इस विमर्श के आयोजकों ने शारीरिक दंड के खिलाफ कई तर्क पेश किए। बच्चों के मन पर पड़ने वाले उसके असर से लेकर नैतिकता तक की दुहाई दी गई। कई शोधोंके हवाले से यह भी बताया कि कैसे शारीरिक दंड बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं। और यह भी कहा कि अगर वाकई ये तरीका कारगर है, तो क्यों न शिक्षकों के मामले में भी इसे अमल में लाया जाए? आखिर कई शिक्षक अनुशासनहीन होते हैं और बच्चों पर पर्याप्त ध्यान भी नहीं देते। बहरहाल, शिक्षकों की यह धारणा आज की हकीकत है। यह आज भी इसलिए नहीं बनी हुई है कि शिक्षक खुद बेपरवाह हैं, बल्कि इसलिए कि जिन जटिल परिस्थितियों से हमारे शिक्षक जूझते हैं, उनसे बाहर निकलने का रास्ता उन्हें इन्हीं पूर्वाग्रहों में दिखता है।
इसी तरह की दो और धारणाएं हमारी शिक्षा-व्यवस्था से लिपटी हुई है। इसमें एक धारणा शिक्षकों की इस सोच से जुड़ी है कि कुछ बच्चे स्वाभाविक तौर पर बुद्धिमान होते हैं, और कुछ मंद। कई बार शिक्षक मुझे अपनी कक्षाओं में ले गए, ताकि यह दिखा सकें कि उनके छात्र कितने अच्छे हैं। मगर जब कोई बच्चा मेरे सवाल का उचित जवाब नहीं दे पाता है, तब शिक्षक महोदय मेरी तरफ मुखातिब होकर पूरी कक्षा के सामने बोल उठते हैं कि यह बच्चा बेवकूफ है। शिक्षकों की यह धारणा भी अनुभवों और सिद्धांतों की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। सच यह है कि तमाम बच्चे सीख सकते हैं, बस उन्हें सिखाने की गति और तरीका सही होना चाहिए। अगर कोई बच्चा नहीं समझ रहा है, तो यह उसकी गलती नहीं, बल्कि उसके शैक्षणिक माहौल की कमी है। इसी तरह, शिक्षकों में तीसरी धारणा यह है कि ‘गरीब’ होने की वजह से बच्चों में सीखने की ललक कम होती है। बेशक धनी परिवारों की तुलना में सामाजिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चों को बेहतर शैक्षणिक माहौल नहीं मिल पाता, मगर इसके लिए बच्चों को जिम्मेदार ठहराना गलत है। यह भी एक तरह की अमानवीय सजा ही है।