इस चिट्ठी में मोदी ने दुख जताया था कि "खाद्य सुरक्षा का अध्यादेश एक आदमी को दो जून की रोटी भी नहीं देता."
खाद्य-सुरक्षा के मामले पर लोकसभा में 27 अगस्त 2013 को बहस हुई तो उसमें भी ऐसे ही मनोभावों का इज़हार हुआ.
तब भारतीय जनता पार्टी के कई नेताओं ने इसको ऊँट के मुंह में ज़ीरा डालने की क़वायद कहा था.
इन बातों के भुला दिए जाने की एक वजह है इनका सामाजिक नीति विषयक उस कथा-पुराण से बेमेल होना जिसे मीडिया ने गढ़ा है.
यह कथा-पुराण कई भ्रांतियों को एक में समेटकर बना है.
एक, कि राज्यसत्ता के रूप में भारत अपने नागरिकों के लिए "नानी का घर" बनता जा रहा है, सामाजिक मद में सरकार दोनों हाथ खोलकर धन लुटा रही है जो ज्यादा दिन नहीं चलने वाला.
दो, कि सामाजिक मद में होने वाला ख़र्च ज्यादातर बर्बाद जाता है – यह एक "भीख" की तरह है और भ्रष्टाचार तथा प्रशासनिक निकम्मेपन की वजह से ग़रीब तबक़े को हासिल नहीं होता.
तीन, कि इस भारी-भरकम फिजूलख़र्ची के पीछे उन पुरातनपंथी नेहरूवादी समाजवादियों का हाथ है जिन्होंने यूपीए शासनकाल में देश को ग़लत राह पर धकेल दिया.
चार, कि मतदाताओं ने इस रवैए को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया है, लोग वृद्धि (ग्रोथ) चाहते हैं, अधिकार नहीं.
और, पांचवीं भ्रांति कि भाजपा नेतृत्व वाली सरकार ने इन नादानियों को दुरुस्त करने और लोक-कल्याणकारी राज्य के पसारे को समेटने का मन बना लिया है.
ये पाँचों दावे बार-बार दोहराए जाने के कारण सच जान पड़ते हैं लेकिन वो दरअसल निराधार हैं. आइए, इन दावों की एक-एक जाँच करें.
तथ्य और गप्प
यह कहना कि भारत में सामाजिक मद में किया जाने वाला ख़र्चा बहुत ज़्यादा है एक चुटकुले जैसा है.
वर्ल्ड डेवलपमेंट इंडिकेटर्स (डब्ल्यूडीआई) के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, "सबसे कम विकसित देशों" के 6.4 प्रतिशत की तुलना में भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा के मद में सरकारी ख़र्चा जीडीपी का महज़ 4.7 प्रतिशत, उप-सहारीय अफ्रीकी देशों में 7 प्रतिशत, पूर्वी एशिया के देशों में 7.2 प्रतिशत तथा आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीसीडी) के देशों में 13.3 प्रतिशत है.
एशिया डेवलपमेंट बैंक की एशिया में सामाजिक-सुरक्षा पर केंद्रित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत इस मामले में अभी भी बहुत पीछे है.
रिपोर्ट के अनुसार भारत में सामाजिक सहायता के मद में जीडीपी का महज 1.7 फीसद हिस्सा ख़र्च होता है, जबकि एशिया के निम्न आय-वर्ग की श्रेणी में आने वाले देशों में यह आंकड़ा 3.4 प्रतिशत, चीन में 5.4 प्रतिशत और एशिया के उच्च आय-वर्ग वाले देशों में 10.2 प्रतिशत है.
जाहिर है, भारत सामाजिक मद में फिजूलख़र्ची नहीं बल्कि कमख़र्ची का चैंपियन है.
ख़र्च की कथित बर्बादी
सामाजिक मद में होनेवाला ख़र्च बर्बाद जाता है, इस विचार का भी कोई वस्तुगत आधार नहीं हैं.
आर्थिक विकास के लिए लोगों के जीवन में बेहतरी और शिक्षा को जन जन तक पहुंचाने की क्या अहमियत है ये आर्थिक शोधों मेंसाबित हो चुका है.
केरल से लेकर बांग्लादेश तक, सरकार ने जहां भी स्वास्थ्य के मद में हल्का सा ज़ोर लगाया है वहां मृत्यु-दर और जनन-दर में कमी आई है.
भारत के मिड डे मील कार्यक्रम के बारे में दस्तावेजी साक्ष्य हैं कि इससे स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति, उनके पोषण और तथा पढ़ाई-लिखाई की क्षमता पर सकारात्मक प्रभाव हुआ है.
मात्रा में बहुत कम ही सही लेकिन सामाजिक सुरक्षा के मद में दिया जाने वाला पेंशन लाखों विधवाओं, बुज़ुर्गों और देह से लाचार लोगों की कठिन जिंदगी में मददगार साबित होता है.
ग़रीब परिवारों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) आर्थिक सुरक्षा का एक महत्वपूर्ण ज़रिया बन चला है. बिहार और झारखंड जैसे राज्यों जहां पीडीएस बड़ा खस्ताहाल हुआ करता था, में भी इसका लाभ हुआ है.
यह बात ठीक है कि सामाजिक सुरक्षा के मद में होने वाले ख़र्चे में कुछ अपव्यय होता है कुछ वैसे ही जैसे कि विश्वविद्यालयों में.
लेकिन इन दोनों ही मामलों में समाधान पूरी व्यवस्था को खत्म करने में नहीं बल्कि उसे सुधारने में है और इस बात के अनेक साक्ष्य हैं कि ऐसा किया जा सकता है.
भारत में सार्वजनिक सेवाओं और सामाजिक सुरक्षा के हुए विस्तार से नेहरूवादी समाजवाद के अतीतमोह का कोई खास लेना-देना नहीं.
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ऐसा होना स्वाभाविक ही है. बड़े पैमाने पर ऐसा ही विस्तार बीसवीं सदी में सभी औद्योगिक देशों में हुआ था (संयुक्त राज्य अमेरिका आंशिक तौर पर इस प्रक्रिया का अपवाद है).
ऐसा साम्यवादी विचारधारा के देशों में भी हुआ भले ही वजह कुछ और रही. कई विकासशील देश, खासकर लातिनी अमरीका और पूर्वी एशिया के देश हाल के दशकों में ऐसी ही अवस्था से गुज़रे हैं.
भारत के केरल और तमिलनाडु जैसे राज्य, जहां वंचित तबक़े की तनिक राजनीतिक गूंज है, ऐसी ही प्रक्रिया से गुज़रे हैं.
हार का कारण
ऐसे में सवाल यह है कि क्या यूपीए चुनाव इसलिए हारी क्योंकि मतदाता "भीक्षादान" के इस चलन से उकता चुके थे?
यह धारणा कई कारणों से असंगत है. एक तो यही कि "भीक्षादान" इतना था ही नहीं कि उससे उकताहट हो.
यूपीए ने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम की शुरुआत ज़रूर की लेकिन यह साल 2005 की बात है और इससे यूपीए को बाधा नहीं पहुंची बल्कि 2009 के चुनावों में फ़ायदा ही हुआ.
इसके बाद से यूपीए ने सामाजिक क्षेत्र में नीतिगत तौर पर कोई बड़ी पहल नहीं की सिवाय राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा अधिनियम के जिसपर अमल होना अभी शेष है.
साल 2014 के आते-आते यूपीए सरकार के पास अपने पक्ष में कहने के लिए बहुत कम रह गया था. जबकि ऐसी बहुत सारी चीज़ें थीं जिसके लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता था.
बहरहाल, चुनाव में धन, संगठन और भाषणबाजी, ये तीन चीज़ें बड़े काम की साबित होती हैं और बीजेपी के पास ये तीन चीज़ें मौजूद थीं.
ऐसे में क्या अचरज है कि हर दस में से तीन मतदाता ने उसे एक मौक़ा देने का फैसला किया?
जहां तक पांचवें बिन्दु का सवाल है, इस बात के कोई प्रमाण नहीं कि सामाजिक-कल्याण की योजनाओं को समेटना बीजेपीकेमुख्य एजेंडे में शामिल है.
जैसा कि इस आलेख में ऊपर जिक्र आया है, बीजेपी के नेताओं ने राष्ट्रीय खाद्य-सुरक्षा अधिनियम को और भी ज्यादा महत्वाकांक्षी बनाने की मांग की थी.
स्वर्गीय गोपीनीथ मुंडे ने ग्रामीण विकास मंत्री का पदभार संभालते ही इस अधिनियम को अपना समर्थन ज़ाहिर किया था.
स्पष्टता की जरूरत
सभी बातों के बावजूद ऐसे सामाजिक कार्यक्रमों के संभावित प्रतिकूल प्रभाव होने के संकेत मिलते हैं.
कॉरपोरेट जगत के मन में सामाजिक मद में होने वाले खर्चे को लेकर हमेशा वैरभाव रहता है क्योंकि उसके लिए इसका मतलब होता है ऊँचे टैक्स, ब्याज-दर में बढ़ोत्तरी या फिर व्यवसाय के बढ़ावे के लिए मिलने वाली छूट का कम होना.
कारपोरेट लॉबी यूपीए के जमाने में ही प्रभावशाली हो चुकी थी. यह लॉबी अब और भी जोशीले तेवर में है कि सरकार की कमान उनके आदमी यानी नरेन्द्र मोदी के हाथ में है.
कारोबार जगत की ख़बरों से ताल्लुक रखने वाले अख़बारों के संपादकीय पर सरसरी निगाह डालने भर से ज़ाहिर हो जाता है कि वे सामाजिक क्षेत्र में भारी "सुधार" की उम्मीद से भरे हैं.
सामाजिक नीति के कथा-पुराण की वास्तविकता यही है.
रचनात्मकता की ज़रूरत
कहने का आशय यह नहीं कि स्वास्थ्य, शिक्षा तथा सामाजिक-सुरक्षा के मद में रचनात्मक सुधार की ज़रुरत नहीं है.
स्कूली भोजन में अंडा देने की बात अथवा सार्वजनिक वितरण प्रणाली को कंप्यूटरीकृत करने या फिर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में निशुल्क दवा देने की बात – बीते दस सालों का एक अदद सबक तो यही है कि सार्वजनिक सेवाओं को सुधारा जा सकता है.
लेकिन ये छोटे-छोटे क़दम तभी शुरू हो पाते हैं जब यह माना जाए कि ग़रीब की जिंदगी में सरकारी सामाजिक सहायता का बुनियादी महत्व है.
नई सरकार के लिए अगामी बजट इन मुद्दों पर अपना रुख स्पष्ट करने का एक अवसर है.
अगर सामाजिक नीतियां विवेक-सम्मत ना हुईं तो फिर ‘ग्रोथ-मैनिया’ के बूते नयी सरकार पिछली सरकार की अपेक्षा ज़्यादा कुछ नहीं कर सकती.