इस मार्गदर्शिका की कई खासियतें हैं। संविधान के तहत सरकार को यदि मुफ्त नहीं तो न्यूनतम खर्च पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की जो जवाबदेही दी हुई है, उससे पूरी तरह पल्ला झाड़ लिया गया है। फीस वृद्धि पर नियंत्रण रखने का सारा दारोमदार अभिभावकों पर डाल दिया गया है, मानो कि वे किसी दुकान के उपभोक्ता हों। यदि उनको कोई आपत्ति हो तो वे जिलास्तरीय शुल्क विनियमन समिति के समक्ष जाएं और यदि वहां न्याय नहीं मिलता तो संभागस्तरीय शुल्क विनियमन समिति के सामने अपील करें। मार्गदर्शिका में इन दोनों समितियों को निजी स्कूलों के खातों या गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हेतु दी जाने वाली सुविधाओं-अधोसंरचना की जांच-पड़ताल करने का न तो कोई अधिकार दिया गया है और न ही ऐसा करने के लिए चार्टर्ड एकाउंटेंट व अन्य विशेषज्ञ स्टाफ की सेवाएं लेने के लिए कोई वित्तीय प्रावधान किया गया। यानी कि सरकार चाहती है कि मनमानी फीस बढ़ाने का फैसला स्कूल प्रबंधन और अभिभावक के बीच समझौता-वार्ता से ही होगा, न कि बढ़ोतरी के दावे की वैधता की जांच-पड़ताल करके। जाहिर है इसमें स्कूल मैनेजमेंट का पलड़ा ही भारी होगा। अधिकांश अभिभावक तो इन समितियों के सामने जाने की हिम्मत ही नहीं कर पाएंगे। इस पूरे नाटक के दौरान सरकार तमाशबीन बनी रहेगी, ठीक वैसे ही जैसे विगत कई सालों से बनी रही है।
इस मार्गदर्शिका के एक और पक्ष पर गौर कीजिए। स्कूल मैनेजमेंट को खुली छूट है कि वह निजी प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित महंगी पुस्तकें खरीदने के लिए विद्यार्थियों को बाध्य करे। सवाल केवल किताबों की कीमत का नहीं है, किताबों की गुणवत्ता का भी है। क्या सरकार निजी स्कूलों में ऐसी किताबें पढ़ाने की छूट दे रही है, जो राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा-2005 के अनुसार उचित नहीं हैं, गैर-जरूरी हैं या संविधान के मूल्यों का उल्लंघन करती हैं? क्या सरकार अनुचित, गैरवैज्ञानिक या अंधविश्वास पनपाने वाली घटिया किताबों को पढ़ाए जाने की भी इजाजत देगी? यदि मार्गदर्शिका का पालन किया जाएगा तो सरकार इस संवैधानिक जवाबदेही से भी पल्ला झाड़ सकेगी और बच्चों की शिक्षा के साथ खिलवाड़ की पूरी छूट देगी।
इस मार्गदर्शिका के आधार पर सरकार का दावा है कि अभिभावकों को फीस के मसले पर कुछ राहत तो मिली है। इस भ्रामक दावे की पड़ताल दो कसौटियों पर की जा सकती है। पहली, मार्गदर्शिका ने फीस बढ़ाने के दो नायाब रास्ते खोल दिए हैं। एक रास्ता तो उस 10 फीसदी बढ़ोतरी का है, जो स्कूल मैनेजमेंट हर साल बेरोकटोक कर सकता है बशर्ते पिछले साल में उसका ‘शुद्ध लाभ" 10 फीसदी से अधिक न हो। शायद भारत केशैक्षिक इतिहास में यह पहली बार होगा कि किसी सरकारी दस्तावेज में शिक्षा में ‘शुद्ध लाभ" कमाने को वैधता प्रदान की जा रही है , ऐसा ‘शुद्ध लाभ", जो आयकर से पूर्णत: मुक्त है। वैसे भी ‘शुद्ध लाभ" को 10 फीसदी के अंदर रखने की तरकीब हरेक कारोबारी जानता है, यह सर्वविदित सच्चाई है।
दूसरा रास्ता उस हालत में खोला गया है, जिसमें ‘शुद्ध लाभ" 10 फीसदी से अधिक है। तब स्कूल मैनेजमेंट को इसके लिए संभागस्तरीय शुल्क विनियमन समिति के सामने फीस बढ़ाने का औचित्य साबित करना होगा। यह नामी-गिरामी स्कूलों के लिए कितना सरल होगा, इसका सटीक ज्ञान सभी अभिभावकों को है, खासकर तब, जब वे अपने बच्चों के भविष्य को लेकर लाचार व विकल्पहीन हों और सरकारी समिति बगैर किसी प्राधिकार या औजार के हो। फीस की बेलगाम बढ़ोतरी का इससे बेहतर वैध रास्ता और क्या हो सकता है, वह भी उलझी हुई नफीस भाषा में!
दूसरी कसौटी शुल्क की अजीबोगरीब परिभाषा की है। मार्गदर्शिका के अनुसार उसे शुल्क नहीं माना जाएगा, जो विद्यार्थी द्वारा ‘स्वेच्छा" से लिया जाता है। किसी बोर्ड द्वारा मान्यताप्राप्त स्कूल की पाठ्यचर्या में उम्दा शिक्षा हेतु ‘स्वेच्छा" की सुविधा वाला सवाल उठाना ही विशेष पड़ताल की मांग करता है। क्या कम्प्यूटर सीखना, विज्ञान के प्रयोग करना, खेलकूद या संगीत में हिस्सा लेना या पुस्तकालय का उपयोग करना किसी ऐसी ‘स्वेच्छा" का मामला रहेगा, जिसके लिए अतिरिक्त व मनमानी फीस ली जा सकेगी? मार्गदर्शिका इसकी खुली छूट देती है। यह भी तय है कि स्वेच्छा" की आड़ में स्कूल प्रबंधन अभिभावक की आर्थिक औकात के आधार पर विद्यार्थियों के बीच भेदभाव कर सकेगा, जो कि संविधान का उल्लंघन होगा।
ऐसे हालात में बेहतर होगा कि ‘स्कूल शिक्षा विभाग" का नाम बदलकर ‘शिक्षा मुनाफाखोरी विभाग" कर दिया जाए। कुछ ऐसा ही नामांतरण उच्च शिक्षा विभाग का भी करने की जरूरत है। कम से कम ऐसा करके सरकार अपनी हकीकत के अनुरूप ‘पारदर्शी" व्यवहार तो करने लगेगी।
-लेखक वरिष्ठ शिक्षाविद हैं