CSDS सर्वे: यूपी में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ज्‍यादा शिकार हुए पढ़े-लिखे हिंदू नौजवान

छह दिसंबर 1992 का दिन भारतीय लोकतंत्र के इतिहास का एक काला दिन है। इसी दिन अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद को कारसेवकों की बेकाबू भीड़ ने गिरा दिया। उस घटना के 24 साल बाद भी उत्तर प्रदेश में कोई भी चुनाव उसके जिक्र के बिना पूरा नहीं होता। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद यूपी में पूरी एक पीढ़ी जवान हो चुकी है लेकिन ये मुद्दा अभी भी राजनीतिक रूप से असरदार बना हुआ है। साल 2014 के लोक सभा चुनाव के मतदाता सूची के अनुसार यूपी के एक-तिहाई वोटरों का जन्म 1992 के बाद हुआ है या उस समय उनकी उम्र पांच-छह साल रही होगी और उन्हें इस घटना की शायद ही कोई ठोस याद होगी। वोटरों की उम्र में बदलाव का यूपी की मंदिर-मस्जिद की राजनीति पर क्या असर हुआ है? करीब दो दशकों तक पूरे उत्तर भारत और पश्चिम भारत की राजनीति में प्रभावशाली रहने वाला ये मुद्दा क्या अब भी यूपी के मतदाताओं के लिए अहमियत रखता है?

सेंटर ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी (सीएसडीएस) के लिए लोकनीति-सेंटर ने अपने सर्वे में दो दशकों से ज्यादा समय तक मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर नजर बनाए रखी है। 1996 से ही सर्वे में शामिल होने वालों से लगातार पूछा जाता रहा है कि वो गिराई गई मस्जिद के स्थान पर किस चीज का निर्माण चाहते हैं? साल 1996 में सर्वे में शामिल 58 प्रतिशत हिंदुओं ने कहा था कि वो वहां केवल मंदिर का निर्माण चाहते हैं। वहीं सर्वे में शामिल करीब 56 प्रतिशत मुसलमानों ने कहा था कि वो वहां केवल मस्जिद का निर्माण चाहते हैं। साल 2002 के विधान सभा चुनावों के पोस्ट-पोल सर्वे में शामिल हिंदुओं और मुसलमानों में मंदिर-मस्जिद के निर्माण की मांग करने वालों का प्रतिशत इसी के आसपास रहा। साल 2002 में गुजरात में हुए दंगों के चलते मतदाताओं की राय समझी जा सकती है। लेकिन इसके बाद मंदिर-मस्जिद मांग को लेकर यूपी के वोटरों की राय में काफी तब्दीली देखने को मिली।

 

साल 2009 तक यूपी के हिंदुओं में केवल मंदिर निर्माण की मांग काफी कम हो गई। साल 2012 तक यहां के मुसलमानों में केवल मस्जिद निर्माण की मांग काफी घट गई। साल 2012 के यूपी विधान सभा चुनाव पोस्ट-पोल सर्वे में एक-तिहाई से भी कम हिंदुओं और मुसलमानों ने विवादित स्थल पर केवल मंदिर या केवल मस्जिद बनाए जाने की मांग की। लेकिन जुलाई 2016 में किए गए ताजा सर्वे में 2012 की तुलना में केवल मंदिर की मांग करने वाले हिंदुओं की संख्या में तेजी से बढ़ोतरी हुई है, जबकि केवल मस्जिद की मांग करने वाले मुसलमानों की संख्या लगभग वही रही।

 

 

यूपी में किए गए हालिया सर्वे में शामिल करीब 49 प्रतिशत हिंदुओं ने कहा कि विवादित स्थल पर मंदिर ही बनना चाहिए, जबकि 28 प्रतिशत मुसलमानों ने कहा कि वो विवादित स्थल पर केवल मस्जिद चाहते थे। जैसा कि ग्राफ 2 में देखा जा सकता है विवादित स्थल पर मंदिर और मस्जिद दोनों के निर्माण के समर्थकों का प्रतिशत भी बढ़ा है। हालांकि मंदिर और मस्जिद दोनों कानिर्माण चाहने वालों यूपी के मुसलमानों का प्रतिशत ऐसा चाहने वाले हिंदुओं से ज्यादा रहा।

 

यूपी के हिंदुओं और मुसलमानों की राय में इस अंतर को कैसे समझा जाए? हमारी राय में पिछले कुछ सालों में हुए यूपी तीखा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण हुआ है। यूपी में हुई सामुदायिक हिंसा का विस्तृत अध्ययन करने वाले अप्पू ई सुरेश के अऩुसार जनवरी 2010 से अप्रैल 2016 के बीच राज्य में 12000 से अधिक सांप्रदायिक हिंसा के मामले सामने आए हैं। सुरेश की रिपोर्ट के अनुसार यूपी के सभी जिलों में सांप्रादायिक घटनाओं की संख्या बढ़ी है। रिपोर्ट में किए गए विश्लेषण के अनुसार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में ऐसी घटनाएं ज्यादा हुई हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि साल 2013 में हुए मुजफ्फरनगर दंगों के बाद ये इलाका सांप्रादायिक राजनीति का गढ़ बन गया है। इस दंगे के बाद से इलाके के हिंदू संगठनों ने कई बार सांप्रदायिक तनाव बढ़ाने की कोशिश की। लोक सभा चुनाव के कुछ महीनों बाद ही इन समूहों ने लव जिहाद का मुद्दा उठाया। इसके बाद दादरी का दुखद हादसा हुआ और गोहत्या पर रोक को लेकर अभियान चलाया गया। अभी हाल ही में कैराना से बीजेपी सांसद हुकूम सिंह ने आरोप लगाया कि इलाके के सैकडो़ं हिंदू मुसलमानों के डर से पलायन कर चुके हैं।

ऐसी घटनाओं का मकसद हिंदुओं में सांप्रदायिक डर बढ़ाना होता है। लगता है कि इसी वजह से मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर उनकी राय का ध्रुवीकरण हुआ है। लेकिन यूपी के मुसलमानों में केवल मस्जिद की मांग कम होने की क्या वजह हो सकती है? हमारी राय में मुसलमानों में केवल मस्जिद की मांग में कमी आने का मतलब ये कतई नहीं है कि प्रदेश के मुसलमानों मंदिर-मस्जिद के मुद्दे पर धर्मनिरपेक्ष तरीक से सोचने लगे हैं? हमारे ख्याल से मुसलमानों की राय में आए बदलाव की पीछे किसी और बात के संकेत मिलते हैं जो हमारी देश के लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए खतरा है। ऐसा लगता है कि यूपी के मुसलमानों का बड़ा तबका इस बात की उम्मीद छोड़ चुका है कि विवादित स्थल पर कभी मस्जिद बन सकती है। बहुत संभव है कि उन्हें ये लगने लगा हो कि मौजूदा व्यवस्था में उन्हें न्याय नहीं मिल सकता। जुलाई 2016 के सर्वे में कई अन्य सवालों के दिए गए यूपी के मुसलमानों के जवाब से भी ऐसी ही आशंका बलवती होती है।

जुलाई 2016 के सर्वे में शामिल लोगों से पूछा गया कि क्या पिछले कुछ सालों में मुसलमानों के प्रति भेदभाव बढ़ा है। उनसे ये भी पूछा गया कि क्या मुसलमानों युवकों को गलत तरीके से आतंकवाद के मामलों में फंसाया जाता है। मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर उनकी चाहे जो भी राय हो मुस्लिम नौजवानों को गलत तरीके से आतंकवादी से जुड़े मामलों में फंसाए जाने के सवाल पर सर्वे में शामिल मुसलमानों का बहुत बड़े हिस्से ने कहा कि ऐसा होता है। सर्वे में शामिल ज्यादातर मुसलमानों को ये भी लगता था कि पिछले कुछ सालों में मुसलमानों के संग होने वाला भेदभाव बढ़ा है। देश के सबसे ज्यादा आबादी वाले धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच ऐसा अलगाव औरदोयमदर्जे का नागिरक होने की भावना अच्छे संकेत नहीं है। इससे न केवल अल्पसंख्यकों को समान दर्जे का नागरिक होने कं संवैधानिक व्यवस्था का उल्लंघन होता है बल्कि मजहबी कट्टरपंथी मुस्लिम नौजवानों की ऐसी भावनाओं का दुरुपयोग भी कर सकते हैं।

 

मंदिर-मस्जिद मुद्दे पर समय के साथ बदलते रुझान का एक सचेत करने वाला पहलू ये भी है कि शिक्षित हिंदू नौजवानों (दसवीं पास और 30 साल से कम उम्र) में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ज्यादा हुआ है। ग्राफ-3 से साफ है कि शहर और गांव दोनों इलाकों में शिक्षित हिंदू युवकों में विवादित स्थल पर केवल मंदिर की मांग करने वालों का प्रतिशत ज्यादा रहा। वहीं ग्रामीण हिंदुओं में शहरी हिंदुओं की तुलना में केवल मंदिर निर्माण की मांग करने वालों का प्रतिशत ज्यादा है। इससे साफ संकेत मिलता है कि साल 2014 के लोक सभा चुनाव में भले ही विकास और सुशासन को चुनावी मुद्दा बनाया हो लेकिन अंदरखाने हिंदुत्ववादी भावनाओं के आधार पर वोटों की गोलबंदी हुई जिससे पार्टी को ग्रामीण भारत में गहरी पैठ बनाने में मदद मिली। 2016 के आंकड़ों से पता चलता है कि बीजेपी के वोटरों में ज्यादातर केवल मंदिर निर्माण की चाह रखते हैं।

 

 

साल 2017 के विधान सभा चुनाव में मंदिर-मस्जिद मुद्दा क्या रोल निभाएगा ये वक्त आने पर पता चलेगा। लेकिन सरकार को सांप्रयादिक भय को कम करने के लिए जरूरी कदम उठाने चाहिए। पीएम नरेंद्र मोदी के पास वो राजनीतिक शक्ति है जिससे वो धार्मिक अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं ताकि वो भी खुद को समान रूप से देश का नागरिक महसूस करें। इस समय इस बड़ी देशभक्ति दूसरी नहीं हो सकती।
(दोनों लेखक लोकनीति-सीएसडीएस, दिल्ली से जुड़े हुए हैं।)

 

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