लेकिन स्वास्थ्य के मोर्चे पर मोदी सरकार ने किया क्या है, इसका विस्तृत ब्योरा अभी उपलब्ध नहीं है.
अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज़ राष्ट्रपति के अभिभाषण, प्रधानमंत्री के संसद में दिए भाषण, लाल किले से प्रधानमंत्री का देश के नाम संदेश और वित्तमंत्री के बजट भाषण का विश्लेषण कर सरकार की स्वास्थ्य नीति को समझाने की कोशिश कर रहे हैं.
पढ़िए ज्यां द्रेज़ का पूरा विश्लेषण
लगता है कि नई सरकार की आर्थिक नीति पिछली सरकार की नीतियों की दिशा बदले बग़ैर उन पर तेज़ी से चलने की है.
इसमें अचरज की बात नहीं है, क्योंकि शासक वर्ग एक सा होता है. नाम और चेहरे बदलते हैं. चरित्र वही रहता है.
सरकार पहले की तरह व्यापारिक हितों को बढ़ावा देने वाली आर्थिक वृद्धि की भावना से काम कर रही है.
सामाजिक विकास के मोर्चे पर उसकी गति ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ वाली है.
इसकी बड़ी मिसाल है स्वास्थ्य क्षेत्र. आजादी के बाद से हीस्वास्थ्य क्षेत्र भारत में उपेक्षित रहा है.
देश ने इसकी भारी कीमत चुकाई है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसी कुछेक पहल को छोड़ दें तो यूपीए सरकार में भी स्वास्थ्य क्षेत्र उपेक्षित रहा.
यह महज संयोग नहीं है कि पाकिस्तान को छोड़ दक्षिण एशिया के अन्य देशों के मुक़ाबले भारत में शिशु मृत्यु दर ऊंची और आयु प्रत्याशा कम है. इसके बावजूद नई सरकार समस्या को लेकर गंभीर नहीं है.
चूंकि अन्य संकेत अभी उपलब्ध नहीं हैं इसलिए स्वास्थ्य के मोर्चे पर नई सरकार की प्राथमिकताओं को समझने के लिए हाल के चार भाषणों पर ग़ौर करना होगा.
प्रधानमंत्री का भाषण
प्रधानमंत्री ने लाल किले से दिए अपने भाषण एक बार स्वास्थ्य का जिक्र किया.
इसमें एक संसद में दिया गया प्रधानमंत्री का पहला भाषण ( 21 मई 2014) है. दूसरा संसद को संबोधित राष्ट्रपति का (9 जून) अभिभाषण. तीसरा वित्तमंत्री का बजट भाषण (10 जुलाई). चौथा है 15 अगस्त को लाल किले से प्रधानमंत्री का भाषण.
इन भाषणों का लक्ष्य नई सरकार की नीतिगत प्राथमिकताएं गिनाना था. ऐसे में यह उम्मीद करना सही है कि स्वास्थ्य को लेकर सरकार की सोच का अंदाजा हमें इन भाषणों से मिल सकता है.
अफ़सोस इस बात का है कि इन भाषणों से कोई स्पष्ट तस्वीर उभरकर सामने नहीं आती.
पहले भाषण में स्वास्थ्य शब्द का प्रयोग सिर्फ एक बार हुआ. वह भी यह कहते हुए, ”मैं अटल जी के स्वास्थ्य के बारे में सोच रहा था. अगर उनका स्वास्थ्य अच्छा होता तो वे आज यहां हमारे साथ होते. उनकी उपस्थिति इस अवसर को पूर्ण करती.”
अटल जी के स्वास्थ्य की चिंता प्रधानमंत्री की सोच में शामिल थी, यह उनका बड़प्पन है. लेकिन मन में यह ख्याल भी आता है कि काश ! प्रधानमंत्री की चिंता का दायरा कुछ और बड़ा होता! खैर, मन को यह कहकर समझाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री के हर भाषण में हर बात शामिल हो, यह कोई जरूरी तो नहीं.
किफ़ायती इलाज़
अबराष्ट्रपति के अभिभाषण की बात. इसका एक भाग स्वास्थ्य को समर्पित था. उनका कहना था, ”देश को एक ऐसी संपूर्ण स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली की आवश्यकता है जो सर्वसुलभ, किफ़ायती और प्रभावी हो.”
यह बात तो ठीक है. लेकिन वो अपने भाषण में नई स्वास्थ्य नीति और ‘हेल्थ एश्योरेंस मिशन’ के साथ-साथ ‘योग’ और ‘आयुष’ का जिक्र भी करते हैं.
गूगल पर ”नेशनल हेल्थ एश्योरेंस मिशन” शब्द टाइप कर खोजें तो बिल्कुल पता नहीं चलता कि इस परियोजना के पीछे विचार क्या है.
एक रिपोर्ट के मुताबिक़,”स्वास्थ्य विशेषज्ञ देश भर में गुजरात मॉडल को अमल में लाना चाहते हैं.”
गुजरात मॉडल वैसे भी अपने आप में कोई बहुत स्पष्ट अर्थों वाला शब्द नहीं है. स्वास्थ्य के संदर्भ में तो यह शब्द एकदम ही रहस्यपूर्ण है.
दरअसल, गुजरात में प्रति व्यक्ति आय ऊंची होने के बावजूद वहां का स्वास्थ्य सूचकांक राष्ट्रीय औसत से बेहतर नहीं है.
स्वास्थ्य को प्राथमिकता
अब बात वित्तमंत्री के बजट भाषण की. उन्होंने कहा, ”सबके लिए स्वास्थ्य’ के लक्ष्य की ओर बढ़ने के लिए निशुल्क औषधि सेवा और निशुल्क निदान सेवा नाम के दो मुख्य उपायों को प्राथमिकता दी जाएगी.” ये उपाय उपयोगी जान पड़ते हैं.
अगर सत्ता में आने पर राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने पूर्ववर्ती सरकार की निशुल्क औषधि सुविधा को कमजोर न किया होता तो इन उपायों पर विश्वास कहीं ज़्यादा जमता.
वित्तमंत्री के भाषण में इन उपायों का विशेष ब्यौरा नहीं है. बजट का भी ज़िक्र नहीं है. उनके भाषण में एम्स परियोजना के लिए 500 करोड़ रुपए देने की बात कही गई है.
अब प्रधानमंत्री का लाल किले से दिया भाषण. संसद के पहले भाषण की तरह इस भाषण में भी ‘स्वास्थ्य’ का ज़िक्र एक बार आया.
उन्होंने कहा, ”जिन जगहों पर डॉक्टरों की कमी है. वहां अगर हम टेलीमेडिसिन का नेटवर्क कायम करें तो उन इलाक़ों में रहने वाले ग़रीब लोगों को स्वास्थ्य सुविधा प्रदान करने के तरीके के बारे में हमारे पास एक साफ दिशा-निर्देश हो सकता है."
टेलीमेडिसिन का विचार बुरा नहीं है. लेकिन इसे भारत के स्वास्थ्य-संकट का समाधान नहीं कहा जा सकता.
स्वास्थ्य नीति
अगर चारों भाषणों को एकसाथ पढ़ें तो उनसे प्रभावी अर्थ यही निकलता है कि नई सरकार के पास स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए कोई योजना नहीं है. इन भाषणों में भारत की दयनीय स्वास्थ्य सेवा के प्रति जागरुकता और उसमें तुरंत बदलाव की ज़रूरत का संकेत तक नहीं है.
इनमें हमें स्वास्थ्य सेवा के विविध प्रसंगों मसलन निशुल्क औषधि, आयुष और टेलीमेडिसिन पर छिटपुट टिप्पणियों के छींटे मिलते हैं. इनमें एक बात निरंतर मौजूद है. वह है एम्स जैसे संस्थान खोलने की. इसके लिए धन देने की बात भी कही गई है.
भारत में निश्चय ही विश्वस्तरीय सरकारी अस्पतालों की ज़रूरत है. लेकिन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को ठीक से चलाने और सरकारी स्वास्थ्य सुविधा के उपायों को बढ़ाने के बारे में सरकार की सोच क्या है?
बाकी क्षेत्रों की तरह इस मामले में भी हमारे नीति-निर्माताओं की आदत सीढ़ी पर ऊपर से चढ़ने की रही है.
कई देशों ने निशुल्क और सार्वभौम स्वास्थ्य सेवा के सिद्धांत पर चलते हुए एकीकृत स्वास्थ्य सेवा-प्रणाली का निर्माणकियाहै.
इसमें धनी देशों (अमरीका को छोड़कर) के साथ-साथ ब्राज़ील, चीन, क्यूबा, मेक्सिको, श्रीलंका, थाईलैंड सरीखी विकासशील अर्थव्यवस्थाएं भी शामिल हैं.
यदि भारत को अगले 10-20 साल में ऐसे लक्ष्य तक पहुंचना है तो इस दिशा में प्रयास अभी से करने होंगे. इसके लिए प्रतिबद्धता जरूरी है. लेकिन स्वास्थ्य के मामले में यही चीज सिरे से ग़ायब दिखती है.