आबादी और रोजगार की कशमकश — मोंटेक सिंह अहलूवालिया

नौकरियों के सृजन की चुनौती पूरी दुनिया में राजनीति के केंद्र में है, और भारत भी इससे अछूता नहीं है। हालांकि, भारत में इस समस्या के पैमाने को आंकना कोई आसान काम नहीं है। हाल ही में जारी साल 2011-12 के नेशनल सैंपल सर्वे (एनएसएस) के आंकड़े बताते हैं कि देश की कुल श्रम-शक्ति के बरक्स बेरोजगारी दर महज 2.2 फीसदी थी, जो काफी मामूली है। इस लिहाज से अन्य देशों के मुकाबले भारत में बेरोजगारी बहुत बड़ी समस्या नहीं है। लेकिन दूसरी तरफ, हमें अक्सर ऐसी खबरें सुनने को मिलती हैं कि सरकारी महकमों में कुछ सैकड़ा निचले दरजे के पदों के लिए लाखों की संख्या में अर्जियां पहुंचीं।


कम बेरोजगारी दर दरअसल इसलिए भ्रामक होती हैं कि उनमें वैसे अनेक लोगों को नौकरीशुदा या रोजगार युक्त दिखाया जाता है, जो बेहद-बेहद मामूली मेहनताने पर काम करने को मजबूर होते हैं, क्योंकि उनके पास इसके सिवा और कोई चारा नहीं होता। अर्थशास्त्री इसे ‘प्रच्छन्न बेरोजगारी’ या ‘अल्प रोजगार’ कहते हैं। इसी तरह चंद सरकारी पदों के लिए लाखों की तादाद में आवेदन भी भ्रामक है, क्योंकि जरूरी नहीं कि उनमें से तमाम आवेदक बेरोजगार ही हों। निचले दरजे की सरकारी नौकरियां भी बाजार दर के मुकाबले बेहतर तनख्वाह और सुविधाएं देती हैं, लिहाजा निजी क्षेत्र के नौकरीशुदा भी चाहते हैं कि अगर संभव हो, तो वे वहां चले जाएं।


नौजवानों में बेरोजगारी पर केंद्रित एक हालिया सर्वे बताता है कि शिक्षित नौजवान कहीं ज्यादा गंभीर समस्या से जूझ रहे हैं। 18 से 29 साल के वर्ग समूह में बेरोजगारी दर 10.2 प्रतिशत है, लेकिन अशिक्षितों में यह सिर्फ 2.2 फीसदी है, जबकि ग्रेजुएट युवाओं में यही बेरोजगारी 18.4 प्रतिशत तक पहुंच गई है। ज्यादा से ज्यादा तालीमयाफ्ता नौजवान आने वाले दिनों में श्रम-शक्ति का हिस्सा बनते जाएंगे, इसलिए हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके लिए गुणवत्तापूर्ण नौकरियों में जबर्दस्त बढ़ोतरी हो, वरना असंतोष बढ़ता जाएगा।


इस समस्या से निपटने के लिए तीन ढांचागत बदलाव जरूरी हैं। एक, कृषि क्षेत्र में कार्यरत श्रमशक्ति में कमी लाई जाए। साल 2011-12 में जीडीपी में कृषि क्षेत्र की भागीदारी 18 फीसदी थी, जबकि उसने कुल श्रम-शक्ति के करीब 50 प्रतिशत को रोजगार मुहैया करा रखा था। इस तरह, कृषि क्षेत्र में प्रति व्यक्ति उत्पादकता 18/50 = 36 प्रतिशत (राष्ट्रीय औसत का) थी। अगर अर्थव्यवस्था अगले 10 साल तक कुल मिलाकर 7.5 प्रतिशत की दर से विकास करती है, और कृषि विकास दर चार प्रतिशत तक भी बढ़ती है, तो 2027-28 तक जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 11 प्रतिशत तक सिमट जाएगी। ऐसे में, कृषि उत्पादकता को राष्ट्रीय औसत के 36 फीसदी तक कायम रखने के लिए कुल रोजगार में इसकी हिस्सेदारी 31 प्रतिशत तक समेटी जानी चाहिए। यह काफी बड़ी गिरावट होगी। यहां तक कि अगर 35 प्रतिशत पर भी रोजगार रखी जाती है, तब भी इसके लिए बड़ी तादाद में लोगों को कृषि क्षेत्र से बाहर होना होगा। जाहिर है, गैर-कृषि क्षेत्रों के ऊपर यह बहुत बड़ा दबाव होगा। उन्हें अपना इतना विस्तार करना होगा कि वे राष्ट्रीय औसत में सामान्य रूप से हो रही वृद्धि के अतिरिक्त कृषि क्षेत्रसे बाहर निकलने वालों को भी रोजगार मुहैया करा सकें।


दूसरा ढांचागत बदलाव मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र से इस उम्मीद को संतुलित करने की है कि वह गैर-कृषि रोजगार प्रदाता की भूमिका निभाए।


मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में तेज प्रगति हमारी आर्थिक रणनीति की धुरी रही है, और यकीनन अब भी होनी चाहिए। लेकिन, हमें यह स्वीकार करना होगा कि तकनीकी बदलाव की वजह से अब इसमें पहले के मुकाबले रोजगार सृजन की संभावना कम रहेगी। इस वक्त मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र करीब एक चौथाई नौकरियां मुहैया कराता है। बाकी एक चौथाई नौकरियां गैर-मैन्युफैक्चरिंग उद्योगों, मसलन, खनन, ऊर्जा व निर्माण के साथ-साथ सेवा क्षेत्र में पैदा होती हैं। गैर-कृषि क्षेत्र में नौकरियों में वृद्धि के लिए निर्माण व सेवा क्षेत्र, जिनमें स्वास्थ्य सेवाएं, पर्यटन संबंधी सेवाएं, खुदरा व्यापार, परिवहन, लॉजिस्टिक्स व मरम्मत संबंधी सेवाओं में रोजगार सृजित करने पड़ेंगे। इसलिए इनसे जुड़ी नीतियों की सावधान व गहन पड़ताल की दरकार है, ताकि इन क्षेत्रों के विस्तार की राह में खड़ी बाधाओं को दूर किया जा सके।


तीसरा ढांचागत बदलाव अनौपचारिक क्षेत्र के रोजगार को औपचारिक क्षेत्र के रोजगार में बदलने की जरूरत है। एनएसएस का हालिया डाटा बताता है कि करीब 24.3 करोड़ लोग गैर-कृषि क्षेत्र में कार्यरत थे और इनमें से 85 प्रतिशत ‘अनौपचारिक क्षेत्र’ में नियोजित थे, जिनमें स्व-रोजगार व वैतनिक रोजगार शामिल हैं। बहरहाल, आज ‘उच्च गुणवत्ता’ वाले रोजगार के अवसरों की ज्यादातर मांग औपचारिक/ संगठित क्षेत्र में नौकरी की मांग है। अगर हम नौजवानों की आकांक्षाओं को पूरा करना चाहते हैं, तो हमें फौरन अनौपचारिक/ असंगठित क्षेत्र से औपचारिक/ संगठित क्षेत्र की ओर बढ़ने की जरूरत है।


जाहिर है, किसी एक नीतिगत पहल से ये सभी ढांचागत बदलाव मुमकिन नहीं है। इसके लिए विभिन्न स्तरों पर कई तरह के हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी। जैसे, किसी भी रोजगार संबंधी रणनीति के लिए तेज विकास तो केंद्रीय बिंदु होता ही है, क्योंकि एक तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था ज्यादा से ज्यादा नौकरियां पैदा करती है। बिना उच्च विकास के अधिक रोजगार पैदा करने की कोई भी धारणा भ्रामक होगी। अगर हम विकास दर के मोर्चे पर नाकाम रहे, तब भी शायद निम्न गुणवत्ता व कम उत्पादकता वाले रोजगार सृजित कर लें, मगर वे ऐसे रोजगार नहीं होंगे, जो हमारे नौजवान चाहते हैं। इसका मतलब है कि विकास को गति देने वाली तमाम नीतियां नौकरियों के सृजन के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण हैं।


मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में सबसे अधिक संख्या में नौकरियां सृजित करने के मौके हैं, खासकर विश्व बाजार में उन वस्तुओं के निर्यात के जरिये, जिनमें लंबे वक्त से चीन का दबदबा है। इस क्षेत्र में अन्य देशों से कड़ा मुकाबला करने के लिए हमें मैन्युफैक्चरिंग उद्योगों का तेजी से आधुनिकीकरण करना होगा। इससे हमें कुल मिलाकर रोजगार की संख्या बढ़ाने में सफलता मिलेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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