गरीबी हटाने की लंबी डगर – एन के सिंह(पूर्व सांसद और पूर्व केंद्रीय सचिव)

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बजट पर संसद में हुई बहस का जवाब देते हुए इस सोच का खंडन किया है कि गरीब समर्थक और कारोबार समर्थक नीतियों में कोई फर्क होता है। उन्होंने पूरी विनम्रता से स्वीकार किया है कि उनका बजट गरीब समर्थक भी है और कारोबार समर्थक भी। यह बात लगभग उसी तरह की है, जैसे यह कहा जाए कि एक तरफ जगदीश भगवती और अरविंद पणगरिया की सोच व दूसरी तरफ अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज की सोच में कोई विरोधाभास नहीं है। अगर सरकार गरीबी दूर करने के कार्यक्रम लागू करना चाहती है, तो उसे संसाधन चाहिए, और इसके लिए विकास जरूरी है। हाल ही में भगवती और पणगरिया की किताब व्हाई ग्रोथ मैटर आई है, जिसके अनुसार ‘गरीबों की वास्तविक मदद की रणनीति एक ही है- बाजार के जरिये हुआ आर्थिक विकास और सरकार की उसे प्रोत्साहित करने वाली नीतियां।’ बदकिस्मती से भारत में गरीब समर्थक नीतियों का अर्थ होता है भारी सब्सिडी को जारी रखना। यह गरीबी दूर करने की अति-सरलीकृत रणनीति है, जिसे जन-स्वास्थ्य, शिक्षा, सफाई, सबको शौचालय की सुविधा उपलब्ध कराने जैसी चीजों के साथ जोड़कर एक विस्तृत आधार दिया जाना चाहिए।

इस बात को ज्यादातर लोग मानते हैं कि विकास गरीबी हटाने की सबसे जरूरी शर्त है, लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है। यह संसाधनों के वितरण की प्राथमिकता, विकास के तरीके, सार्वजनिक वितरण प्रणाली की गुणवत्ता और पहुंच के अलावा इस पर भी निर्भर है कि नतीजों का आकलन स्वतंत्र लेखे-जोखे से होता है कि नहीं। दूसरी तरफ, कारोबार समर्थक नीतियों का अर्थ है निजी निवेश के लिए बेहतर नियामक व्यवस्था का होना, कई पैमानों पर कारोबार करने की आसान व्यवस्था, उत्पादकता बढ़ाने की व्यवस्था और ऐसी कुशल वित्तीय सरंचनाएं, जिनसे तेज विकास दर हासिल हो सके। प्राथमिकताओं के हिसाब से विकास का अर्थ गरीबों को इससे अलग रखना नहीं होता, इसकी रणनीति तय करते समय जो बहुत सारे परस्पर विरोधी विकल्प पेश किए जाते हैं, वे अक्सर गलत विरोधाभास पर आधारित होते हैं। लेकिन जब सब्सिडी को तर्कसंगत बनाने की बहस होती है, तो उसका केंद्रीय विषय गरीबों की रक्षा करना ही होता है। साथ ही, वित्त मंत्री के शब्दों में यह सुनिश्चित करना भी होता है कि ‘यह अनगिनत लोगों को मिलने वाला अपार धन न बन जाए।’ इससे उन लोगों की पहचान का सवाल खड़ा होता है, जो वास्तव में इसके हकदार हैं।

यह पहचान स्वीकृत गरीबी की रेखा से ही की जानी चाहिए। गरीबी को अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरीके से परिभाषित किया जाता है। यूरोप के कई देशों में इसका पैमाना यह है कि अगर कोई परिवार औसत आय से 60 फीसदी कम कमाता है, तो वह गरीब है। इसका अर्थ यह है कि अगर अमीरों की आमदनी बढ़ती है, तो औसत आय बढ़ेगी और इसके साथ ही अपने आप गरीबी की रेखा भी बढ़ जाएगी। अमेरिका में इसे एक परिवार के लिए भोजन की लागत का तीन गुना रखा जाता है, महंगाई बढ़ने के साथ ही इसे नियमित रूप से बदला भी जाता है। दिलचस्प बात यह है कि दक्षिण अफ्रीकामें तीन गरीबी की रेखाएं हैं- भोजन संबंधी गरीबी रेखा, निम्न गरीबी की रेखा और ऊपरी गरीबी की रेखा। इस तर्क में दम है कि उपभोग के तरीके और जीवन स्तर में बदलाव के साथ गरीबी की रेखा में बदलाव कर दिया जाना चाहिए। लेकिन एक आशंका यह भी है कि इस तरह से बनी गरीबी-रेखा से गरीबों के स्तर में आए सुधार का आकलन ठीक से नहीं हो सकेगा।

भारत में गरीबी-रेखा परंपरागत तौर पर इस बात से तय होती रही है कि व्यक्ति को कितनी कैलोरी प्राप्त होती हैं। सबसे पहले दादाभाई नौरोजी ने 1867-68 की कीमतों पर इसका निर्धारण किया था। दांडेकर और रथ ने 1971 में पहली बार इसे व्यवस्थित रूप दिया और कहा कि प्रति व्यक्ति 2,250 किलो कैलोरी भोजन न प्राप्त करने वाला व्यक्ति गरीबी की रेखा के नीचे है। यह पैमाना ग्रामीण और शहरी, दोनों तरह के गरीबों के लिए था। भारत की पहली अधिकृत गरीबी रेखा 1979 में योजना आयोग द्वारा नियुक्त कार्यदल ने बनाई, जिसने ग्रामीण क्षेत्र के लिए 2,400 किलो कैलोरी और शहरी क्षेत्र के लिए 2,100 किलो कैलोरी को आधार बनाया। 1993 में लकड़वाला कमेटी ने कैलोरी की जगह प्रति व्यक्ति खर्च को आधार बनाने की बात की। 2009 में तेंदुलकर कमेटी ने खाद्य, ईंधन, किराया और दूसरी जरूरी चीजों को जोड़कर शहरी और ग्रामीण क्षेत्र के लिए गरीबी की रेखा तय करने की नीति बनाई।

ताजा रिपोर्ट रंगराजन समिति की है, जिसने खर्च के तरीके को कायम रखा है, साथ ही इसमें कपड़े, आवागमन व शिक्षा पर होने वाले गैर पोषण खर्च को और जोड़ दिया है। रंगराजन समिति के हिसाब से देश में गरीबों की संख्या 36 करोड़, 30 लाख यानी 29.6 फीसदी है, जबकि तेंदुलकर समिति के अनुसार देश में गरीबों की संख्या 26 करोड़, 98 लाख यानी 21.9 फीसदी है। अगर हम विश्व बैंक द्वारा बताई गई सवा डॉलर के खर्च के पैमाने को मान लें, तो यह संख्या बढ़ सकती है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत में दुनिया के एक तिहाई अतिगरीब लोग रहते हैं। कौन गरीबी-रेखा में होगा और कौन नहीं, इसे तय करना आसान नहीं है और गलतियों की काफी आशंकाएं हैं। कोई सर्वसम्मत तरीका न होने की वजह से इसकी बहस कभी खत्म नहीं होती। अगर मौजूदा तरीके को देखें, तो आय की विषमता खर्च की विषमता से कहीं ज्यादा है। राष्ट्रीय नमूना सर्वे में आय के आंकड़े नहीं जुटाए जाते, इसलिए आमदनी की विषमता मापने में कई समस्याएं आती हैं। जरूरत इस बात की है कि आमदनी और कीमत के हिसाब से आकलन किया जाए और गरीबी रेखा का फिर से निर्धारण हो।

गरीबी-रेखा का मामला काफी जटिल है। गरीबी की रेखा के कम या ज्यादा होने का सार्वजनिक वित्त पर काफी बड़ा असर पड़ता है। अगर रेखा बहुत नीचे होगी, तो गरीबी हटाने की योजना के लिए तय सब्सिडी का धन बहुत ज्यादा लोगों पर खर्च करना होगा, जिसका असर कम होगा। इसी तरह, सब्सिडी का लाभ मिलना तब भी असंभव हो जाएगा, अगर हम इसे गरीबी की रेखा से अलग कर दें, जैसे हमने अभी इसे खाद्य, ईंधनऔरउर्वरक के मामले में किया हुआ है। इसके लिए व्यावहारिक और स्वतंत्र आकलन होना चाहिए, ताकि सब्सिडी के खर्च को तर्कसंगत बनाया जा सके। इसके लिए अच्छा तरीका यही है कि एक समझदारी भरी गरीबी-रेखा बने और उसी आधार पर सरकार सब्सिडी का लाभ उन तक पहुंचाए। शिक्षा, कुपोषण, बाल मृत्यु-दर, स्वच्छ पेयजल की सुविधा जैसे पैमानों पर प्रगति का देश का रिकॉर्ड गरीबी हटाने के दावों से मेल नहीं खाता। इसका अर्थ है कि देश में सामाजिक और आर्थिक बेहतरी का मेल नहीं बैठ सका है। ऐसा तरीका, जो खानपान की बदलती आदतों को न पहचान पाए, सही नहीं होगा।

हमें जीवन स्तर को जीवन-यापन से आगे मानव आत्मसम्मान तक ले जाना है। बेहतर इन्फ्रास्ट्रक्चर, बेहतर वितरण प्रणाली, और नकदी मदद की बेहतर तकनीक से बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। इन सबके लिए हमें ज्यादा विकास और कारोबार की जरूरत होगी, ताकि राजस्व बढ़े, जीवन स्तर सुधरे और कौशल पर आधारित ज्यादा रोजगार दिए जा सकें। यह एक लंबा रास्ता है, जिसका कोई शॉर्टकट नहीं है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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