कलकत्ता हाईकोर्ट के जज सीएस करनन का सुप्रीम कोर्ट के साथ शुरू हुआ चूहे-बिल्ली जैसा खेल एक तरह की संवैधानिक त्रासदी में तब्दील होता दिख रहा है। करनन ने सुप्रीम कोर्ट के आठ जजों के खिलाफ पांच वर्ष सश्रम कारावास का दुस्साहसिक आदेश दिया, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने करनन को छह महीने के लिए जेल भेजने का आदेश दे दिया है। गौरतलब है कि आजादी के बाद पहली बार हाईकोर्ट के किसी जज को जेल की सजा सुनाई गई है। कुछ लोगों का मत है कि पुनर्विचार याचिका की आड़ में करनन को अगले महीने रिटायर होने दिया जाए और फिर उन्हें गिरफ्तार किया जाए। जाहिर है कि इस तरह संवैधानिक संकट अभी भी टल सकता है।
करनन का आचरण अक्षम्य था, इस पर शायद ही कोई असहमत हो। इसके बावजूद असल सवाल यह है कि क्या सुप्रीम कोर्ट को हाई कोर्ट के किसी जज को इस तरह दंडित करने का अधिकार है? आखिर सुप्रीम कोर्ट अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर कैसे जा सकता है? संविधान लागू होने के पहले वर्ष 1949 में देश के तत्कालीन गवर्नर जनरल सी. राजगोपालाचारी ने फेडरल कोर्ट की रिपोर्ट पर हाई कोर्ट के एक जज शिव प्रसाद सिन्हा को हटाया था। उसके बाद महाभियोग के तहत किसी भी न्यायाधीश को नहीं हटाया गया। वी. रामास्वामी के खिलाफ संसद में महाभियोग प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया, जबकि सौमित्र सेन व दिनाकरन ने महाभियोग की धमकी के बाद जज के पद से इस्तीफा दे दिया था।
उल्लेखनीय है कि सरकार, संसद और न्यायपालिका की अपनी-अपनी शक्तियां और कार्यक्षेत्र हैं। जब सरकार जजों की नियुक्ति में हस्तक्षेप नहीं कर सकती तो फिर सुप्रीम कोर्ट संसद के अधिकार-क्षेत्र में कैसे दखलंदाजी कर सकता है? शायद यह बढ़ती न्यायिक सक्रियता से संसदीय व्यवस्था में हो रहे असंतुलन का ही सवाल है कि इस मसले पर विमर्श के लिए शांताराम नाईक ने संसद का विशेष अधिवेशन बुलाने की मांग की है।
केशवानंद भारती मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ द्वारा दिए गए निर्णय के अनुसार न्यायिक स्वतंत्रता संविधान का मूल ढांचा है, जिसे संसद भी नहीं बदल सकती। चूंकि हाईकोर्ट के जज को निलंबित या बर्खास्त करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को नहीं है, इसलिए यदि यह तर्क दिया जा रहा है तो यह स्वाभाविक ही है कि जब जजों को समान संवैधानिक संरक्षण प्राप्त है तो सुप्रीम कोर्ट ने करनन को सजा देकर तो संविधान का उल्लंघन ही किया। ध्यान रहे कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और अन्य संवैधानिक संस्थाओं के विरुद्ध भी आरोप लगते रहे हैं। क्या इन मामलों में भी अवमानना का वैसा ही मामला बनेगा, जैसा करनन को लेकर बना?
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजू (जो करनन की नियुक्ति प्रक्रिया में शामिल थे) ने एक मामले में सुप्रीम कोर्ट से माफी मांग कर अवमानना के अपराध से मुक्ति पा ली थी। यहां सवाल यह उठता है कि क्या माफी मांगने से अपराध की गंभीरता कम हो जाती है? करनन को जज के पद पर रहते हुए अवमानना के आरोप में सजा सुनाई गई है। सवाल है कि करनन द्वारा 20 जजों के खिलाफभ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के बगैर उन्हें अवमानना का दोषी कैसे माना जा सकता है? सुप्रीम कोर्ट द्वारा सजा के बावजूद करनन रिटायरमेंट के बाद भी जस्टिस करनन कहलाकर न्यायिक जगत में शर्मिंदगी का सबब तो बने ही रहेंगे।
संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार है। इसके अतिरिक्त दोषी व्यक्ति को भी अपना पक्ष रखने का कानूनी अधिकार है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा करनन के बयानों के मीडिया कवरेज पर प्रतिबंध लगाने का भी आदेश दे दिया गया। क्या यह न्यायिक आपातकाल जैसी स्थिति नहीं? करनन ने सुप्रीम कोर्ट के आठ जजों को एससी-एसटी कानून के तहत पांच वर्ष सश्रम कारावास की जो सजा सुनाई थी, उसे सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना, लेकिन एससी-एसटी कानून, दहेज उत्पीड़न, आर्म्स एक्ट एवं दुष्कर्म के फर्जी मामलों में परेशान आम जनता को तो इतनी जल्दी राहत नहीं मिल पाती। करनन को नियुक्त करने वाले कोलेजियम में शामिल पूर्व जज पीके मिश्रा ने कहा है कि करनन की नियुक्ति में गलती के लिए वह शर्मिंदा हैं। कुछ अन्य जजों का कहना है कि करनन की नियुक्ति आठ साल पहले की गई थी और उन्हें अब कुछ याद नहीं है। यह स्वाभाविक है, लेकिन क्या इससे कोलेजियम व्यवस्था की खामी पर मुहर नहीं लगती?
यह समझने की जरूरत है कि व्यवस्था के और अंगों की तरह न्यायपालिका में भी सुधार की दरकार है। असीमित अधिकारों से लैस सुप्रीम कोर्ट को न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए क्रांतिकारी कदम उठाने चाहिए। यदि जजों की गलत नियुक्ति हो गई हो तो फिर नियुक्त करने वाले कोलेजियम के सदस्यों की भी जवाबदेही तय होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने करनन द्वारा पारित सभी गलत आदेशों को रद्द करके स्वयं को तो सुरक्षित कर लिया है, लेकिन ऐसे गलत आदेशों से अनेक लोग जिंदगी भर मुकदमेबाजी में परेशान रहते हैं। यदि करनन हाई कोर्ट जज बने रहने के लायक नहीं हैं, तो उनके द्वारा पिछले आठ साल में किए गए बड़े फैसलों पर पुनर्विचार करके न्यायिक गरिमा को बहाल करने का प्रयास क्यों नहीं होना चाहिए? भ्रष्टाचार या अनैतिक आचरण की वजह से यदि मुकदमों में गलत फैसला होता है तो जजों को संवैधानिक संरक्षण क्यों मिलना चाहिए?
अमेरिका में जजों में अनुशासन के लिए न्यायिक आयोग का प्रावधान है। सुप्रीम कोर्ट ने मई 1997 में जजों के नैतिक आचरण के लिए 16 सूत्री दिशानिर्देश पारित किया था, जिसे 1999 के चीफ जस्टिस कांफ्रेंस में स्वीकृति मिल गई। संप्रग सरकार ने न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक-2010 में इन दिशानिर्देशों को शामिल करके कानूनन बाध्यकारी बनाने का प्रयास किया, जो पिछली लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने से पारित नहीं हो सका। सुप्रीम कोर्ट ने संसद द्वारा पारित जजों की नियुक्ति के कानून को 2015 में रद्द कर दिया और एमओपी यानी मेमोरेंडम ऑफ प्रोसिजर पर अभी तक अपनी सहमति नहीं दी है। एक तरह से दोषपूर्ण कोलेजियम व्यवस्था प्रभावी बनी हुई है। आखिर जिस व्यवस्था में विसंगति को खुद सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया था, वह अस्तित्व में क्यों है? सुप्रीम कोर्ट द्वारा अधीनस्थ अदालतों में जजों की नियुक्ति के लिए अखिल भारतीय परीक्षा प्रणाली पर सहमतिजतानासुखद है, लेकिन जजों को परीक्षा से अधिक आत्मनिरीक्षण की जरूरत है।
(लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं। ये उनके निजी विचार हैं)