यह दुखद सच्चाई पिछले दिनों एक सर्वेक्षण के जरिये सामने आई कि भारत अनपढ़
वयस्कों की सर्वाधिक आबादी वाला देश है। आंकड़ा बताता है कि अनपढ़ों की यह
जनसंख्या उन्तीस करोड़ को छूने जा रही है। इससे अधिक चिंता का विषय और क्या
होगा कि पूरी दुनिया की अनपढ़ आबादी का 37 फीसदी हिस्सा उस भारत में है,
जो अपने आप को विश्व गुरु मानता रहा है, और जिस देश के बारे में कहा जाता
है कि वहां सभ्यता सबसे पहले आई। यूनेस्को की रिपोर्ट में शैक्षिक असमानता
की जो चिंताजनक तस्वीर इन आंकड़ों में उभरती है, वह निराश ही अधिक करती है।
मरणासन्न प्राथमिक शिक्षा इतनी लाइलाज दिख रही है कि गरीब युवतियों को
शिक्षित कर पाने में उतना ही समय और लगने की बात कही जा रही है, जितना समय
देश को आजाद हुए हो चुका है! तब भी यह लक्ष्य पूरा हो ही जाएगा, इसकी कोई
गारंटी नहीं है। इसके लिए सरकारों ने आखिर कौन-सी पहल की है, जो आश्वस्त
करे?
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि भारत में संभ्रांत युवतियों
की शिक्षा वैश्विक स्तर की है। इसका मतलब यह कि आजादी का लाभ उन लोगों को
नहीं मिला, जो अमीर नहीं हैं। यानी आर्थिक गैरबराबरी आजादी के साढ़े छह दशक
बाद न सिर्फ कायम है, बल्कि शिक्षा पर उसका असर चौंकाता है। प्राथमिक
शिक्षा की ऐसी बदहाली के पीछे हमारे नीति-नियंताओं का उदासीन रवैया
जिम्मेदार है। आजादी के शुरुआती दशकों में दलित उत्पीड़न, अशिक्षा और गरीबी
हटाने के प्रश्न पर नेतागण कहते थे कि अभी आजाद हुए समय ही क्या हुआ है,
धीरे-धीरे सब दुरुस्त हो जाएगा। लेकिन अब तो साढ़े छह दशक बीत चुके हैं।
सबके शिक्षित होने के लिए और कितना इंतजार करना पड़ेगा?
होना तो यह
चाहिए था कि सरकार शिक्षा को अपने एजेंडे में सबसे ऊपर रखती। आर्थिक रूप से
ताकत बनने का सदुपयोग सबको शिक्षित करने में करती। इसके बजाय आर्थिक
उदारीकरण की नीतियों के अनुरूप उसने शिक्षा के क्षेत्र में निजी क्षेत्र के
लिए दरवाजे पूरी तरह खोल दिए। गली-गली में निजी स्कूल खुल गए, जो अध्ययन
का स्तर तो नहीं बढ़ा पाए, हां, गरीब लोगों को भी शिक्षा के लिए खर्च करने
के प्रति इन स्कूलों ने जरूर प्रेरित किया। यहां शिक्षा के क्षेत्र में
निजी संस्थाओं का प्रवेश विगत डेढ़ दशक में जितनी बड़ी तादाद में हुआ है,
उतना पिछले पचास वर्षों में नहीं हुआ। शिक्षा व्यवस्था को निजी हाथों में
सौंपकर सरकारें व्यवसायियों का तो भला कर सकती हैं, परंतु इससे देश के
जनसामान्य, दलित और आदिवासियों का भला नहीं हो सकता। सर्वेक्षण बताता है कि
किसी भी सरकार ने प्राथमिक शिक्षा को लेकर अपने दायित्व का निर्वाह नहीं
किया है। खासकर निर्धन, दलित और आदिवासी समाज को शिक्षित करने की
जिम्मेदारी नहीं निभाई गई। एक समर्थ देश होने की भारत की क्षमता का पूरा
इस्तेमाल नहीं हुआ है।
ज्यादा उम्मीद दलित और पिछड़े वर्ग के नेताओं
से थी। लेकिन उन्होंने कांग्रेस और भाजपा जैसी मुख्यधारा की पार्टियों से
भी अधिक निराश किया। सच तो यह है कि दलित और पिछड़े वर्ग के नेता जातिगत
समीकरणों का लाभउठाकर सत्ता में आते हैं, सेवा के दम पर नहीं। यह चौंकाने
वाला तथ्य है कि प्राथमिक शिक्षा के लिए कभी किसी दलित या पिछड़े वर्ग के
नेता ने आंदोलन नहीं किए, न ही जेल गए। और स्वयं सत्तासीन हुए तो प्राथमिक
शिक्षा से आंखें मूंद कर बैठ गए।
जहां तक प्राथमिक शिक्षा की बदहाली
का हाल है, तो वह उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात और पंजाब जैसे
राज्यों में ज्यादा है। उत्तर प्रदेश की सपा सरकार उत्सवों में तो दिल
खोलकर खर्च करती है, लेकिन प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में उसका भी रिकॉर्ड
उल्लेखनीय नहीं। प्राथमिक शिक्षा की बदहाली का एक कारण भ्रष्टाचार भी है।
नियुक्तियों के मामले में भी भ्रष्टाचार कम घातक नहीं। शिक्षकों की
नियुक्तियों में असंगत अर्हताएं तो मायावती की बसपा सरकार के समय से ही चली
आ रही हैं। हरियाणा में शिक्षकों की नियुक्ति में हुआ भ्रष्टाचार भला कौन
भूल सकता है! यूनेस्को की यह रिपोर्ट हमारे लिए शर्मनाक होनी चाहिए और
गंभीर विचार का अवसर भी।