कई साल पहले दुनिया के बच्चों की स्थिति का आकलन करते हुए यूनिसेफ ने कहा
था कि बच्चे वोट नहीं दे सकते, इसलिए कोई उनकी समस्याओं पर ध्यान नहीं
देता। अब जब आम चुनाव सामने है, तो इसे अच्छी तरह समझा जा सकता है। सारे दल
दलितों, महिलाओं, पिछड़ों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए
लगभग हर रोज कुछ-न-कुछ कह रहे हैं, मगर वे बच्चों और किशोरों को भूल गए
हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग की
चेयरपर्सन कुशल सिंह ने सभी प्रमुख दलों के नेताओं को चिट्ठी लिखी है। आयोग
का कहना है कि बच्चों के लिए बनाई गई नीतियां अक्सर लागू नहीं हो पातीं।
बच्चों के कल्याणकारी कार्यक्रमों की योजना और उन्हें लागू करने की बात
नेता लोग अपने-अपने दलों के घोषणापत्रों में शामिल करें। आयोग ने अपने पत्र
में नेताओं से मांग की है कि वे बच्चों की मुफ्त व अनिवार्य शिक्षा, बाल
विवाह की रोकथाम, यौन अपराधों से उन्हें बचाने तथा बाल मजदूरी को खात्म
कराने की मुकम्मल व्यवस्था करें।
कुशल सिंह का कहना है कि विधानसभा चुनावों से पहले भी ऐसा पत्र लिखा गया
था, मगर किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। किसी नेता का कोई जवाब आयोग को आज
तक नहीं मिला। चुनाव के समय आयोग की इस पहल को समझने के लिए हमें बच्चों के
लिए बने पिछले कुछ कानूनों को देखना होगा। हम बाल मजदूरी रोकने का कानून
बना चुके हैं, लेकिन आपको हर जगह बच्चे मजदूरी या कोई-न-कोई काम करते दिख
जाएंगे। इसी तरह, शिक्षा का अधिकार कानून भी बच्चों के लिए है। लेकिन क्या
सचमुच आज सभी बच्चे पढ़ पा रहे है? बच्चों के लिए कानून अगर बने भी, तो
उन्हें ईमानदारी से लागू करने की बड़ी कोशिश कहीं नहीं दिखती। यह भी सच है
कि दुनिया के ज्यादातर विकासशील देशों में यही होता है। इसलिए इन मसलों पर
नेताओं का सहयोग और बच्चों के प्रति उनकी संवेदना बेहद जरूरी है, जिससे
बच्चे बहुत सारी बुराइयों और तकलीफों से बाहर आ सकें। उनका जीवन कुछ आसान
हो सके और वे भविष्य में बेहतर नागरिक बन सकें। यही नहीं, भ्रूण हत्या,
महिला-पुरुषों के अनुपात में असंतुलन और बाहर से आए कामगारों के बच्चों की
सामाजिक सुरक्षा भी ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। क्योंकि
ये सभी बातें किसी-न-किसी रूप में बच्चों को प्रभावित करती हैं।
प्रवासी मजदूरों के बच्चे अक्सर पढ़ने नहीं जा पाते, क्योंकि वे अपने छोटे
भाई-बहनों की देखभाल करते हैं या घरेलू काम निपटाते हैं अथवा माता-पिता
उन्हें छोटी उम्र में ही किसी काम पर लगा देते हैं। इन सारी संवेदनाओं से
राजनीतिक दलों और नेताओं को जोड़ने के अलावा यह भी जरूरी है कि इनसे
अभिभावकों को भी जोड़ा जाए, उन्हें इसके प्रति सचेत किया जाए। बच्चे वोटर
नहीं हैं, पर उनके अभिभावक तो हैं।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)