खेती-किसानी के मुद्दे गायब हैं चुनाव से- महक सिंह

चुनाव के दौरान सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद और व्यक्तिवाद की बातें की जा
रही हैं, पर गांव, खेती और 54 प्रतिशत जनता के मुद्दे गौण हैं। कृषि
क्षेत्र में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), पूंजी निर्माण और कृषि निर्यात
लगातार घटते जा रहे हैं। 1950-51 में जीडीपी में कृषि की भागीदारी 53.1
प्रतिशत थी, जो 2012-13 में घटकर 13.7 प्रतिशत रह गई। गांव-शहर तथा
किसान-गैर किसान के बीच खाई बढ़ती जा रही है। 45 फीसदी किसान खेती छोड़ना
चाहते हैं। 2005 से 2012 तक 3.7 करोड़ किसान खेती छोड़ चुके हैं, 50 प्रतिशत
से अधिक किसान कर्ज में डूबे हैं और बड़ी संख्या में किसान आत्महत्या कर
चुके हैं।

उत्तर पश्चिमी भारत में कॉरपोरेट घराने नकदी खेती के लिए
बड़े-बड़े फॉर्म स्थापित कर मशीनों से खेती करने में लगे हैं, जिससे लाखों
किसान विस्थापित हो रहे हैं। पिछले एक दशक में कॉरपोरेट घरानों ने 22.7
करोड़ हेक्टेयर भूमि पर खेती शुरू की है। वे छोटे खेतों की अपेक्षा बड़े
फॉर्मों पर मशीन और दूसरे साधनों से खेती करना लाभप्रद समझते हैं। एक
हेक्टेयर से कम 61.1 प्रतिशत जोत वाले किसान मजबूरी में जमीन बेच रहे हैं।
विदेशी कंपनियां भी किसान और उपभोक्ताओं का दोहन कर रही हैं। परंपरागत
बीजों को नष्ट करने में भी इनका बड़ा हाथ है।

बैंकों की कृषि संबंधी
नीतियां, लागत की तुलना में समर्थन मूल्य में कम वृद्धि, सिंचाई की
अपर्याप्त सुविधा, प्राकृतिक प्रकोप, उद्योग और शहर के नाम पर जमीन
अधिग्रहण और कृषि क्षेत्र का असंगठित होना इस क्षेत्र की बड़ी समस्याएं
हैं। आधुनिक खेती के कारण मिट्टी, पानी, जलवायु और जैव विविधता संकट में
है। पेयजल, फल व सब्जियां विषैली हो गई हैं। जलवायु परिवर्तन से कृषि
उत्पादन में कमी देखने को मिली है। बीटी कपास के बाद दूसरी जीएम फसलों को
अनुमति देने के प्रयास किए जा रहे हैं। जैविक एवं टिकाऊ खेती को प्रोत्साहन
नहीं दिया जा रहा।

उचित बाजार व्यवस्था, भंडारण और वितरण के अभाव
में किसान अपने उत्पाद समर्थन मूल्य से कम पर बेचने को विवश हैं। भारतीय
खाद्य निगम की भंडारण क्षमता में वृद्धि नहीं की गई है। किसानों को उनके
उत्पादों का जो मूल्य मिलता है, बिचौलिये उसका सौ से तीन सौ प्रतिशत लाभ
उठाते हैं। उर्वरक, बीज व डीजल के मूल्य लगातार बढ़ रहे हैं। कृषि शिक्षा,
अनुसंधान व विस्तार में कम बजट आवंटित किया जा रहा है। फसलों के लाभकारी
मूल्य को उत्पादन लागत से डेढ गुना करने की सिफारिश ठंडे बस्ते में डाल दी
गई है। खेती के साथ पशुपालन, मत्स्य पालन, कुक्कुट व मधुमक्खी पालन पर
ध्यान नहीं दिया जा रहा। किसानों को चार फीसदी ब्याज पर ऋण उपलब्ध कराना और
फसल बीमा पॉलिसी में आवश्यक परिवर्तन करने की आवश्यकता है। समाज के अन्य
वर्गों की तरह किसानों की निश्चित आय का भी प्रावधान होना चाहिए।

चुनाव
प्रचार में एक-दूसरे पर जितनी छींटाकशी की जा रही है, विकास पर उतनी बातें
नहीं हो रहीं। कुछ पार्टियां घोषणापत्र में किसानों को उत्पादन लागत से
डेढ़ गुना मूल्य देने का वायदा तो करती हैं, पर सत्ता में आने पर लागत से कम
कीमत पर किसानों को अपने उत्पादन बेचने के लिए मजबूरकर देती हैं। उत्तर
प्रदेश में सपा और भाजपा के शासनकाल में गन्ना मूल्य इसका स्पष्ट उदाहरण
है। भाजपा ने जीएम फसलों पर प्रतिबंध लगाने का वायदा किया, पर राजनाथ सिंह
ने कृषि मंत्री रहते हुए बीटी कपास को उगाने की स्वीकृति दी थी।

राजनीतिक
दलों का यही रवैया रहा, तो खेती-किसानी बर्बाद हो जाएगी। आज चौधरी चरण
सिंह जैसा किसानों का कोई रहनुमा नहीं रह गया है। अपना प्रतिनिधि चुनते हुए
किसान जाति, धर्म और क्षेत्रवाद छोड़ेंगे, तभी खेती को बचाया जा सकेगा।

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