पिछले दिनों संघ खेमे की ‘इंडियाफैक्ट्स’ नामक वेबसाइट पर अंगरेजी में एक पोस्ट आई जिसमें रोमिला थापर, अंगना चटर्जी, विजय प्रसाद जैसे आठ ‘भारतविरोधी बुद्धिजीवियों’ का पूरा परिचय डाला गया है। उसके नीचे जो टिप्पणियां आई हैं, उनमें एक संघ हमदर्द की टिप्पणी दिलचस्प है: ‘हमारी मुश्किल यह है कि हम इन बुद्धिजीवियों के बनाए हुए पारिस्थितिक तंत्र (इको-सिस्टम) के बरक्स कोई प्रति-तंत्र विकसित नहीं कर पाए जैसा कि अमेरिका में दक्षिणपंथ के पास है।… मैं नहीं समझता कि मोदी सरकार और संघ परिवार के पास वह दृष्टि और बौद्धिक माद्दा है कि वे ऐसा प्रति-तंत्र निर्मित कर पाएं। यही हमारी सबसे बड़ी त्रासदी है।’ यह अहसास संघ से जुड़े लोगों को है। फिर किताबों को जला देने का आह्वान क्यों न किया जाए!
लिहाजा, स्वामी के बयान को आप इस बौद्धिक क्षमता की कमी के आत्मस्वीकार के रूप में भी पढ़ सकते हैं। वह जितना फासीवादी मिजाज का बयान है उतना ही यथार्थवादी भी।
कोई चाहे तो कह सकता है कि ‘बौद्धिक क्षमता’ अपने-आप में एक गढ़ंत है जो आधुनिकता की पश्चिमी परियोजना द्वारा हमारे ऊपर थोप दी गई है। यह बौद्धिक कर्म के आधुनिकता-निर्मित ढांचे का असर है जिसके चलते एक खास प्रविधि का पालन करने वाला, तार्किक-वैज्ञानिक चिंतन के मुहावरों में बंधा लेखन ही हमारे लिए उत्तम बौद्धिकता की निशानी होता है। जिन विचारकों में गैरमिलावटी भारतीयता बची हुई है, उनके यहां यह निशानी न मिले, यह स्वाभाविक है। वस्तुत: उनके यहां ठेठ भारतीय किस्म की बौद्धिकता है जिसे पश्चिमी आधुनिकता ने, और इसीलिए हम जैसे जड़ों से कटे लोगों ने, बौद्धिकता मानने से इनकार कर दिया है।
यह उत्तर-आधुनिक दलील पहली नजर में बहुत गलत नहीं लगती। पर शिक्षा-संस्कृति के मोर्चे पर संघ की अगुआई करने वालों को पढ़ें तो भेद खुल जाता है। वहां बौद्धिक कर्म के उन सदियों पुराने उसूलों का भी कोेई पालन नहीं मिलता जिनका स्वयं भारतीय पांडित्य-परंपरा में सख्ती से पालन किया गया है। इसी का एक नमूना अभी मेरी मेज पर खुला पड़ा है। यह अक्तूबर महीने की उनतीस तारीख को वेंकैया नायडू के हाथों लोकार्पित एक पुस्तक है। लेखक हैं, दीनानाथ बतरा और पुस्तक का नाम है, ‘भारतीय शिक्षा का स्वरूप’।
आदरणीय बतराजी को जिसने नहीं पढ़ा, वो समझो ‘जन्म्याईं नईं’। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ओर से शिक्षा-संस्कृति के मोर्चे पर काम करने वाले एक ऐसे समर्पित प्रचारक हैं जिनकी स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुत इज्जत करते हैं। ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ की अगुआई करते हुए दो साल पहले वेंडी डोनिजर की किताब ‘द हिंदूज: ऐन आॅल्टरनेटिव हिस्ट्री’को लुगदी करवाने में कामयाबी हासिल कर वे चर्चा में आए थे। वैसे वे काफी समय से संघ के शिक्षा-नीति-निर्धारकों में रहे हैं और राजग-1 के दौरान 2001 में एनसीइआरटी के सलाहकार के तौर पर उन्होंने उस समिति का नेतृत्व किया था जिसने इतिहास की किताबों में से हिंदू राष्ट्रवादियों को ठेस पहुंचाने वाले हिस्सों को निकाल बाहर करने के काम को अंजाम दिया।
बतराजी ने शिक्षा के भारतीयकरण और उसमें मूल्य-शिक्षा के समावेश के उद््देश्य से नौ पाठ्यपुस्तकें भी लिखीं, जिनका गुजराती में अनुवाद कराकर गुजरात सरकार ने अपने बयालीस हजार विद्यालयों में उन्हें पढ़ाना अनिवार्य किया है। इनमें ‘तेजोमय भारत’ और ‘प्रेरणादीप 1′, ‘प्रेरणादीप 2′ जैसी किताबें हैं जिनमें विद्यार्थियों के लिए परोसी गई सामग्री काफी चर्चा में रही है। मसलन, ‘तेजोमय भारत’ में महाभारत की कथा के आधार पर प्राचीन भारत में स्टेम सेल रिसर्च होने, टेलीविजन होने आदि की जानकारी दी गई है। ‘प्रेरणादीप’ के अलग-अलग भागों में स्पष्ट नस्लवादी मिजाज वाली ‘शिक्षाप्रद’ कहानियां हैं। मोदीजी ने स्वयं इन किताबों के महत्त्व पर प्रकाश डाला है और भारतीय शिक्षा के उद्धार की मुहिम में बतराजी के महती योगदान को स्वीकार किया है।
इन बातों से समझा जा सकता है कि राजग-2 में शिक्षा के स्तर पर जो कुछ होने जा रहा है- और जाहिर है कि बहुत कुछ होने जा रहा है- उसमें दीनानाथ बतरा नेतृत्वकारी भूमिका में रहेंगे। ऐसे व्यक्ति के विचारों को सीधे उसकी पुस्तक से हासिल करने में किसकी दिलचस्पी नहीं होगी! मेरी मेज पर उनकी किताब के खुले होने का कारण यह है।
अब आइए इस किताब पर। अगर आप आजकल के बाबाओं को प्रामाणिक भारतीयता का सबसे ठोस उदाहरण मानते हों, तो यह किताब भारतीयता से ओतप्रोत है। इसकी अंतर्वस्तु और शैली, दोनों बाबाओं के प्रवचन जैसी है। इसमें न किसी उद्धरण का स्रोत बताने की जहमत उठाई गई है, न किसी तथ्य को प्रमाणपुष्ट करने की। (वह सब बतराजी कह रहे हैं, यही क्या काफी नहीं है!) उद्धृत किए गए लोगों का पूरा परिदृश्य इतना वैविध्यपूर्ण है कि आप दंग रह जाएंगे। यहां श्री मां, सार्इं बाबा, एकनाथ जी, स्वामी रंगनाथन, मां शारदा आदि से लेकर विक्टर ह्यूगो, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, महात्मा गांधी, विनोबा भावे, गिजुभाई, दीनदयाल उपाध्याय, गोलवलकर, डॉ कोठारी, डॉ राधाकृष्णन और पता नहीं कौन-कौन से विचारक मौजूद हैं और ऐसा लगता है कि इन सबने मिल कर कुछ एक जैसी ही बातें कही हैं। उद्धरणों के साथ कहीं भी संदर्भ नहीं बताया गया है, पर वह उतनी चिंताजनक बात नहीं।
चिंताजनक यह है कि पढ़ कर कई बार संदेह होता है कि लेखक अपने ही शब्दों पर उद्धरण चिह्न ठोंक कर उन्हें किसी नामी-गिरामी के हवाले किए दे रहा है। पृष्ठ 177 पर स्वामी विवेकानंद का एक उद्धरण है: ‘समझ के बिना कोरा ज्ञान मस्तिष्क में पड़ा सड़ांध पैदा करता है। प्रेम के ढाई अक्षर आत्मसात करने से जीवन सफल तथा धन्य हो जाता है।’ फिर 186 पर विवेकानंद का उद्धरण है: ‘शिक्षा जानकारियों का ढेर नहीं, जो मस्तिष्क में पड़ा रह कर सड़ांध पैदा करता है। ज्ञान के चार अक्षर भी यदि हम जीवन मेंआत्मसातकर लें तो हमारा जीवन सफल हो जाए।’
चूंकि दोनों उद्धरणों का स्रोत नहीं बताया गया है, इसलिए प्रामाणिकता जांची नहीं जा सकती, पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि ‘मस्तिष्क’, ‘सड़ांध’, ‘अक्षर’, ‘जीवन’, ‘आत्मसात’ और ‘सफल’ जैसे शब्दों को दुहराते हुए, और ‘प्रेम के ढाई अक्षर’ तथा ‘ज्ञान के चार अक्षर’ का अंतर बरत कर, दो जगह दो बातें स्वामी विवेकानंद ने नहीं कही होंगी।
ये बतराजी की अपनी मेधा से निकले हुए सूत्र ही हो सकते हैं जिन्हें अधिक वजन देने के लिए उन्होंने विवेकानंद के नाम कर दिया है। यह बात तब और पुष्ट होती है जब आप पाते हैं कि पृष्ठ 17 पर लेखक बिना किसी को उद्धृत किए यह बात कह रहा है: ‘शिक्षा जानकारियों का ढेर नहीं है, जो मस्तिष्क में पड़ी रहकर सड़ांध पैदा करती है।’ फिर पृ. 205 पर उसके अपने शब्द: ‘शिक्षा कोरा अक्षर-ज्ञान नहीं है, जो मस्तिष्क में पड़ा सड़ांध पैदा करता है।’ और तो और, इसी पुस्तक में बतराजी की जो कविताएं संकलित हैं, उनमें भी यह रचनात्मक सूत्रीकरण मिलता है, जिससे यह अंतिम रूप से सिद्ध हो जाता है कि विवेकानंद को इसका श्रेय उन्होंने महज उदारतावश दे दिया था। कविता पंक्ति है: ‘यदा-कदा मास्टरजी आते हैं, मस्तिष्क में ठूंसते हैं अक्षरज्ञान/ वह वहां सदा सड़ांध पैदा करता है, नहीं है यह अनुभूत ज्ञान।’
किताब में आए सभी उद्धरणों का हाल बेहाल है। ‘कामायनी’ का एक छंद एकाधिक बार उद्धृत है और मात्रा तथा आशय, दोनों दृष्टियों से उसे अधमरा करके प्रस्तुत किया गया है। इसी तरह एक छोटी-सी कहानी रचते हुए लेखक ने लक्ष्मण और उनकी पत्नी उर्मिला के बारे में लिखा है, ‘लक्ष्मण जब वनवास जाने लगे थे तो उन्होंने कहा था कि मैं श्रीराम के साथ जा रहा हूं, यह नहीं कहा कि मैं कब लौटूंगा। उर्मिला ने अपनी एक सखी से यह शिकायत की थी कि सखि, वे मुझसे कहके जाते।’ (पृ. 269) याद कीजिए कि ‘सखि, वे मुझसे कह कर जाते’ मैथिलीशरण गुप्त की पंक्ति है जो उनकी कविता में गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा का कथन है।
पृष्ठ 186 पर डॉ राधाकृष्णन को लेखक ने अंगरेजी में उद्धृत किया है: ‘स्टैगनेशन इज डेथ ऐंड मोशन इज लाइफ।’ यही वाक्य इसी तरह अंगरेजी भाषा और रोमन लिपि में पृष्ठ 177 पर लेखक की अपनी बात के रूप में है।
पश्चिमी विद्वत्ता की बराबरी में दिखने की गरज से बतराजी लगातार अंगरेजी में कुछ-कुछ कहते चलते हैं। ‘वी आर द ट्रस्टीज आॅफ द वेल्थ’ (122), ‘रीड, च्यू ऐंड डाइजेस्ट’ (176), ‘आॅल फॉॅर वन ऐंड वन फॉॅर आॅल इज आवर सॉन्ग’ (188)- ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं। गलत-सही उद्धरणों और अंगरेजी वाक्यों वाली यह बाबासुलभ शैली भी क्षम्य होती, अगर कम-से-कम सुसंबद्ध तरीके से अपनी बात कहने का गुर ही बाबाओं से ले लिया गया होता।
बतराजी की मुश्किल यह है कि प्रवचन और लेखन का यह बुनियादी सिद्धांत भी उनके यहां मात खा जाता है। वे अपनी जैसी-तैसी स्थापनाओं को बस जैसे-तैसे स्थापित करते चले जाते हैं। किताब के पहले ही अध्याय को देखें तो उसका शीर्षक है, ‘भारतीय शिक्षा का स्वरूप’, पर पूरेअध्याय में इस स्वरूप को लेकर शायद ही कोई बात कही गई है। असंबद्ध अनुच्छेदों में तरह-तरह की बातें कहता हुआ लेखक शिक्षा संबंधी सरकारी तंत्र के ढांचे पर विचार व्यक्त करने लगता है और फिर अचानक, बिना किसी बुद्धिगम्य कारण के, ‘गांधी के शिक्षा संबंधी विचार’ उपशीर्षक के अंतर्गत अपनी समझ के अनुसार उनके विचारों को बिंदुवार रखने लगता है। ऐसी असंबद्धता किताब में आद्योपांत व्याप्त है। उसे पुस्तक का एक गुण नहीं, बल्कि अंगी गुण कहना चाहिए।
याद रखें कि दीनानाथ बतराजी इस समय संघ परिवार के सबसे कद्दावर शिक्षा-चिंतक हैं। स्थानाभाव के कारण उनके बौद्धिक स्तर के और नमूने यहां पेश नहीं किए जा सकते, किताब की स्थापनाओं पर तो खैर बात ही नहीं की गई, पर जो काम की बात है वह इतने को आधार बना कर कही जा सकती है। वह यह कि क्या इस तरह की बौद्धिकता के बल पर रोमिला थापर, बिपन चंद्र जैसे विद्वानों का उत्तर दिया जा सकता है?