इन आम चुनावों में गुजरात सरकार पर बार-बार आरोप लगाया जा रहा है कि उसने पूंजीपतियों को कौड़ियों के मोल जमीन बांट दी है। इसमें व्यक्ति विशेष का उल्लेख किया जा रहा है, परंतु यह नहीं बताया जा रहा कि राज्य सरकार की नीति ही है कि उद्योगों को प्रोत्साहन देने के लिए औद्योगिक इकाइयों को इसी दर पर जमीन दी जाए। यदि आवंटन में और आवंटन शुल्क में पक्षपात हुआ है तो यह प्रशासनिक त्रुटि व अपराध है, पर यह आरोप नहीं लगाया गया है।
यदि हम गुड़गांव में मारुति उद्योग के जमीन आवंटन के प्रकरण को खोलें तो उसमें पाया जाएगा कि भूमि प्रायः निःशुल्क दी गई है, क्योंकि शासन की नीति थी और है कि औद्योगीकरण के लिए राज्य शासन उदार हो। आलोचना तो उस वक्त भी हो सकती थी, परंतु तब तो इंदिरा गांधी की तारीफ हुई कि उनकी सरकार ने भारत में मोटर वाहन उद्योग को इतना प्रोत्साहन दिया है कि जहां एक ओर हिंदुस्तान मोटर्स और प्रीमियर ऑटोमोबाइल्स का एकछत्र राज समाप्त हुआ, वहीं दूसरी ओर उत्कृष्ट मोटर वाहन निर्मित हुए और रोजगारों में उछाल आया।
यह उदाहरण इसलिए दिया जा रहा है, क्योंकि गुजरात सरकार की नीतियों की आलोचना करने से पहले इस बात को समझने की आवश्यकता है कि शासन औद्योगीकरण के लिए सस्ती दर पर जमीन क्यों आवंटित करता है।
यह स्थिति केवल भाजपाशासित प्रदेशों की नहीं है। पश्चिम बंगाल में वामपंथी सरकार ने हल्दिया के विकास के लिए उद्योगों को प्रायः निःशुल्क भूमि दी थी।
यही स्थिति दुर्गापुर, आसनसोल, बर्धमान इत्यादि की भी थी। सिंगूर में तो टाटा उद्योग को तत्कालीन वाम मोर्चा सरकार ने जमीन अधिग्रहीत करके दी थी। मैं इस नीति को दोषपूर्ण नहीं मानता और वास्तव में बंगाल अभागा है कि ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री बनते ही इस निर्णय को बदला, टाटा ने अपना नैनोमोटरकार बनाने का कारखाना गुजरात में स्थापित किया, जिससे वहां रोजगार बढ़ा और आर्थिक रूप से व नए रोजगारों के सृजन की दृष्टि से बंगाल घाटे में रहा।
गुजरात में धीरूभाई अंबानी समूह को जामनगर इत्यादि में जमीन कांग्रेस के शासन के दौरान माधव सिंह सोलंकी व अमर सिंह चौधरी सरकार ने अपनी नीति के आधार पर सस्ती दर पर आवंटित की। रिलायंस समूह ने जामनगर में विश्व का सबसे बड़ा तेलशोधन संयंत्र स्थापित किया। क्या यह गलत था? हां, यदि वे जमीन लेने के बाद उसका विकास भू-माफिया की तरह करते तो अंबानी और सरकार दोनों ही दोषी माने जाते। परंतु उद्योग स्थापित करके स्थायी रोजगार में जो वृद्धि की गई, उसे देखते हुए तो शासन की नीति का स्वागत किया जाना चाहिए।
यह सही है कि चुनावों में आरोप-प्रत्यारोप लगते हैं और विरोधियों की आलोचना भी की जाती है। पर यह आलोचना नीतिगत होना चाहिए, व्यक्तिगत नहीं। इस संबंध में मैं पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य के बर्ताव की ओर ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा।
वामपंथ की नीति एवं उसकी तत्कालीन सरकार की गतिविधियों के आधार पर बुद्धदेव भट्टाचार्य बोलते हैं। वे किसीको भला-बुरा नहीं कहते। यहां तक कि ममता बनर्जी द्वारा उन पर और उनके दल पर इतना प्रहार करने के बावजूद बुद्धदेव भट्टाचार्य ने नतो कभी अपना संयम खोया है और न ही ममता बनर्जी के बारे में किसी भी प्रकार की अवांछनीय भाषा का उपयोग किया है। अर्थात उन्होंने शालीनता और सभ्यता का रास्ता अपनाया है।
उद्योग-धंधों या किसी भी अन्य मुद्दे पर एक-दूसरे की टांग खींचने वाले हमारे अन्य राजनीतिक दल क्या इससे कोई सबक सीखने को तैयार हैं? तू-तू, मैं-मैं का मजा तो एक घड़ी के लिए हम सब ले सकते हैं, पर चुनाव एक अत्यंत ही गंभीर मामला है, जिसके माध्यम से हम अगले पांच साल के लिए देश का भविष्य उस दल को सौंपने जा रहे हैं, जो भारत पर शासन करेगा।
यदि इस प्रक्रिया में भी हमारे दल गंभीर नहीं हुए तो क्या सुशासन कायम हो सकता है? निर्वाचन आयोग ने मतदाताओं से अपील की है कि वे अधिक से अधिक संख्या में मतदान करें। मेरा भी लोगों से निवेदन है कि वे मतदान के जरिए नेताओं और दलों को यह पैगाम पहुंचाएं कि यदि वे मर्यादाओं को भूले और मुद्दों को दाएं-बाएं करने की कोशिश की तो मतदाता उन्हें सबक सिखाने से बाज नहींआएगा।
(लेखक पूर्व प्रशासनिक अधिकारी हैं। यह उनके निजी विचार हैं)