिलाओं की 73 वर्ष है और यह भी देश में एक रिकॉर्ड है। वहां के आदिवासियों में लैंगिक विभेद जैसी कोई चीज नहीं है। त्रिपुरा के राजनीतिक नेतृत्व नेसर्वाधिक बुद्धिमत्ता इस बुनियादी सच को समझने में दिखाई है कि राजनीति की ही तरह सुप्रशासन भी संभावनाओं की कला है। वाद-प्रतिवाद, संतोष-असंतोष के पचड़े में पड़ने के बजाय वहां की राज्य सरकार ने केंद्र और राज्य की सभी योजनाओं को अपने सामने रखा, सभी अफसरों और पार्टी कैडर को बुलाया और सभी ने एक साथ बैठकर चिंतन किया। त्रिस्तरीय पंचायती राज प्रणाली को अपनाया गया और निर्वाचित व स्वायत्त जिला परिषदों का सशक्तीकरण किया गया, जो कि समूचे राज्य के आदिवासी क्षेत्रों में फैली हुई हैं। यह एक बहुत महत्वपूर्ण कदम था, क्योंकि राज्य ही नहीं, बल्कि समूचे पूर्वोत्तर में आदिवासियों का असंतोष ही तमाम विद्रोहों और संघर्षों का कारण रहा है।

त्रिपुरा के महाराजाओं की कहानियां हम हमेशा से ही सुनते आ रहे थे, लेकिन मूलत: यह आदिवासियों का इलाका रहा है। वहां कुल 19 प्रकार की जनजातियां हैं। अलबत्ता बांग्लादेश के निर्माण के बाद बड़ी संख्या में बंगाली त्रिपुरा चले आए और स्थानीय आदिवासी वहां अल्पसंख्यक बनकर रह गए। आज वहां 70 प्रतिशत बंगाली और 30 प्रतिशत आदिवासी हैं। पहले यह आंकड़ा ठीक इसके उलट हुआ करता था। कांग्रेस ने अपनी आदत के मुताबिक यहां बंगालियों को अपना वोट बैंक बनाने और विभिन्न् जनजातियों में परस्पर विभेद पैदा करने की कोशिश की है।

आज त्रिपुरा में हर किलोमीटर पर एक स्कूल है। इसका श्रेय जनजातीय-कम्युनिस्ट नेता दशरथ देब को जाता है, जिनके जनशिक्षा अभियान के चलते ही वर्ष 1945 में त्रिपुरा के महाराजा को 500 प्राथमिक विद्यालयों को मंजूरी देने को मजबूर होना पड़ा था। उसके बाद से यहां स्कूलों की संख्या लगातार बढ़ती रही है। शिक्षा के प्रसार के साथ ही त्रिपुरा के आदिवासियों का झुकाव कम्युनिज्म की ओर बढ़ा है, जबकि वहां के बंगालियों का समर्थन कांग्रेस को अधिक रहा है। कांग्रेस पंथ की राजनीति में उलझी रही, वहीं नृपेन चक्रबर्ती जैसे नेता ने वहां की सामाजिक हकीकत को अच्छे से समझा कि बंगालियों के बिना आदिवासी और आदिवासियों के बिना बंगाली आगे नहीं बढ़ सकते।

सामंजस्य की इस राजनीति ने ही त्रिपुरा में कम्युनिस्टों का जनाधार बढ़ाया है और आज वहां की 60 सीटों में से 50 कम्युनिस्टों के खाते में है। कम्युनिस्ट नेताओं की व्यक्तिगत ईमानदारी भी उनकी उजली छवि बनाने में कारगर रही। त्रिपुरा के पहले वामपंथी मुख्यमंत्री नृपेन चक्रबर्ती दस साल तक पद पर रहे, लेकिन जब उन्होंने मुख्यमंत्री निवास छोड़ा, तब उनके पास टिन की वे ही दो पेटियां थीं, जो वे दस साल पहले अपने साथ लेकर आए थे। इन पेटियों में कपड़ों, किताबों और हजामत के सामान के अलावा और कुछ नहीं था। मुख्यमंत्री के घर का राशन भी राशन कार्ड की मदद से खरीदा जाता था। आधुनिक पूंजीवादी राज्य-व्यवस्था तो उनके अस्तित्व को ही नकार देती, क्योंकि नृपेन चक्रबर्ती का अपना कोई बैंक खाता तक नहीं था।

माणिक सरकार उन्हीं के राजनीतिक शिष्य हैं और पिछले 17 वर्षों से लगातार राज्य के मुख्यमंत्री हैं। मितव्ययिता में भी वे बिलकुल नृपेन की तरह हैं। उनकी पत्नी एक स्कूल में पढ़ाती हैं और रिक्शे में बैठकर काम पर जाती हैं। केंद्र सरकार की योजनाओं केअनुपालनमें त्रिपुरा ने कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उनके स्वच्छ भारत अभियान को लेकर क्या फीडबैक मिल रहा है, ये तो वे ही जानें, लेकिन अगर वे अपने अफसरों को त्रिपुरा के दूर-दराज के इलाकों में भेजें तो यहां की साफ-सफाई देखकर वे अपनी आंखें मलते रह जाएंगे। अगरतला से 80 किलोमीटर दूर अंबासा बसा है। पहले इस इलाके के गांवों को राशन का सामान खरीदने के लिए भी 18 किलोमीटर तक चलना पड़ता था। लेकिन अब कुमारधन की पहाड़ी तक सड़क बना दी गई है, जिससे ये गांव सीधे अंबासा से जुड़ गए हैं। आश्चर्य नहीं कि अंबासा के कलेक्टर और उनके खंड विकास अधिकारी को यहां के गांवों में किसी हीरो से कम का दर्जा प्राप्त नहीं है।

आज जब ग्रीस की त्रासदी और स्पेन व लातीन अमरीकी देशों में निर्मित हो रही परिस्थितियों के कारण कम्युनिस्ट शासन प्रणाली सवालों के दायरे में है, तब त्रिपुरा के हालात उम्मीद बंधाने वाले लगते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)

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