गौरी लंकेश हत्याकांड के बारे में कई चीजें हैं। एक, वे शक्तिशाली वैचारिक नेता थीं। धुर वाम-उदार विचारधारा की निर्भीक तर्कवादी थीं। दो, नियमित रूप से उन्हें दी जाने वाली धमकियों के बाद भी साहस के साथ अपनी बात कहती थीं। तीन, जैसाकि ध्रुवीकृत वातावरण में होता है, उनसे सहमत होने वाले पूरे जुनून से उनके साथ थे। जो असहमत होते वे इस वैचारिक अखाड़े की दूसरी ओर से जवाब देते। कुछ आलोचकों ने उन पर इरादे थोप दिए। कुछ लोगों ने घिनौनी, धमकाने वाली बातें कहीं।
यह राजनीतिक हत्या है। हम न तो सोशल मीडिया के क्लौज़ो (पिंक पेंथर सीरिज का मूर्खताएं करने वाला पुलिसकर्मी) हैं और राजनीतिक कट्टरवादी कि हमेशा के संदिग्धों पर आरोप लगाकर आगे बढ़ जाएं। ऐसा तब मामला राजनीतिक प्रभाव वाले पुलिस-कोर्ट दायरे में जाने का जोखिम होता है और बदलती सत्ता के साथ रुख बदल जाता है। समझौता एक्सप्रेस, मालेगांव, असीमानंद, साध्वी प्रज्ञा मामले में बनावटी मोड़ देख लीजिए। मुद्दा स्पष्ट है। लोगों को राजनीतिक विचारधारा रखने, उसका प्रचार करने का अधिकार है। उसके लिए वे लोकतंत्र में दिए किसी भी तरीके का इस्तेमाल कर सकते हैं, बशर्ते वे हिंसा पर न उतरें। असहमत होने वाले भी ऐसा शांतिपूर्ण तरीके से कर सकते हैं। कोई सभ्य समाज यह स्वीकार नहीं कर सकता कि नागरिक अपने विचारों के कारण मरने का ‘हकदार’ है। इसे सही ठहराना हमें संवैधानिक राष्ट्रीय व्यवस्था से निकालकर किसी घिनौनी जगह पहुंचा देगा।
शुरुआत महात्मा गांधी की हत्या से हुई। सत्ता की प्रतिद्वंद्विता या हिसाब चुकाने (प्रताप सिंह कैरो, ललित नारायण मिश्र, इंदिरा और राजीव गाधी) अथवा विचारधारा के कारण भारत में राजनीतिक हत्याओं का अप्रिय सिलसिला रहा है। वैचारिक रूप से ध्रुवीकृत क्षेत्र में खासतौर पर पश्चिम बंगाल व बिहार में वाम और दक्षिणपंथ दोनों ने दूसरों को चुप करने के लिए हत्याएं कीं। आंध्र में चंद्रबाबू नायडू नक्सली हमले में बाल-बाल बचें और दिवंगत मुख्यमंत्री वाईएस राजशेखर रेड्डी के पिता को उनके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने कार में बम लगाकर मार डाला। पंजाब में 1978 से 94 में दसियों हजार लोग अपने विचारों के लिए मार दिए गए। जरनैल सिंह भिंडरावाले स्वर्ण मंदिर में अदालत लगाता था और कोई खड़ा होकर किसी नेता या बुद्धिजीवी पर धोखा देने या ईशनिंदा का आरोप लगा देता। इनकी सजा क्या होनी चाहिए, ऐसा पूछकर वह चला जाता। किसी बंदूकधारी के लिए बाकी का काम करने के लिए इतना काफी है। उसने ऐसा एक राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित बुद्धिजीवी के साथ किया। किसी ने खालिस्तान अभियान पर उनके लेखों के अनुवाद का पुलिंदा उसे दिया। मैंने भिंडरावाले से पूछा, ‘आप अपनी राय बताने पर किसी बुद्धिजीवी को निशाना कैसे बना सकते हैं?’ उम्मीद थी कि उसका विवेक जागेगा। ‘शेखरजी, आप तब क्या करेंगे जब कोई आपके गुरु को शाही लुटेरा कहे?’मैंने लेख फिर पढ़ा तो देखा कि लेखक ने सिखों के इतिहास की मान्यता प्राप्त किताब ‘रॉबर नोबेलमैन’ से उद्धरण लिया था। किसी ने उसका शरारतपूर्ण अनुवाद कर दिया। कई नरमवादी सिख विद्वानों और भले लोगों द्वारा कई दौर की वार्ता में समझाने के बाद उसे पुनर्विचार के लिए राजी किया गया। यह बहुत ही डरावनाअनुभव था।
तब की तरह अब भी ‘बात’ ही हत्या का निशाना बनाए जाने का औचित्य मुहैया कराती है। मैंने जो अपना अनुभव सुनाया वह अपने धर्म की सर्वोच्च आध्यात्मिक व दुनियानवी पद से बोल रहा था। अब यह जगह सोशल मीडिया है और आप को साधु, बाबा, संत या मौलाना होने की भी जरूरत नहीं। एक बार आप व्यक्ति को राष्ट्र विरोधी, देशद्रोही, ईश-विरोधी, विदेशी एजेंट कहकर घिनौना ट्वीट-तूफान ला दें तो आप किसी बंदूकधारी या किसी हिंसक भीड़ के लिए हत्या करने का औचित्य सिद्ध कर देते हैं। उसे उम्मीद रहेगी कि बाद में राजनीति हावी हो जाएगी और कानूनी प्रक्रिया की चकरघिन्नी बना देगी। मालेगांव और समझौता बम धमाकों में लगता है अब यही हो रहा है। उन्हें कुछ गलत उदाहरण भी मिल जाएंगे जैसे 1978 में जनता सरकार द्वारा इंदिरा गांधी की गिरफ्तारी के विरोध में लखनऊ से विमान अपहरण करने वाले पांडे फ्रेंड्स। इंदिरा जब 1980 में सत्ता में लौटीं तो वह मुकदमा गायब हो गया। राजनीतिक अपराधी न सिर्फ गर्दन बचा लेते हैं बल्कि उन्हें तोहफे भी मिल जाते हैं।
गौरी लंकेश से मिला संदेश स्पष्ट है। एक, जांच व कानूनी प्रक्रिया को राजनीति से दूर रखना चाहिए। यह मामला कोर्ट को अपनी निगरानी में लेना चाहिए। वरना यह कमांडो-कॉमिक चैनल और सोशल मीडिया से गौरी से अलग हुए भाई से निकली कथाअों में फंस जाएगा। या कर्नाटक के मुख्यमंत्री की तरह 21 बंदूकों की सलामी देकर प्रकरण भुनाने की कोशश होगी। सिद्धारमैया को जवाब दें कि उनकी सरकार तर्कवादी लोगों की रक्षा क्यों नहीं कर पा रही है और हत्यारे गिरफ्त से बाहर क्यों हैं?
अगला सबक है उनकी मौत ने सोशल मीडिया के जिम्मेदार उपयोग की जरूरत पर बहस खत्म कर दी है। नफरत फैलाने और हिंसा भड़काने वाली बातों को सोशल मीडिया पर भी कड़े कानून लागू करना चाहिए। राजनीतिक वर्ग को सोशल मीडिया पर भीड़ की मदद लेने के लालच से बचना होगा। लक्ष्य अपमानजनक टिप्पणियों से आलोचना को बंद करना होता है। लेकिन उसके बाद शारीरिक हिंसा भी हो सकती है। इस दिशा में प्रधानमंत्री को पहल करनी होगी। यह कहना ठीक नहीं है कि किसी को फॉलो करना उसके मत की पुष्टि करना नहीं है। आपके नाम पर गाली-गलौज करना पुष्टि करने जैसा ही है। यह मैं इसलिए कह रहा हूं कि मैं दक्षिण, वाम और ‘आप’ सभी रूटीन तरीके से गरियाते रहते हैं।
आखिर में मीडिया और उदारवादी होने का दावा करने वालों के लिए सबक : अभिव्यक्ति और विचारों की आज़ादी सभी के लिए समान है, फिर चाहे हम कितनी ही रेखाएं खींच दें। ध्रुवीकृत समय में जीतने का मौका तभी है जब इन आज़ादियों को हमारा संरक्षण असंदिग्ध हो। उदारता का मतलब दूसरों की सुनना, उनसे चर्चा करना। न कि उन्हें मूर्ख या अनैतिक बताकर खारिज करना। फिर हो सकता है हम मौजूदा चर्चा को वापस हिंसा और गाली-गलौज से निकालकर नागरिकता के दायरे में ला सकें। (ये लेखक के अपने विचार हैं।)