पहले भी माओवादी हमले में बड़ी संख्या में सीआरपीएफ के जवान शहीद हो चुके हैं और सुकमा में हुआ हालिया हमला बताता है कि स्थितियां अब भी बदली नहीं हैं। आखिर माओवादी हमलों में हमारे जवानों को यूं अपनी शहादत क्यों देनी पड़ रही है? साफ है कि पहले के हमलों से सबक नहीं सीखा गया और कहीं न कहीं हमारे अर्धसैनिक बलों द्वारा ऐसे अशांत इलाकों में मानक संचालन प्रक्रियाओं के अनुपालन में चूक हो रही है। सवाल यह भी है कि क्या सीआरपीएफ की यूनिट को उस इलाके में हमले की ताक में बैठे नक्सलियों की इतनी बड़ी तादाद में मौजूदगी की खुफिया सूचना मिली थी? यदि नहीं, तो यह बड़ी चिंता का विषय है। दूसरी ओर, प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि जहां पर सीआरपीएफ के जवान रुके हुए थे, वहां आकर ग्रामीणों ने अपने मवेशियों को चराने की इजाजत मांगी। घायल जवानों का मानना है कि इस तरह ग्रामीणों ने उनके दस्ते की मौजूदगी की थाह ली और यह भी देखा कि जब जवान खाना खाने के लिए वापस लौटते हैं तो उनकी सुरक्षा कितनी तगड़ी होती है।सीआरपीएफ की यह यूनिट रोड ओपनिंग पार्टी (आरओपी) का हिस्सा थी, जिसका काम यह पता लगाना होता है कि सड़क पर कोई बारूदी सुरंग (आईईडी) तो नहीं बिछाई गई है। ऐसी संवेदनशील जगहों पर सड़कों से वाहनों की आवाजाही तभी होती है, जब रोड ओपनिंग पार्टीज द्वारा जांच के बाद इन्हें सुरक्षित पाया जाता है। सुकमा के मामले में सीआरपीएफ की यूनिट घने जंगलों के बीच एक अहम सड़क के निर्माण में मदद कर रही थी, ताकि यहां के दुर्गम इलाकों में रह रहे आदिवासियों को सड़कमार्ग से जोड़ा जा सके। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के मुताबिक नक्सली इस सड़क निर्माण का विरोध कर रहे थे, क्योंकि वे नहीं चाहते कि आधुनिक ताकतें और सुरक्षा एजेंसियां इन दूरदराज के इलाकों और यहां के रहवासियों तक पहुंचें।
नक्सली बेहद शातिर हैं। पुलिस सूत्रों के मुताबिक वे भलीभांति जानते हैं कि सीआरपीएफ किस तरह अपनी गतिविधियां चलाता है। वे जानते हैं कि सीआरपीएफ के ज्यादातर जवानों को न्यूनतम संसाधनों के साथ विकट परिस्थितियों में रहना पड़ता है। इन दुर्गम वन्यक्षेत्रों में इन जवानों के लिए माओवादी गतिविधियों की अनिश्चितता के अलावा मच्छर भी बड़ी चुनौती पेश करते हैं, जिनसे मलेरिया जैसी बीमारियां फैलती हैं। वे इसलिए भी आशंकित रहते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि लोग हर वक्त उन पर निगाह रख रहे हैं, लेकिन उन्हें ये पता नहीं होता कि ऐसे लोग उनके शुभचिंतक हैं या माओवादी! उनके इसी डर का फायदा ये माओवादी उठाते हैं। पहले के मुकाबले आजउनकी तकनीक तक कहीं ज्यादा पहुंच है। अब वे पेड़ों के नीचे प्रेशर बम भी लगाने लगे हैं। जैसे ही कोई जवान इन पेड़ों की छांव तले विश्राम के लिए रुकता है, इनमें विस्फोट हो जाता है। इसके अलावा वे पुलिस वाहनों को विस्फोट से उड़ाने के लिए बड़े पैमाने पर आईईडी विस्फोटकों का भी इस्तेमाल करते हैं। यहां बारूदी सुरंगों की टोह लेने वाले उपकरण भी कई बार निष्प्रभावी साबित होते हैं, क्योंकि ये इलाका लौह अयस्क से समृद्ध है और इस वजह से यहां जमीन के नीचे किसी बम या विस्फोटक की पहचान करने में मुश्किल होती है। इसके अलावा गर्मी के सीजन में ये इलाका काफी शुष्क हो जाता है और स्नानादि के लिए पानी उपलब्ध नहीं होता। दूसरे शब्दों में कहें तो जवानों को यहां ना सिर्फ माओवादियों, बल्कि प्रकृतिजन्य मुश्किलों से भी जूझना होता है।
गौरतलब है कि सत्तातंत्र के खिलाफ माओवादी संघर्ष की शुरुआत एक किसान आंदोलन के रूप में हुई थी और आगे चलकर यह उनके पहचान, आजीविका और प्राकृतिक संसाधन बचाने की लड़ाई में तब्दील हो गया। यह सवाल अक्सर पूछा जाता है कि सरकारों को क्या करना चाहिए? आदिवासियों को अभावग्रस्त स्थिति में रहने दें या फिर वेदांता, राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (एनएमडीसी) और टाटा जैसी खनन कंपनियों को यहां विभिन्न् धात्विक खनिजों के उत्खनन की इजाजत देते हुए ऐसी परिस्थितियां बनाई जाएं कि इनके लिए रोजगार की राह खुले? ये ऐसे सवाल हैं, जिनके जवाब आसान नहीं। हालांकि इसकी वजह से हमने देखा कि स्थानीय आदिवासियों और सरकार के बीच एक तरह का संघर्ष छिड़ गया है, जहां पर आदिवासी लगातार अपनी आजीविका और सम्मान खोते जा रहे हैं। खनन कंपनियों के कर्मचारी तथा फॉरेस्ट कांट्रैक्टर्स इनके प्रतिरोध को खत्म करने के लिए बाहुबल का इस्तेमाल करते हैं। छत्तीसगढ़ व झारखंड जैसे प्रदेशों में रेप और हत्या के ऐसे कई किस्से हैं, जिनकी कभी रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई। जाहिर है, जब उन्हें न्याय नहीं मिलता तो उनका गुस्सा बढ़ता है। विकास-प्रक्रिया के ऐसे भुक्तभोगियों को त्वरित न्याय पाना आसान लगता है, जो उन्हें माओवादी अपने कंगारू कोर्ट्स में ‘दोषी को ताबड़तोड़ सजा देते हुए मुहैया कराते हैं। हमारे न्याय तंत्र की सुस्त चाल के लिहाज से उन्हें यह मुफीद लग सकता है, किंतु हकीकत तो यह है कि ये लोग वास्तव में सत्तातंत्र की मनमानियों और माओवादियों की क्रूरता के बीच फंसकर रह गए हैं। उनकी सीधी-सादी जिंदगी को हिंसा ने बर्बाद कर डाला है।
बहरहाल, इन इलाकों में हमारे जवान जिस तरह अपनी जान गंवा रहे हैं, वह गंभीर चिंता का विषय है। यदि आप शहीद जवानों की सूची पर नजर डालें तो आपको इसमें पूरे भारत की तस्वीर नजर आएगी। इनमें देश के पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण सभी इलाकों से आए जवान शामिल हैं। इन्हें इसलिए अपनी शहादत देनी पड़ी, क्योंकि अर्धसैन्य बलों के आकाओं ने उनकी सुरक्षा के प्रति पर्याप्त ध्यान नहीं दिया। आखिर इन इलाको में ड्रोन आदि की तैनाती क्यों नहीं की गई? हैलिकॉप्टरों से निगरानी या इंसानी खुफियागिरी जैसी बुनियादी चीजों के मामले में भी कहां कसर रह गई? निश्चित ही, शीर्षपरबैठे लोगों के पास इसके लिए भी कई तर्क होंगे, पर सच तो यह है कि हमारे पुलिस/अर्धसैनिक बल का पर्याप्त ख्याल नहीं रखा जाता। कश्मीर में हम देखते हैं कि वे किस तरह पत्थरबाजों के आक्रोश को झेल रहे हैं। इन सबसे हमारे इन जवानों के मनोबल पर भी असर पड़ता है। हालांकि बेहतर पुलिस तंत्र व तकनीक से हमें मदद मिलेगी, किंतु दीर्घकालिक समाधान के लिहाज से जरूरी है कि आपराधिक न्याय तंत्र को मजबूत किया जाए व ऐसी नीतियां तैयार की जाएं, जिससे स्थानीय समुदाय खुद को अलग-थलग महसूस न करे।
(लेखक हार्ड न्यूज मैगजीन के एडिटर इन चीफ हैं। ये उनके निजी विचार हैं)