इलाज अब धंधा बन गया है. और इस धंधे को चलाने का सबसे बेहतर जरिया
नर्सिग होम. लिहाजा, धड़ाधड़ खुल रहे नर्सिग होम का मकसद बेहतर मेडिकल
सुविधा देना नहीं, बल्कि धन अजिर्त करना रह गया है. पैसा बनाने की भूख ने
इस पेशे को विकृति की हद तक पहुंचा दिया है.
सांसत में पड़ी मरीज की जान की कीमत ऐसे नर्सिग होम में खूब वसूल की
जाती है. बाजार की शक्ल ले चुके इस कारोबार की अंदरुनी दुनिया में छल-कपट,
जालसाजी, धोखाधड़ी, फरेब और अविश्वास से पग-पग पर मुठभेड़ होना आम अनुभव
है. हालांकि, सभी ऐसे नहीं हैं. यह जान कर हैरानी होगी कि दवा की दुकान
खोलने के लिए जहां कई किस्म की प्रक्रियाएं हैं, वहीं नर्सिग होम के लिए
कोई कायदा-कानून नहीं है.
यहां डॉक्टर का रजिस्ट्रेशन ही काफी है. नर्सिग होम कहीं भी, कभी भी और
किसी भी जगह खोल सकता है. लेकिन, अब सिस्टम की नींद टूटी है. नर्सिग होम के
लिए नये पैरामीटर के साथ क्लिनिकल एटैब्लिशमेंट एक्ट लागू किया गया है. यह
एक्ट कितना कारगर होगा, यह वक्त बतायेगा. पर, प्रभात खबर ने नर्सिग होम के
कारोबार की अंदरुनी दुनिया के बारे में समझने की कोशिश की.
अस्पताल से मिले दर्द की पांच कहानियां
ईश्वर न करे, आपको कभी कोई गंभीर बीमारी हो और आपको नर्सिग होम में भरती
होना पड़े. बिहार के छोटे शहरों से लेकर राजधानी तक जिस तरह नर्सिग होम और
निजी अस्पताल का धंधा एक संगठित कारोबार के रूप में उभरा है, उसमें एक
मध्यमवर्गीय परिवार के लिए इलाज मुश्किल है. यहां हम ऐसी पांच घटनाएं
प्रस्तुत कर रहे हैं, जो यह बताने के लिए काफी हैं कि कैसे बीमारी के नाम
पर डर पैदा कर वसूली की जाती है. ये घटनाएं सच्ची हैं, बस पहचान छुपायी गयी
है.
कहानी 1 :
बड़े नर्सिग होम में पापा को रखा, चार लाख खत्म नहीं बची जिंदगी
मेरे पापा की तबियत अचानक खराब हो गयी. वे गिर पड़े थे. रात का वक्त था.
हम परिवार के लोग बेहद घबरा गये. जल्दबाजी में एंबुलेंस बुलाया. पापा को
लेकर हम बोरिंग रोड में एक नर्सिग होम पहुंचे. हम वहां पहुंचे ही थे कि
मेडिकल असिस्टेंट मेरे पापा को अपने घेरे में ले चुके थे.
उनमें से एक ने कहा कि यह ब्रेन हेमरेज का केस है. आइसीयू में लेकर
भागो. वे लिफ्ट के सहारे आइसीयू की ओर बढ़ चले. हम काफी घबराये हुए थे. हम
भी सीढ़ियों से पीछा करते हुए आइसीयू के सामने थे. परिवार के हम सभी लोगों
की धड़कनें तेज थीं और सबके सब तेज सांस ले रहे थे.
डॉक्टर तेज कदमों से आइसीयू की ओर भागे. शुरुआती मिनटों में उन्हें लाइफ
सेविंग ड्रग्स दिये गये. थोड़ा इत्मीनान होने के बाद तरह-तरह के टेस्ट
किये गये. एमआरआइ से लेकर ब्लड कल्चर तक. इसके पहले बेड पर ही बीपी और
इसीजी की जांच हो चुकी थी. मगर हम अब तक सामान्य नहीं हो पाये थे. पापा के
भरती होने के बाद से अगले कुछ घंटे में हमारी जेब से करीब 80 हजार रुपये
निकल चुके थे. मुझे अब लगता है कि पापा की बीमारी से पैदा हुए तनावसे तो
हम जूझ ही रहे थे, पैसे को लेकर हमारे दिमाग पर दबाव बना हुआ था.
अगले चार दिनों में हमारे तीन लाख रुपये खर्च हो चुके थे. हमारे बैंक
एकाउंट में एक पैसा भी नहीं बचा था. दूसरों के आगे हाथ फैलाने के अलावा
हमारे पास कोई दूसरा उपाय नहीं था. हमें इस बात का अहसास था कि पैसों का
जुगाड़ नहीं किया गया, तो हमें अपने पापा को खोना पड़ेगा. इसका ख्याल आते
ही पैसा देने वालों की मन ही मन में तलाश शुरू हो जा रही थी.
हमने अपने परिचितों, रिश्तेदारों से संपर्क किया. उनसे पैसे मांगे. पापा
की हालत के बारे में बताया. अगले दो दिनों में हम करीब साढ़े तीन-चार लाख
रुपये का प्रबंध कर पाने में कामयाब हो सके थे. तीन लाख रुपये पहले ही निकल
चुके थे.
पैसे खर्च होने के साथ पापा के ठीक होने की उम्मीदें नये सिरे से पनप
रही थीं. पर पांचवें दिन हमारी सारी उम्मीदें धरी की धरी रह गयीं. पापा की
तबियत खराब होने लगी. आइसीयू में फिर हलचल का अहसास हुआ. मेडिकल असिस्टेंट
और डॉक्टरों की चहलकदमी बढ़ गयी थी. ऑक्सीजन की पाइप लगायी गयी. फटाफट
इंजेक्शन की शीशियां तोड़ी जा रही थीं. उस पल की याद आते ही हम पसीने से
तर-बतर हो जाते हैं. थोड़ी ही देर में हमारे सामने डॉक्टर खड़े थे.
उन्होंने कहा : सॉरी. हम नाकाम रहे.
डॉक्टर के ये शब्द सुनते ही मेरा भाई जोर-जोर से रोने लगा. मेरी मां को
जैसे काठ मार गया. वह बूत बने खड़ी थीं. मेरी आंखों से लगातार आंसू निकल
रहे थे. अगले ही पल हमने खुद को अपने परिजनों के साथ रोते-चीखते पाया.
पापा नहीं रहे. हमारे ऊपर करीब चार लाख का कर्ज चढ़ चुका था. पापा के
गुजरने के बाद अब हमारे सामने बड़ी चुनौती कर्ज को उतारने की है. इससे
मुक्ति पाने में न जाने कितने साल लगेंगे और दुख से भी.
कहानी 2 :
थानेदार ने सुलह करायी, तब महिला को मिली अस्पताल से छुट्टी
पटना बाइपास पर हाल ही में खुले एक नर्सिग होम के बाहर सड़क के बिल्कुल
किनारे चुकूमुकू बैठे तीन लोगों को देखा. उनके चेहरे के भाव बता रहे थे कि
वे भारी कष्ट में हैं. उदासी और चिंता में डूबी आंखें. तीनों ने मुंडन करा
रखा था.
हम उनके करीब गये. बोले : हमें एक रोगी को दिखाना है. यहां कैसा इलाज होता है?
-इहां एकदम नहीं फंसिएगा भाई साहब.
-क्यों, क्या हुआ?
-पूरा पटना छोड़कर ई बाइपासे आपको दिखा है?
-मेरा घर बाइपास पर ही.
-लेकिन मेरा मानना है कि इहां इलाज कराना ठीक नहीं रहेगा?
-क्यों?
-बता दो जी. वह अपने साथ खड़े एक व्यक्ति की ओर इशारा करते हैं.
मुंडन कराये एक नौजवान हमारे करीब आता है. वह कुछ बोलने से ङिाझक रहा
था. हमने उसे भरोसा दिलाया कि हम नर्सिग होम वाले नहीं हैं. हमें वाकई इलाज
कराना है. हमारा भरोसा पाने के बाद उसने बताना शुरू किया-
हमारा घर अरवल में है. मैं लुधियाना में एक कपड़ा फैक्टरी में काम करता
हूं. मेरी वाइफ को बच्च होना था. गांव पर रहने वाले मेरे बड़े भाई मेरी
/>
पत्नीको लेकर पीएमसीएच आ रहे थे. गेट पर किसी दलाल ने उन्हें पकड़ लिया.
बोलने लगा कि यहां इलाज मत कराओ. यहां जिंदगी का कोई ठिकाना नहीं.
पैसा भी ज्यादा लग जायेगा. इससे क्या फायदा? हमलोग मरीजों की सेवा के
लिए यहां खटते हैं. इसी दौरान दलाल के कुछ और लोग वहां आ गये. बातचीत के
दौरान ही मेरी पत्नी को टांग कर एक दूसरे एंबुलेंस में डाल दिया गया.
एंबुलेंस खुल गया. कुछ ही पल में पत्नी को बाइपास के एक नर्सिग होम
पहुंचा दिया गया. यह बात 24 दिसंबर की है. उसी शाम ऑपरेशन किया गया. इसके
पहले नर्सिग होम वालों ने 25 हजार रुपये जमा कर लिये थे. ऑपरेशन हुआ. बच्च
नहीं रहा. नर्सिग होम वालों ने दावा किया कि बच्च पहले ही मर चुका था. मेरा
वह पहला बच्च था. बीते साल ही शादी हुई थी. यह बताते हुए उस नौजवान की आंख
भर जाती हैं. उनके साथ के लोगों की भी आंखें भर जाती हैं. बच्चे को हमने
उधर खेत में गाड़ दिया. क्या करते?
-हमने पूछा : तो अब आपलोग घर क्यों नहीं जाते?
-कईसे जायें. क्लिनिक वाला छोड़ नहीं रहा है.
-क्यों?
-मेहरारू बेड पर है और वे लोग पइसा मांग रहे हैं. कह रहा है कि हिसाब
में 26 हजार और देना होगा. हम इतना पइसा कहां से लायेंगे? जैसे-तैसे जुगाड़
कर दस-बारह हजार का इंतजाम हुआ है.
-तो बात क्यों नहीं कर रहे हैं कि इतना ही पैसा है?
-किससे करूं बात? क्लिनिक के मालिक अभी आये नहीं हैं. स्टाफ लोग कह रहे
हैं कि अभी आ जायेंगे. सुबह नौ बजे से हम बैठे हैं. अब दो बजने जा रहा है.
उनके साथ आया एक नौजवान हिम्मत कर सीनियर एसपी से बात करता है. वह अपनी
आपबीती बताता है. सीनियर एसपी उसे अपने कार्यालय बुलाते हैं. वह कुछ लोगों
के साथ सीनियर एसपी से मुलाकात कर सब बात बता देता है. सीनियर एसपी संबंधित
थानेदार को फोन कर देते हैं.
शाम में पीड़ित परिवार के लोग थाने पहुंचते हैं. वहां उनकी बात सुनने
वाला कोई नहीं था. उस नौजवान ने फिर हिम्मत की. वह सीनियर एसपी को दोबारा
फोन मिलाता है. दो-तीन कोशिशों के बाद उसकी सीनियर एसपी से बात हुई. वह
थाने के अनुभव बताता है. सीनियर एसपी दोबारा थानेदार को फोन करते हैं.
थानेदार इस मामले में बीच का रास्ता अख्तियार करने के पक्ष में थे. पर
बात सीनियर एसपी तक पहुंच गयी थी, सो वह पीड़ित परिवार को लेकर सीधे नर्सिग
होम पहुंच गये. देर शाम तक तय हुआ कि पीड़ित परिवार के लोग नौ हजार रुपये
जमा कर दें, तो महिला को जाने देने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी. नौ
हजार जमा करने के बाद रात नौ बजे महिला अपने परिजनों के साथ एक दूसरे
नर्सिग होम में दाखिल हो जाती है. अगले तीन दिनों तक वहां रहने के बाद उसका
टांका कटता है.
कहानी 3 :
पटना में हो रहा था हार्ट का ऑपरेशन, दिल्ली में दवा देकर भेज दिया
यह मुजफ्फरपुर के कमलेश यादव की आपबीती है. घर में शादी का माहौल था.
बिटिया की शादी कादिन तय हो गया था. इसी भागदौड़ में उनकी तबियत बिगड़
गयी. उन्होंने अपनी तकलीफ के बारे में स्थानीय डॉक्टर को बताया. डॉक्टर ने
आरंभिक जांच के बाद सलाह दी कि उन्हें पटना में दिखाना चाहिए. उनका बीपी
बढ़ा हुआ था. तकलीफ हार्ट को लेकर थी. स्थानीय डॉक्टर कोई रिस्क नहीं लेना
चाहते थे.
परिजनों ने भी डॉक्टर का सुझाव मान लिया. वे भागे-भागे पटना पहुंचे. पर
किसी भरोसे के सरकारी अस्पताल में जाने के बदले एक निजी अस्पताल के चक्कर
में फंस गये. पटना के कंकड़बाग इलाके के एक निजी अस्पताल में वह भरती हो
गये. वहां तत्काल डॉक्टर ने उनकी एंजियोग्राफी समेत तमाम तरह के टेस्ट
कराये.
रिपोर्ट देखने के बाद कहा : हार्ट में क्रोनिक ब्लॉकेज है. तुरत बाइपास
करना पड़ेगा, नहीं तो पेशेंट की जान को खतरा है. यह सुन कमलेश यादव के
परिजन सकते में थे. तत्काल ब्लॉकेज को दूर करने के लिए आपरेशन नहीं कराया
गया तो जान पर खतरे की आशंका थी.
घर में शादी की तारीख को देखते हुए बड़े भाई ने जानना चाहा: क्या
तीन-चार माह के लिए ऑपरेशन को टाला जा सकता है. डॉक्टर ने कहा- बिल्कुल
नहीं. जिस हिसाब का ब्लॉकेज है उसमें किसी तरह की देरी ठीक नहीं. देरी होने
से मरीज की जान भी जा सकती है.
डॉक्टर की बात सुनने के बाद हमलोगों ने तय किया कि क्यों न दिल्ली में
ही ऑपरेशन कराया जाये. मैंने यह बात डॉक्टर को बतायी. इसपर उन्होंने कहा :
आप दिल्ली में ऑपरेशन कराना चाहते हैं तो कोई बात नहीं. मैं वहां के एक
अच्छे अस्पताल में बात कर लेता हूं और जाने की भी व्यवस्था कर देता हूं.
डॉक्टर की हमदर्दी ने हमें सतर्क कर दिया. हमने डॉक्टर साहब को थैक्स कहा
और उन्हें यह भी बताया कि हम कुछ और एक्सपर्ट से बात कर फैसला करते हैं.
मै अपने बेटे और बड़े भाई के साथ मेदांता पहुंचा. वहां के डॉक्टर ने
मुझे देखा, कुछ टेस्ट कराये. रिपोर्ट देखने के बाद कहा : आपको दिल की कोई
बीमारी नहीं है. सिर्फ बीपी बढ़ा हुआ है. इसके बाद वहां के डॉक्टर ने दो
दवाइयां लिखीं, जिसे मैं आज भी ले रहा हूं. मुझे आज तक कोई भी दिक्कत नहीं
हुई. इस तरह मैं बाइपास से बच गया. शुक्र है.
कहानी 4 :
आइसीयू में रख बुखार का इलाज, खर्च आया 1.32 लाख
हम गोपालगंज के एक गांव के रहने वाले हैं. हाल ही में मेरी फुआ की तबियत
खराब हो गयी. पेट फुल गया था और बुखार आ रहा था. पटना में मैंने अपने एक
परिचित डॉक्टर से फुआ की बीमारी को लेकर बात की. वह मूल रूप से सजर्न हैं.
उन्होंने आश्वस्त किया कि वह अपने फीजिशियन और गैस्ट्रो के मित्र डॉक्टरों
से दिखवा देंगे.
उधर, फुआ को स्कार्पियों पर लाद कर लाया जा रहा था. उनके साथ घर के दो
और लोग भी थे. गोपालगंज से पटना तक रास्ते में स्कॉर्पियो के ड्राइवर ने
उन्हें समझाया कि पटना के एक नर्सिग होम में चलते हैं. गांव के बगल का एक
आदमी उसी नर्सिग होम मेंकाम करताहै.
देर शाम फुआ जी पटना पहुंच गयीं. हम उनका इंतजार कर रहे थे. मोबाइल पर
उनके लड़के ने बताया कि हम एक नर्सिग होम में दाखिल हो गये हैं.
रजिस्ट्रेशन का 5000 रुपया जमा कर दिया गया है. मां को आइसीयू में भरती
कराया गया है.
हम वहां पहुंचे. तब तक कई किस्म की जांच शुरू हो चुकी थी. तब तक एक
फीजिशियन और गैस्ट्रो के डॉक्टर आकर उन्हें देख चुके थे. दोनों ने 300-300
रुपये फीस लिया. दवा का अलग से और जांच का पैसा भी अलग से. पहले ही दिन
करीब 10000 रुपये खर्च हो गये.
जांच में पाया गया कि फुआ जी को पथरी है. डॉक्टरों ने कहा कि जब तक
बुखार नहीं उतर जाता है, तब तक ऑपरेशन करना मुनासिब नहीं रहेगा. उन्हें 12
दिनों तक आइसीयू में रखा गया. यानी केवल आइसीयू में बुखार का इलाज होता
रहा. करीब 90000 रुपये हम दे चुके थे.
12 वें दिन डॉक्टरों ने कहा कि अब नाम कट जायेगा. हम खुश हुए. काउंटर पर
गये. वहां बिल मिला, तो हमारे नीचे की जमीन खिसक गयी. बिल एक लाख 32 हजार
रुपये का था. जहां-तहां से पैसा जुगाड़ा गया. सारा पैसा चुकता करने के बाद
हम फुआ को लेकर निकल पड़े, गांव जाने के लिए. करीब महीने भर के बाद उनके
पथरी का ऑपरेशन हुआ. उस पर कुल 28 हजार रुपये खर्च हुए. पथरी का ऑपरेशन उसी
नर्सिग होम में हुआ, जहां पहले मेरी फुआ जी भरती थीं. यह नर्सिग होम पटना
बाइपास पर है.
कहानी 5 :
दलाल के चक्कर में पड़ पहुंचे नर्सिग होम, चंदा कर इलाज कराया
पटना के इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान में एक मरीज आता है. उसे पेट
में दर्द की शिकायत है. उसके साथ आये परिजनों में से एक संस्थान के
रजिस्ट्रेशन काउंटर पर लंबी लाइन में लगा है. उसके ठीक पीछे एक आदमी खड़ा
है. वह यानी दलाल मरीज के परिजन से बातचीत का सिलसिला शुरू करता है.
-कहां से आये हैं?
-सीतामढ़ी से.
-किस चीज की बीमारी है, भाई जी?
-पेट में दर्द है.
-पेशेंट कहां है?
-उधर बैठे हैं.
-कौन हैं आपके?
-चाचा हैं.
-उमर क्या है?
-इहे 60-65.
-तो इहां काहे आ गये? यहां पेट का अच्छा डॉक्टर नहीं है. पैसा और परेशानी अलग से. आप कहिए तो हम आपकी मदद कर सकते हैं.
-क्या कर सकते हैं?
-किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा सकता हूं. हम भी अपने मरीज को बाहर ले जा
रहे हैं. हम पैसा रिफंड करने के लिए खड़े हैं. आप जाइए, पूछ के आइए. बाहर
दिखाना है?
-मरीज का परिजन लाइन से निकलने में ङिाझकता है. दलाल कहता है कि वह उसकी
जगह पर खड़ा है. परिजन थोड़ी देर में लौटकर आता है और बाहर दिखाने पर
सहमति जताता है.
इंदिरा गांधी आयुर्विज्ञान संस्थान से मरीज, उसके परिजन और दलाल सभी एक
ऑटो से एक नर्सिग होम के लिए निकल पड़ते हैं. वहां मरीज को डॉक्टर देखते
हैं. जांच लिखी जाती है. मरीज के परिजनों से 25 हजार रुपये जमा कराये जाते
हैं. मरीज को कुछ दवाएं लेने को कहा जाता है. अगले दिन बताया जाता है कि
गॉल ब्लाडर में पथरी है. अब उसका ऑपरेशन कराना पड़ेगा. लेकिन ऑपरेशन के लिए
और 25हजार रुपये जमा करने पड़ेंगे.
मरीज के परिजनों के पास पैसे नहीं थे. उनके सामने भारी मुश्किल पैदा हो
जाती है. परिजन एक बड़े सरकारी अस्पताल में काम करने वाले अपने परिचित से
संपर्क करते हैं. उन्हें अपना हाल बताते हैं.
सरकारी अस्पताल में काम करने वाले परिचित उसी अस्पताल में पदस्थापित
सजर्री के डॉक्टर को इस केस के बारे में बताते हैं. वे मदद का आग्रह भी
करते हैं. डॉक्टर बगैर पैसा लिये ऑपरेशन करने को तैयार हो जाते हैं. लेकिन
ऑपरेशन के लिए सामान वगैरह पर दस हजार का खर्च था. यह पैसा भी देने में
पीड़ित परिवार असमर्थ था.
पीड़ित परिवार के परिचित अपने और कुछ दोस्तों को इस मामले के बारे में
बताते हुए चंदा इकट्ठा करते हैं. दस हजार रुपये का प्रबंध हो जाने पर मरीज
को नर्सिग होम से लाकर उसके गॉल ब्लाडर का ऑपरेशन किया जाता है.