बुधवार को भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने जो उपलब्धि हासिल की, वह विलक्षण है। यह ठीक ऐसा है कि कोई एक ओवर में छह छक्के लगा दे। हमने एक साथ 104 उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा, जिनमें कार्टोसेट के साथ-साथ नैनो उपग्रह भी थे। कार्टोसेट से फायदा यह मिलेगा कि अब हम भारत महाद्वीप का नक्शा कहीं बेहतर हाई रिजोल्यूशन में देख सकेंगे। इतना ही नहीं, आने वाले दिनों में हम अपना जीपीएस भी बना सकेंगे, जिससे दूसरे देशों पर हमारी निर्भरता खत्म हो जाएगी। इन उपग्रहों से जनसांख्यिकीय से जुड़े आंकड़ों को पाने में भी मदद मिलेगी। साथ ही, इससे हमारी पूर्व चेतावनी प्रणाली भी काफी बेहतर होगी, जिसका फायदा हमने अक्तूबर, 2014 में देखा, जब चक्रवाती तूफान से लाखों जिंदगियों को इसी प्रणाली के बूते बचाया गया था।
अब से पहले अंतरिक्ष में एक साथ सबसे ज्यादा उपग्रह भेजने का रिकॉर्ड रूस के नाम था। उसने साल 2014 में 37 सैटेलाइट भेजे थे। बुधवार को हमने इसके तीन गुना ज्यादा सैटेलाइट भेजे हैं। इस उपलब्धि को पाना दूसरे देशों के लिए इसलिए मुश्किल नहीं है कि वे ऐसा नहीं कर सकते। वे भी कर सकते हैं, क्योंकि अगर हमें पे-लोड यानी यह पता हो कि कितना वजन अंतरिक्ष में भेजा जा सकता है, तो उसे छोटे-छोटे उपग्रहों में बांटकर कोई भी देश धरती की कक्षाओं में स्थापित कर सकता है। असल में, उनके सामने अड़चनें दो हैं। पहली, एक साथ इतनी बड़ी मात्रा में सैटेलाइट तैयार हो, ताकि उसे एक साथ भेजा जा सके। अंतरिक्ष का बाजार काफी अनिश्चितता से भरा है, इसलिए ठोस रूप से कहना आसान नहीं माना जाता। इसी तरह, दूसरी अड़चन भरोसे की है। अंतरिक्ष एजेंसी पर यह विश्वास हो कि वह जिम्मेदारी के साथ उपग्रहों को उसकी कक्षा में स्थापित कर सकेगी। यह जिम्मेदारी इसलिए मायने रखती है, क्योंकि उपग्रह बनाना और उसे भेजना काफी खर्चीला होता है। इसरो के हक में अच्छी बात यह है कि उसने इन दोनों अड़चनों से सफलतापूर्वक पार पा लिया है। यह भारत के लिए गर्व की बात है।
इसरो आज दुनिया भर का भरोसा जीत सका है, तो इसका बड़ा श्रेय इस संस्था का नेतृत्व करने वाले वैज्ञानिकों को जाता है। तारीफ के काबिल वे राजनीतिक नेतृत्व भी हैं, जिन्होंने वैज्ञानिकों पर भरोसा जताया। असल में, हमने अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम की शुरुआत एक शांतिपूर्ण अभियान के तहत की थी। जहां ज्यादातर देशों ने स्ट्रैटिजिक रिसर्च या सैन्य उद्देश्यों के तहत अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम बढ़ाया और इसमें खासी गोपनीयता बरती, वहीं हमने इसे आम आदमी को समर्पित कर दिया। यही वजह है कि हमने पहले मिसाइल प्रोग्राम नहीं, बल्कि रॉकेट प्रोग्राम विकसित किए और उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजना शुरू किया। देखा जाए, तो हमने सोचने का एक नया नजरिया दुनिया के सामने रखा था। इसी तरह, भारत में पिछली सदी के 60 के दशक में जब अंतरिक्ष अभियान शुरू हुए, तो इसके विरोध में आवाज भी उठी। कहा गया कि गुरबत के दिनों में जब देश बुनियादी सुविधाओं को पाने की जद्दोजहद कर रहा है, तो भलाऐसी योजना में पूंजी क्यों लगाना, जिसका तत्काल कोई फायदा नहीं हो? मगर राजनीतिक नेतृत्व ने वैज्ञानिकों पर भरोसा दिखाया, और आज नतीजा सामने है। अपेक्षाकृत देर से कार्यक्रम शुरू करने के बाद भी आज हमारा कद अंतरिक्ष कार्यक्रम चलाने वाले तमाम देशों के बराबर है।
सवाल यह है कि अब इससे आगे हम कहां जाएंगे? मेरा मानना है कि आने वाले दिनों में दुनिया भर में अंतरिक्ष कार्यक्रम का दायरा बढ़ने वाला है। आज नहीं तो कल, कई देश उपग्रह बनाने की क्षमता हासिल करेंगे। ऐसे में, उनकी नजर उन देशों की तरफ होगी, जिनके पास लांचिंग पैड और लांच व्हीकल तो हो ही, तय वक्त में परियोजना पूरी करने की क्षमता भी हो। इसरो ने लगातार यह साबित किया है कि वह इन तीनों में सक्षम है। हमारे लिए अच्छी बात यह भी है कि बहुत कम लागत में हम जिम्मेदारी पूरी करने की क्षमता रखते हैं। हमारा पीएसएलवी (पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल) कम पैसों में लक्ष्य पूरा करने की काबिलियत रखता है। चंद्रयान और मंगलयान में भी हमने इसकी ताकत दिखा दी है। ऐसे में, यह स्वाभाविक ही हमारे अंतरिक्ष कार्यक्रम की रीढ़ का हिस्सा बना रहेगा। मगर इसकी भी एक सीमा है। इसलिए जरूरत है कि अब हम जीएसएलवी (जिओ सिंक्रोनाइज लांच व्हीकल) में महारत हासिल करें। यह कहीं ज्यादा पे-लोड यानी भारी उपग्रह आसमान में पहुंचा सकता है।
जरूरत यह भी है कि हम देश के तमाम विश्वविद्यालयों व संस्थानों में शोध की क्षमता विकसित करें। ऐसे वक्त में, जब हम शुक्र ग्रह पर जाने का सपना देखने लगे हैं, तो इस दिशा में काम करना और भी लाजिमी है। आज अंतरिक्ष अनुसंधानों के सिरमौर देश आंकड़ों को गोपनीय रखने की मानसिकता से बाहर निकल चुके हैं। वे तमाम आंकड़े दूसरे देशों से साझा करने लगे हैं। इसकी बड़ी वजह यह है कि ऐसी परियोजनाओं में इतने आंकड़े इकट्ठा होते हैं कि किसी एक देश या संस्थान के बूते उनका विश्लेषण संभव नहीं। लिहाजा यह जरूरी है कि हमारे मुल्क के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में इन शोध से जुड़ी सुविधाएं बढ़ाई जाएं, ताकि आंकड़ों को अलग-अलग नजरिये से देखने व उनका निष्कर्ष निकालने वाले वैज्ञानिक पैदा हो सकें।
संभव यह भी है कि आने वाले दिनों में ऐसे उपग्रह अंतरिक्ष में भेजे जाएंगे, जो छोटी-छोटी चिप में होंगे। किफायती व जिम्मेदार अंतरिक्ष एजेंसी होने के कारण इसरो पर दुनिया भर की नजर होगी, इसीलिए जब दूसरे मुल्क हमें अपना उपग्रह देंगे, तो उनमें मौजूद नई-नई तकनीक हमारे वैज्ञानिकों की समझ और भी निखार सकेगी। इससे हमें दो तरह के फायदे होंगे। अव्वल तो हम नई-नई तकनीक से परिचित होंगे और दूसरा, विदेश को अपनी तकनीक की क्षमता बेचकर राजस्व कमाएंगे। बुधवार को इसरो ने बताया कि उसने जो प्रक्षेपण किया, उसकी कुल लागत का आधा उसे विदेशी उपग्रहों के प्रक्षेपण से मिल गया है। यह कमाई कुल लागत की 80 फीसदी तक हो सकती है। यह स्थिति देश में वैज्ञानिक सोच की दशा-दिशा काफी हद तक प्रभावित करेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)