आंबेडकर नगर सिर्फ इतना पूछ रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से वोटिंग मशीन के अंत में जो एक नया बटन दिया गया है, उसका मतलब क्या है? मैं जब भी वोट डालने जाता हूं, लगता है कि लोकतंत्र की सर्जक इस मशीन को मशीन कम और दोस्त ज्यादा लगना चाहिए। कुछ ऐसा किया जा सकता है कि यह मशीन हमारी कला और संस्कृति की भी थोड़ी झलक देती हो! कुछ ज्यादा कल्पनाशीलता से इसका रूप-स्वरूप तय करना चाहिए। भारतीय संविधान की मूल प्रति के पन्नों का अलंकरण जब कलागुरु नंदलाल बोस से करवाया गया था, तब हमें होश था कि यह किताब मशीन से नहीं बनी है, भारतीय संस्कार और कला का स्पर्श इसे मिलना ही चाहिए। हमारा वह सावधान सोच कहां खो गया?
मुझे सबसे अखरता है इसका वह आखिरी बटन, जिसका नाम सोचने में भी आयोग ने लोकतंत्र का विचार नहीं किया! किसी सरोकारविहीन नौकरशाह ने इसे ‘नोटा’ कह दिया, जो सुनते ही एक गहरी नकारात्मकता का भाव पैदा करता है। नन आॅफ द एबव- तो मतलब यह कि राजनीतिक दलों ने जितने उम्मीदवार चुने और चुनाव आयोग ने जिन्हें तकनीकी मान्यता दी, मतदाता को अगर वे सभी अयोग्य लगते हैं तब उसकी मदद में आने वाला बटन! मदद के लिए तो दोस्त ही आगे आता है। फिर क्यों न इसे सखा (सभी खारिज!) कहें और राजनीतिक दलों को यह सीधा संदेश दें कि अगर वे ऐसा उम्मीदवार नहीं चुनते हैं, जिसे मतदाता अपना दोस्त समझ सके तो आप मतदाता को लाचार न समझें। उसकी मदद में आने वाला एक ‘सखा’ हमने उसे दे दिया है! लेकिन ऐसी लोकतांत्रिक संस्कृति हमारे मन में उगती ही नहीं। एक रेगिस्तान है, जो बंजर को ही विस्तार देता है।
कानपुर के बाहरी इलाके में आता है आंबेडकर नगर, जिसे हम कानपुर का कूड़ाघर भी कह सकते हैं। विकास का गुजरात मॉडल हो कि अमेठी मॉडल, दोनों को बहुत बड़ा कूड़ाघर चाहिए होता है- डंपिंग ग्राउंड!
कानपुर के औद्योगिक विकास, चर्म उद्योग का सारा कचरा जहां फेंका जाता है, उसे मायावती सरकार ने नाम दिया आंबेडकर नगर! यह आंबेडकर के नामका वैसा ही राजनीतिक इस्तेमाल है जैसा नरेंद्र मोदी सरदार पटेल का करते हैं। डंपिंग ग्राउंड की हर कुरूपता से अटा पड़ा है आंबेडकर नगर। यहां पिछले तीस वर्षों से रह रहे तीन सौ से ज्यादा परिवारों के पास बिजली के खंभे हैं, लेकिन बिजली नहीं है, नालियां खुली पड़ी हैं, सड़क जैसी कोई चीज नहीं है। बारह फीसद घरों में पीने का पानी कभी-कभार आता है- जब भी आता है, उसकी उम्र पंद्रह मिनट होती है। शौचालय जैसी कोई अवधारणा भी यहां नहीं है। 1999 से श्रीप्रकाश जायसवाल यहां के प्रतिनिधि बन कर संसद में जाते हैं, जो हमारे कोयलामंत्री रहे हैं और कोयले की दलाली में जो होता है वही उनके साथ भी हुआ है।
इस बार आंबेडकर नगर के लोगों ने तय किया कि वे ‘सखा’ या ‘नोटा’ बटन दबाएंगे। वे उन सबको खारिज करना चाहते थे, जो इनका वोट तो चाहते हैं, लेकिन इन्हें नहीं चाहते। जो इनके प्रतिनिधित्व का दावा कर दिल्ली में अपने लिए सारी सुविधाएं जुटाते हैं, लेकिन इनके लिए जीने भर का साधन भी नहीं जुटाते! ‘सखा’ दबाना वोट न डालना नहीं, बल्कि अस्वीकार की आवाज उठाते हुए वोट डालना है। चुनाव की प्रक्रिया में ही मतदाताओं के हाथ में ऐसा कोई हथियार दिया जाना चाहिए, जिससे वे महसूस करें कि वे राजनीतिक दलों की आपसी जोड़-तोड़ के निरुपाय दर्शक भर नहीं हैं। राजनीतिक दल भी सावधान हों कि मतदाताओं के हाथ में एक ऐसा चाबुक है, जिसे फटकार कर वे कभी भी उनका खेल बिगाड़ सकते हैं।
इस बटन की मांग के पीछे समझाव-मनाव-दबाव की लंबी कहानी है। अंतत: चुनाव आयोग की पहल से नहीं, अदालत के आदेश से, पिछले वर्ष नवंबर-दिसंबर में हुए विधानसभा चुनावों में इस बटन को पहली बार जगह मिली। पर न अदालत और न आयोग ने ही इसकी जरूरत समझी कि मतदाताओं को ठीक से समझाया जाए कि यह नया बटन उन्हें क्या-क्या अधिकार देता है और इसे दबाना वोट न देना या अपना वोट रद्द करवाना नहीं, बल्कि बड़ी मजबूती से वोट देना है! इस बटन के पैरोकारों ने इस बारे में खासी स्पष्टता रखी थी, लेकिन उनकी बात का तकनीकी पक्ष स्वीकार करने से आगे न आयोग बढ़ा, न न्यायालय!
मगर आयोग के ही आंकड़े एक अजीब कहानी कहते हैं। जिन पांच राज्यों में, 2013 में विधानसभा के चुनाव हुए, उनमें करीब पंद्रह लाख मतदाताओं ने यह बटन दबाया। राजधानी दिल्ली में, जहां आम आदमी पार्टी के रूप में उनके सामने एक नया विकल्प भी था, वहां 49,730 मतदाताओं ने ‘सखा’ बटन दबाया।
छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश
में, जहां भारतीय जनता पार्टी अपनी लगातार तीसरी जीत का जश्न मनाते नहीं थकती, क्रमश: 3.56 लाख और 5.9 लाख मतदाताओं ने ‘सखा’ बटन दबाया। राजस्थान में 5.67 लाख मतदाताओं ने ऐसा ही किया। इसका मतलब क्या निकाला जाए? यही न कि इस बटन पर हमारे मतदाताओं का भरोसा बन रहा है।
हर संवैधानिक व्यवस्था की तरह प्रातिनिधिक लोकतंत्र भी कई आंतरिक विरोधों से घिरता गया है। चुनाव-प्रक्रिया की शुरुआत से ही एक सवाल खड़ा होने लगा था कि चुनावों को पैसा, डंडा, गुंडा, जाति, संप्रदाय आदि की पकड़सेकैसे बाहर लाया जाए और कैसे ऐसा हो कि हर स्तर पर चुना गया प्रतिनिधि अपने मतदाताओं के प्रति जवाबदेह हो। जयप्रकाश नारायण ने दो बातें रखी थीं: पार्टियों को उम्मीदवारों के चयन में मतदाताओं की राय लेनी चाहिए, और कोई ऐसी व्यवस्था भी बननी चाहिए कि चुनाव जीतने के बाद भी सांसदों-विधायकों पर मतदाता का अंकुश रहे। इसमें से ही यह परिकल्पना निकली कि चुनाव की मशीन में एक बटन ऐसा भी हो, जिसे दबा कर मतदाता बता सके कि पार्टियों ने जितने भी उम्मीदवार खड़े किए हैं, उनमें से कोई भी उसे योग्य नहीं लगता।
वर्षों पहले एक चुनाव याचिका की सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने भी स्वीकार किया कि उम्मीदवारों के चयन में ‘पॉप्यूलर कंसल्टेशन’ की जयप्रकाशजी की मांग बहुत सही थी। लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि इस परिकल्पना को आधा-अधूरा लागू करना, इसकी संभावनाओं को पूरी तरह खत्म करना है।
इस बटन की सार्थकता तभी बनेगी जब आयोग यह भी बताएगा कि जिस पार्टी के उम्मीदवार को एक निश्चित फीसद से कम वोट मिलेंगे, उसका चुनाव रद््द हो जाएगा। हालंकि आज भी निश्चित फीसद से कम वोट मिलने पर उम्मीदवार की जमानत जब्त हो जाती है। मतलब बात पैसों पर आकर खत्म कर दी गई है। इससे पार्टियों या उम्मीदवारों पर कोई दबाव नहीं बनता। इसलिए पार्टियां लोकतंत्र पर कुठाराघात करने वालों को विधानसभा या लोकसभा में भेजते नहीं हिचकतीं; बाहुबलियों को जीत की गारंटी माना जाता है और वोटकटवा या डमी उम्मीदवार खड़े किए जाते हैं। स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि वोटिंग मशीन में जितने नाम दर्ज नहीं हो सकते, उतने लोग एक निर्वाचन क्षेत्र से खड़े हो रहे हैं।
बनारस लोकसभा क्षेत्र का क्रमांक है 77 और यहां से खड़े हैं 77 उम्मीदवार, जबकि चौरानबे लोगों ने उम्मीदवारी का पर्चा खरीदा था। क्या यह लोकतंत्र के मजबूत होने का प्रमाण है या इस बात का कि चुनाव-प्रक्रिया बाजार में नीलामी के लिए खड़ी कर दी गई है? अगर दूसरी बात सही है तब चुनाव आयोग को कैसे नींद आ सकती है कि पैंतीस सौ करोड़ रुपए के खर्च से, फौज-पुलिस के अंधाधुंध इस्तेमाल से वह जो चुनाव करवा रहा है, उसका आधार ही इतना खोखला है! इसलिए ‘सखा’ बटन को तेज दांत देने की जरूरत है, ताकि जरूरत पड़ने पर वह काट सके।
करना यह होगा कि जिन्हें निश्चित फीसद से कम वोट मिलेंगे, न सिर्फ उनके चुनाव रद््द होंगे, उनकी जमानत जब्त होगी, बल्कि अगले दो चुनाव तक वे उम्मीदवार भी नहीं बन सकेंगे। तब पार्टियों को सावधान रहना होगा कि बेईमानी के इरादे से उम्मीदवार खड़ा किया तो उस पर आगे के लिए रोक लग जाएगी। ऐसी स्थिति बन सकती है कि पार्टियों के पास उम्मीदवारों का टोटा पड़ जाएगा। दूसरी तरफ यह व्यवस्था भी हो कि अगर लगातार दो चुनावों में, किसी निर्वाचन क्षेत्र से किसी पार्टी को निश्चित फीसद से कम वोट मिले तो वह उस चुनाव क्षेत्र से तीसरे चुनाव में उम्मीदवार खड़ा नहीं कर सकेगी। अगर ऐसा हुआ तो पार्टियों को उम्मीदवारों के चयन में इसका ध्यान रखना ही होगा कि उनकी अपने मतदाताओंपर इतनी पकड़ तो हो ही कि वे अल्पतम वोट के शिकंजे में न फंस जाएं, क्योंकि इससे उम्मीदवार भी मारा जाएगा और पार्टी भी!
तीसरी स्थिति यह बनेगी कि अगर किसी निर्वाचन क्षेत्र में ‘सखा’ बटन ही सबसे ज्यादा दबाया गया तो वहां का चुनाव रद््द हो जाएगा और दोबारा चुनाव होंगे। तब सारी पार्टियों को नए उम्मीदवारों के साथ चुनाव में उतरना होगा, क्योंकि पुराने सारे उम्मीदवारों को मतदाता ने खारिज कर दिया था। आज भी ऐसा होता है, लेकिन तभी जब बोगस वोटिंग का व्यापक आरोप सिद्ध हुआ हो या जहां उम्मीदवार की मृत्यु हो जाए। उम्मीदवार ही नहीं, लोकतंत्र की मृत्यु भी होती हो तो चुनाव रद््द होने चाहिए। आज की चुनावी व्यवस्था में इतना जोड़ दिया जाए तो दलों को मर्यादित करने, चुनाव-खर्च पर अंकुश रखने और मतदाता की भूमिका को सशक्त करने में काफी मदद मिलेगी।
यहां तक आयोग पहुंचे तो इसके आगे के दो जरूरी कदमों के लिए समाज को तैयार करने का काम शुरू करना होगा- प्रतिनिधि वापसी का अधिकार और लोक-उम्मीदवार की दिशा में जाने की तैयारी! संसदीय लोकतंत्र की पोशाक गंदी हो चली है। इसे धोकर नया करने की जरूरत है। ‘सखा’ इतनी संभावनाओं के साथ हमारी मशीन पर आ गया है। अब जरूरत है कि आयोग इन संभावनाओं को सिद्ध करने की शुरुआत करे। आंबेडकर नगर के सवालों का जवाब यहां से शुरू होता है।