बीते पांच सितंबर को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने हमारे पड़ोसी देश श्रीलंका को मलेरिया-मुक्त घोषित किया, और यहां दिल्ली में उसी दिन इस मच्छरजनित बीमारी ने दो लोगों को लील लिया। मालदीव के बाद श्रीलंका इस उपमहाद्वीप का दूसरा ऐसा देश है, जो इस परजीवी से मुक्त हो चुका है। वहीं जुलाई के अंत तक भारत में 4,71,083 लोग इसके शिकार हो चुके थे और 119 लोगों की मौत हो चुकी थी। देश भर में मलेरिया के कुल मामलों में से लगभग आधे छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड में दर्ज होते हैं। मलेरिया, संक्रमित मादा एनोफेलीज मच्छर के काटने से होता है। बुखार, सिरदर्द, ठंड लगना और उल्टी आना इसके मुख्य लक्षण हैं। अगर समय पर इलाज की सुविधा न मिले तो मरीज की मौत भी संभव है। हालांकि ऐसा नहीं है कि भारत ने मलेरिया से लड़ने की कोशिश नहीं की। फरवरी में ही मलेरिया उन्मूलन की रूपरेखा घोषित करते हुए 2030 तक ‘मलेरिया मुक्त’ देश बनने का लक्ष्य तय किया गया है।
मगर देश में इन्फेक्शन की प्रवृत्ति और मच्छरों व लार्वा को खत्म करने की हमारी पुरानी रणनीति को देखते हुए यह भरोसा नहीं होता कि यह लक्ष्य पाया जा सकता है। वैसे, 2001 की तुलना में 2015 तक मलेरिया के मामलों में आधी कमी आ चुकी है। साल 2001 में 20.3 लाख लोग मलेरिया से पीड़ित थे, जबकि 2015 में यह संख्या घट कर 11.3 लाख हो गई। इसी तरह, 2001 में हुई 1,005 मौतों की तुलना में 2015 में इससे 287 लोगों की मौत ही हुई। फिर भी लक्ष्य पाने का भरोसा क्यों नहीं जगता? दरअसल, श्रीलंका की तरह इस रोग पर विजय पाने के लिए भारत को बंधी-बंधाई परिपाटी से अलग सोचना होगा। श्रीलंका ने मलेरिया के सभी संदिग्ध मामलों की खोज, उनकी जांच और इलाज के लिए लाइव इंटरनेट आधारित निगरानी परीक्षण की व्यवस्था की।
1990 के दशक की शुरुआत में उसने इस संक्रमण पर काबू पाने के लिए मच्छरों पर नियंत्रण साधने की बजाय मलेरिया परजीवी पर काबू पाने की रणनीति अपनाई। यह क्रांतिकारी बदलाव साबित हुआ। डब्ल्यूएचओ के दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र की निदेशक पूनम खेत्रपाल सिंह कहती हैं, ‘जिन इलाकों में संक्रमण की दर ज्यादा थी, वहां मोबाइल मलेरिया क्लिनिक की शुरुआत से मरीजों का शीघ्र और प्रभावी इलाज संभव हो सका। इससे इस रोग के परजीवी के फैलाव पर भी बखूबी नियंत्रण पाया जा सका।’
दोतरफा चुनौती
भारत के लिए चिंता की बात यह भी है कि यहां डेंगू और चिकनगुनिया जैसे मच्छरजनित रोग तेजी से पांव पसार रहे हैं। अगस्त के अंत तक देश भर में 12,000 से अधिक मामले चिकनगुनिया के और करीब 2,800 मामले डेंगू के दर्ज हो चुके थे। इनमें 60 मौतों की खबर भी आ चुकी है। साल 2010से चिकनगुनिया के मामलों में गिरावट आ रही थी, मगर 2015 में कर्नाटक में यह चिंताजनक रूप से उभरा। और तब से इसका भौगोलिक दायरा लगातार बढ़ रहा है। एक दशक पहले तक उत्तर भारत के चंद लोग ही डेंगू और चिकनगुनिया जैसे रोगों से परिचित थे, क्योंकि यह दक्षिण और पूर्वी राज्यों का रोग था। पर पिछले एक दशक में इन रोगों ने तमाम राज्यों की सीमाएं तोड़ीं और सैकड़ों लोगों को बीमार किया। मसलन, 2012 में महज छह मरीज चिकनगुनिया से पीड़ित थे, जो इस वर्ष तीन सितंबर तक बढ़ कर 560 हो गए हैं। साल 2015 में भारत में डेंगू के एक लाख मामले दर्ज किए गए। मगर जॉन्स हॉपकिंस ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के वैज्ञानिकों की मानें तो यह आंकड़ा कुल संक्रमण का एक अंश भर था।
चेन्नई के आसपास के इलाकों के 1000 से अधिक लोगों के एकत्र किए गए खून के नमूनों से यह खुलासा हुआ था कि सभी लोग डेंगू की चपेट में थे और 44 फीसदी चिकनगुनिया से भी संक्रमित थे। फिर भी उनमें से किसी का नाम संक्रमित व्यक्तियों की सूची में दर्ज नहीं हुआ था, क्योंकि या तो उन्हें बहुत मामूली बुखार था, जिसे मौसमी बुखार कह कर खारिज कर दिया गया था या फिर उनके खून की उचित जांच ही नहीं की गई थी। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डीआर श्रीनाथ रेड्डी कहते हैं, ‘असल में, भारत अपने राज्यों में गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को मुहैया कराने और उसे बरकरार रखने के मामले में विफल साबित हुआ है। प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी के लिए राजनेताओं के साथ ही पेशेवर चिकित्सकों की भी इनायत चाहिए।’
बढ़ता खतरा
इन तमाम बीमारियों के बीच एक और मच्छरजनित बीमारी का खतरा हमारे सामने खड़ा है। और वह है जीका। इसकी अनदेखी हमें भारी पड़ सकती है। सिंगापुर, थाइलैंड, फिलीपींस के अलावा मलेशिया में भी इसके संक्रमण के मामले सामने आए हैं, जहां एक गर्भवती महिला में इसकी पुष्टि हुई है। डेंगू और चिकनगुनिया फैलाने वाले मच्छर ही जीका वायरस के वाहक हैं। इस रोग का लक्षण 80 फीसदी लोगों में नहीं दिखता। इसकी चपेट में आने पर हल्का बुखार, शरीर पर चकत्तों का उभरना, आंख आना, थकान और जोड़ों में दर्द जैसी समस्याएं होती हैं। ये शिकायतें दो दिन से लेकर एक हफ्ते तक बनी रहती हैं। अगर गर्भवती महिला इससे संक्रमित हो जाए तो खतरा गर्भ में पल रहे बच्चे पर सबसे ज्यादा होता है। वह माइक्रोसेफली का शिकार हो सकता है, जिससे उसका सिर और दिमाग असामान्य रूप से छोटे हो सकते हैं। खेत्रपाल कहती हैं, ‘भारत में हर साल 2.6 करोड़ बच्चों का जन्म होता है और चूंकि अधिकतर संक्रमित लोगों में इस रोग के लक्षण नहीं उभरते, लिहाजा जन्म लेने वाले लाखों बच्चों पर विकलांगता का खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में, यह आवश्यक है कि तमाम गर्भवती महिलाओं की जीका-जांच हो।’
बहरहाल, भारत में इन रोगों की रोकथाम के तमाम उपाय आरोप-प्रत्यारोप में उलझ कर रहे जा रहे हैं, जो किसी रोग का भीषण प्रकोप सामने आने पर केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, स्वास्थ्य विभागऔरस्थानीय प्रशासन के बीच शुरू हो जाते हैं। लोगों की नाराजगी सामने आने के बाद साफ-सफाई का काम जरूर होता है। मच्छरों के प्रजनन-स्थल नष्ट भी किए जाते हैं, मगर ये तमाम उपाय ठंडी और शुष्क सर्दियों के मौसम आते ही बंद कर दिए जाते हैं, जब मौसम मच्छरों के प्रजनन के अनुकूल नहीं होते और संक्रमण की दर घट जाती है। खेत्रपाल सिंह ठोस रणनीति की वकालत करते हुए कहती हैं, ‘बीमारियों पर काबू पाना है, उनसे बचाव करना है और लोगों के जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनानी है तो हमें सबसे पहले स्वास्थ्य से जुड़े एकीकृत प्रयास करने होंगे और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को अधिक कुशल बनाना होगा। जरूरत साक्ष्य आधारित रणनीतियों को अमलीजामा पहनाने की भी है।’ क्या इस दिशा में हम आगे बढ़ेंगे?
– 12,000 से अधिक चिकनगुनिया के मामले भारत में दर्ज किए गए
– 2,800 के करीब मामले भारत में डेंगू के दर्ज किए गए