मगर इनमें से अधिकांश कागजों पर ही हैं। बीते कुछ वर्षों में आम आदमी शिक्षा के प्रति जागरूक हुआ है। स्कूलों में बच्चों का पंजीकरण बढ़ा है। स्कूलों में ब्लैक बोर्ड, शौचालय, पुस्तकालय और बिजली जैसी जरूरतों से लोगों के सरोकार बढ़े हैं। लेकिन जो सबसे गंभीर मसला है कि बच्चे स्कूल तक सुरक्षित कैसे पहुंचें, इस पर न तो सरकारी तौर पर और न ही सामाजिक स्तर पर कोई विचार हो पा रहा है। परिवहन को पुलिस की ही तरह खाकी वरदी पहनने वाले परिवहन विभाग का मसला मानकर उससे मुंह मोड़ लिया जाता है। असली सवाल तो यह है कि क्या बच्चों को स्कूल आने-जाने के सुरक्षित साधन मिले हुए हैं? देश के सभी छोटे-बड़े शहरों व कस्बों के स्कूलों में बच्चों की आमद जिस तरह से बढ़ी है, उसे देखते हुए बच्चों के सुरक्षित, सहज और सस्ते आवागमन पर जिस तरह की नीति की जरूरत है, वह नदारद है। साइकिल रिक्शे पर लकड़ी की बैंच लगाकर दो दजर्न बच्चों को बिठा लेना छोटे शहरों में बहुत आम बात है।
दिल्ली जैसे शहर में तो 52 सीटों वाली बस में 80 से ज्यादा बच्चे भरे हुए आप कहीं भी देख सकते हैं। बस वाले हमेशा जल्दी में होते हैं, क्योंकि उन्हें बच्चों को छोड़कर अगली पारी को निपटाना होता है। एक जमाना था कि गांव-देहात के बच्चे कई किलोमीटर पैदल चलकर, अक्सर नदी-नाले पार करके स्कूल पहुंचा करते थे। यह एक ऐसा तथ्य है, जिसका आज भी अक्सर बहुत महिमा मंडन होता है। महिमा मंडन की यह मानसिकता भी हमें कुछ करने से रोकती है। लेकिन जब सरकार स्कूलों में पंजीयन, शिक्षा की गुणवत्ता, स्कूल परिसर को मनोरंजक और आधुनिक बनाने जैसे कार्य कर रही है, तो बच्चों के स्कूल तक पहुंचने की प्रक्रिया को निरापद बनाना भी प्राथमिकता की सूची में होना चाहिए। लेकिन यह न अभिभावकों की प्राथमिकता बन सका है, न स्कूलों की और न सरकार की।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)