गेहूं के कर-मुक्त आयात की नीति से मंडराते खतरे– के सी त्यागी

केंद्र सरकार ने गेहूं के आयात पर लगने वाले ‘आयात शुल्क’ को पूरी तरह से खत्म करने का फैसला किया है। यानी गेहूं के आयात पर अब तक लग रहे 10 फीसदी शुल्क को हटा लिया गया है। अब विदेशों से गेहूं आयात करने पर किसी तरह का ‘कर’ नहीं लगेगा। कर-रहित आयात को मंजूरी मिल जाने से बाजार में विदेशों से आयातित सस्ते गेहूं की बहुतायत होगी, जिससे देश के किसानों को गेहूंं की कम कीमत मिलेगी और सीधे तौर पर वे प्रभावित होंगे। इसके पहले सितंबर में खाद्य मंत्रालय ने गेहूं के आयात शुल्क को 25 फीसदी से घटाकर 10 फीसदी कर दिया था। वह शून्य आयात कर की दिशा में एक पहला कदम था। पिछले दो वर्षों से सूखे की मार झेलते किसानों के लिए इस बार ‘आयात की मार’ किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं होगी। गेहूं उत्पादन के मामले में सरकार के अग्रिम अनुमान भी सवालों के घेरे में हैं। शुरू के दो अनुमानों में सरकार द्वारा गेहूं उत्पादन का अनुमान 9.38 करोड़ टन तथा तीसरे अनुमान में 9.44 करोड़ टन बताया गया था। पर अगस्त में जारी चौथे अनुमान में यह आंकड़ा घटकर 9.35 करोड़ टन पर पहुंच गया।
 

नोटबंदी का फैसला कई जगहों पर फायदा देगा, मगर किसानों पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा है और उनकी जरूरतें प्रभावित हुई हैं। गांवों में एटीएम व पेटीएम सुविधा न के बराबर होने से उन्हें बीज, खाद, सिंचाई, मजदूरी और अन्य आवश्यक वस्तुओं की खरीदारी में खासी परेशानी झेलनी पड़ी है। इसी वर्ष अगस्त में खाद्य मंत्रालय के प्रतिनिधियों से मुलाकात के बाद ब्राजील सरकार से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर दाल खरीदे जाने की बात सामने आई थी। खाद्य मंत्रालय की दलील थी कि दाल की आपूर्ति के लिए विभिन्न देशों पर निर्भर रहने की बजाय एक ही देश पर निर्भर रहना सही है। इससे भी पूर्व में केंद्र सरकार द्वारा मोजांबिक सरकार के साथ अफ्रीकी देशों से दालों का आयात बढ़ाने हेतु करार किया जा चुका है। खाने-पीने व रोजमर्रा की अन्य वस्तुओं की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता सुनिश्चित करने की सरकार की मंशा वाजिब है, पर अपने देश के सबसे बड़े जनसंख्या समूह के साथ ऐसा प्रयोग करना, जिससे उनकी रोजी-रोटी प्रभावित हो, कतई तर्कसंगत नहीं है। एक ओर खाद्य विभाग घरेलु उत्पादन बढ़ाने की अपनी प्रतिबद्धता जाहिर करता रहा है, परंतु कदम ऐसे उठाए हैं, जिनसे विदेशों पर अपनी निर्भरता घटने की बजाय बढ़ी ही है।

 

संसद में भी इस बात की पुष्टि की जा चुकी है कि देश में खेती योग्य भूमि में प्रतिवर्ष औसतन 30 हजार हेक्टेयर की कमी दर्ज हुई है। देश का मात्र 45 प्रतिशत भूमि सिंचित है। बाढ़, ओलावृष्टि तथा सूखे की समस्या इनका पीछा नहीं छोड़ती। ऐसे में, ब्राजील के किसानों को दाल का एमएसपी तथा यातायात पर वहन किए जाने वाले खर्च की बजाय भारतीय किसानों को उचित समर्थन मूल्य प्रदान करने का प्रयास अच्छा विकल्प हो सकता था।

 

 

बेहतर उत्पादन के दावों के बावजूद गेहूं की सरकारी खरीद तीन करोड़ टन के लक्ष्य केमुकाबले 2.3 करोड़ टन रही, जो पिछले साल से लगभग 50 लाख टन कम है। नतीजन, सेंट्रल पूल में गेहूं का स्टॉक एक दिसंबर को घटकर 164.96 लाख टन रह गया, जो पिछले नौ वर्षों में सबसे निम्न स्तर पर है। पिछले वर्ष यह आंकड़ा 268.79 लाख टन था। समस्या सिर्फ एक फसल के साथ नहीं है। खरीद नीति के सफल क्रियान्वयन न होने की वजह से गन्ना किसानों को औने-पौने दामा पर उत्पाद बेचना पड़ रहा है। इसी वर्ष टमाटर उत्पादकों को भी बड़ा झटका लगा है। उन्हें एक-दो रुपये प्रति किलो के भाव पर टमाटर बेचने को मजबूर होना पड़ा। बढ़ती महंगाई, किसानों की वर्तमान आय और नई सरकारी नीतियों के मकड़जाल में किसानों की आय दोगुनी होती नहीं दिख रही। कृषि की दृष्टि से वर्ष 2016-17 पिछले दो फसल वर्ष की अपेक्षा ज्यादा अनुकूल प्रतीत हुआ। लगातार सूखे के बाद इस वर्ष मानसून भी मेहरबान रहा। समय से सर्दी पड़ने की वजह से गेहूं को उचित तापमान मिल रहा है, गेहूं की बुआई का रकबा भी बढ़ा है। बंपर फसल के आसार के बीच यह मौसम किसानों के लिए कमाई को बढ़ाने का यह आदर्श मौका था, परंतु आयात शुल्क के हटाए जाने से उनका हौसला कमजोर हुआ है।
 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

 

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