भारतीय राजनीति और अर्थव्यवस्था पर नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री
अमर्त्य सेन की राय सबसे जुदा होती है। इन दोनों में वह मानव विकास के
मायने ढूंढ़ते हैं। नई सरकार की चुनौतियों व संभावनाओं और मौजूदा सरकार की
उपलब्धियों तथा खामियों पर उनसे ललिता पणिकर और गौरव चौधरी ने विस्तृत
बातचीत की। बातचीत के अंश-
आर्थिक मंदी के बीच नई सरकार की क्या प्राथमिकताएं होनी चाहिए?
कुछ लंबे समय के मुद्दे होते हैं और कुछ कम समय के। कम समय के मुद्दों में
आर्थिक सुधार शामिल हैं, जो कभी-कभी दीर्घकालीन नीतियों को बदले बगैर करना
आसान नहीं होता। कम समय में हमें सहायक कारक खड़े करने की जरूरत होती है,
जिसमें उच्च विकास दर और कम महंगाई दर शामिल हैं। मुझे लगता है कि ये
प्रबंधन के मुद्दे ज्यादा हैं और कुछ हद तक ये सब हो रहे हैं। मुश्किल
अंतरराष्ट्रीय हालात में भी बाकी दुनिया की तुलना में भारत उतना बुरा नहीं
कर रहा है। हालांकि, बहुत कुछ और किया जा सकता है। दूसरी बात, मध्यम अवधि
की प्राथमिकताओं में भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया में स्पर्धात्मक स्तर
पर लाना महत्वपूर्ण है। अब भी लाइसेंस-राज बच गया है, जिसे हटाया जाना
चाहिए। तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण बात, लंबे समय के मुद्दों पर गौर अभी से
होना चाहिए। ढांचागत रूप में भारतीय अर्थव्यवस्था बहुत कमजोर है, क्योंकि
हम वह करने की कोशिश कर रहे हैं, जिसे कोई दूसरा देश नहीं कर पाया। हम
अशिक्षित श्रम शक्ति और अव्यवस्थित स्वास्थ्य सुविधा-तंत्र के साथ उच्च
आर्थिक दर को पाने की कोशिश कर रहे हैं। लंबे समय की आर्थिक वृद्धि और सतत
विकास के लिए स्वस्थ, शिक्षित श्रम शक्ति से अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं।
क्या नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा सरकार इन समस्याओं को दूर कर पाएगी?
मानव विकास के मामले में गुजरात सरकार के रिकॉर्ड अच्छे नहीं रहे हैं। मैं
कई चीजों में गुजरात का बड़ा प्रशंसक हूं। न केवल मोदी के नेतृत्व में,
बल्कि उनके भी पहले से गुजरात ने बहुत कुछ किया है। लेकिन उसकी बेहतर
उपलब्धियों में मानव विकास शामिल नहीं है। साक्षरता दर, शिशु मृत्यु दर और
स्वास्थ्य सेवाओं के विस्तार के मामले में गुजरात मामूली ही रहा है। कुछ हद
तक अंतर इससे पड़ेगा कि कौन गठबंधन साझेदार हैं और कुछ हद तक इस पर कि
क्या भाजपा पुनर्विचार करती है। हर वक्त बिजली रहने, सड़क की हालत सुधरने
जैसी चीजों के लिए उन्हें श्रेय देने के कारण हैं।
आलोचक कहते हैं कि हमारी सब्सिडी व्यवस्था खराब और गैर-जिम्मेदार है?
मैं सहमत हूं। लेकिन हम उसके सही स्वरूप को पहचाने बिना समस्या का हल नहीं
कर सकते। मीडिया ने यह गलत छवि बनाई है कि खाद्य सुरक्षा कानून के जरिये
गरीबों को भोजन और ग्रामीण गरीबों को रोजगार देने की कोशिश में सरकार
गैर-जिम्मेदार रही है। कुल जमा, खाद्य सुरक्षा और नरेगा पर खर्च हमारी
जीडीपी की एक फीसदी से थोड़ा अधिक है। दूसरी तरफ, अमीरों के लिए ऊर्जा और
ईंधन सब्सिडी और उवर्रक सब्सिडी जीडीपी की 2.63% से कुछ अधिक बैठती है।
क्या मौजूदा समस्याओं में मोदी जैसा मजबूत नेतृत्व भारत के लिए मददगार होगा?
मजबूत नेतृत्व किसीभी तरह का हो सकता है। विश्व इतिहास में मजबूत नेतृत्व
कई बार दिखा है। मैं किसी का नाम नहीं लूगा, क्योंकि तत्काल कहा जाएगा कि
मैं किसी और से मोदी की तुलना कर रहा हूं। दरअसल, मैं यह बताने की कोशिश कर
रहा हूं कि मजबूत नेतृत्व अपने आप में एक गारंटी नहीं है। शिक्षित नेतृत्व
भी एक मुद्दा है। 1860 के दशक में मीजी पुनरुद्धार के दौरान जापानी
नेतृत्व इस पर सहमत था कि सबसे पहले आबादी को सुशिक्षित बनाना होगा। 1870
से 1905 के बीच इसे हासिल किया गया। यही चीज कोरिया, ताईवान, थाईलैंड में
हुई और अब इंडोनेशिया में हो रही है। और हां, नाटकीय रूप से चीन में भी।
हमें संसाधनों की अधिक सुपुर्दगी के साथ बेहतर संगठन की जरूरत है।
आप मनमोहन सिंह की विरासत को कैसे देखते हैं?
वह कई उपलब्धियों के लिए याद रखे जाएंगे। इसमें 1990 के दशक में लाए गए
आर्थिक सुधार भी शामिल हैं। काफी समय तक उच्च विकास दर का श्रेय उनको जाता
है। यह कहना हास्यास्पद है कि यह सब राजग सरकार की उपलब्धियों की निरंतरता
है। वह अन्य कई उपलब्धियों के लिए भी याद किए जाएंगे, जैसे कि भारत को
पोलियो मुक्त देश बनाना। उनके समय में एड्स के प्रति जागरूकता फैली। सरकार
कैटरीना से भी बड़े चक्रवाती तूफानों को रोकने में सक्षम रही। समय रहते
इलाके को खाली करने से बेहद कम जिंदगियों का नुकसान हुआ। शिक्षा, स्वास्थ्य
सेवा, रोजगार सृजन, पोषण वृद्धि में कई अच्छे कदम उठाए गए। वह कामयाब न भी
हुए, पर उनके इरादे काफी साफ थे। कई लोग उन्हें इस मामले में एक दुखी
शख्सियत के तौर पर याद रखेंगे कि वह भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए काफी कुछ
करना चाहते थे। इसे हासिल करने के लिए उनके पास राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं
थी, फिर भी वह खुद भ्रष्टाचार से दूर रहे।
कहा जा रहा है कि आर्थिक सफलताओं के बावजूद बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की स्थिति इस चुनाव में अच्छी नहीं है.?
वह शायद चुनाव नहीं जीतें, पर इसका यह मतलब नहीं कि नीतीश कुमार जो पाने की
कोशिश कर रहे हैं, उसमें वह नाकाम हो गए। बिहार की आर्थिक विकास दर देश
में सबसे ज्यादा है। जो पाने की कोशिश कर रहे थे, उसमें वह बहुत कुछ पा
चुके हैं। स्कूल और अस्पताल पहले से काफी बेहतर हुए हैं। उन्हें जातिगत
राजनीति पर सफलता पाने की उम्मीद की थी। यह संभव नहीं हो पाया। मुझे लगता
है कि उनमें प्रधानमंत्री बनने के गुण हैं।