हम एक बंटे हुए समाज के रूप में जीने के आदी हैं, इसलिए हमें समाज में व्याप्त असमानता व्यथित नहीं करती, न ही हम इसके लिए जागरूक हैं। हालांकि हमने अपने संविधान में ऐसे समाज की परिकल्पना की है जो न्यायपरक और समतामूलक हो, लेकिन क्या वास्तव में अब तक हम ऐसा बन पाए हैं? या इस दिशा में कुछ उल्लेखनीय हो पाया है? अगर नहीं तो क्या हममें इसे लेकर कोई बेचैनी है? दरअसल, सरकारी स्कूलों में नामांकित बच्चों के बारे में बनाई गई धारणाओं की जड़ में यही बातें हैं। आखिर ये साधारण और गरीब बच्चे किस समाज का हिस्सा हैं? सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर बच्चों के पास आज भी राजनीतिक और आर्थिक ताकत नहीं है, जिसकी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था को दरकार है।
इन बातों की रोशनी में हमें शिक्षा व्यवस्था पर ही विचार करना होगा। हमारी शिक्षा व्यवस्था अतीत में ऐसी रही है, जिसमें एक वर्ग विशेष को ही शिक्षा का अधिकार था। इस ऐतिहासिक सच पर बहस की ज्यादा गुंजाइश नजर नहीं आती, क्योंकि इसकी कई मिसालें हमारे पास हैं। शिक्षा पर वर्ग विशेष के आधिपत्य ने समाज के एक बड़े वर्ग को पढ़ाई-लिखाई तक से वंचित रखा, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से सक्षम नहीं थे। यह बात लिंग और जाति के संदर्भ में भी लागू होती है। लेकिन स्वतंत्रता के बाद मानसिकता बदली और ‘सभी के लिए शिक्षा’ के प्रति राष्ट्र की प्रतिबद्धता दिखी। सन 2009 के आते-आते हमने इसे मौलिक अधिकार का रूप दे दिया। लेकिन आज भी सवाल जिंदा है कि क्या हम असमानता के आग्रह की जकड़न से मुक्त हो सके? क्या हमारी नजरों को सब ओर समानता की खोज रहती है? क्या किसी प्रकार की असमानता को देख कर हम विचलित हो जाते हैं?
आज सरकारी स्कूलों में आने वाले अधिकतर बच्चे कौन हैं? इस प्रश्न की तह में जाएं तो पाते हैं कि इनमें से ज्यादातर वही बच्चे हैं जिनके पास सामाजिक और आर्थिक ताकत सबसे कम है। शिक्षा व्यवस्था में कायम असमानता के कुछ आग्रह आज भी ऐसे बच्चे को अपनाने के लिए तैयार नहीं दिखते। इन आग्रहों को सामने रखें तो गरीब अभिभावकों पर यह आक्षेप निराधार लगता है कि उन्हें अपने बच्चों की शिक्षा से कोई सरोकार नहीं है या वे अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते। ऐसा वर्ग जो पीढ़ियों से शिक्षा से वंचित रखा गयाहो और हम उससे आज अपेक्षा करने लगें कि वह तमाम अभावों के बीच शिक्षा के महत्त्व को समझेगा, कितना उचित है? बच्चे को शिक्षा का अधिकार मिले, पारिवारिक काम के नाम पर अपने खेलने-पढ़ने का वक्त उससे न छिने, इसके लिए उसके माता-पिता या परिवार के पास सहज जीवन के लिए रोटी, कपड़ा और घर होना जरूरी है। यह सुनिश्चित करना किसकी जिम्मेदारी है?
एक समाज के तौर पर तो अक्सर हम बच्चों को लेकर असंवेदनशील ही रहते हैं। बड़ों और बच्चों के बीच की खाई हमारे समाज में व्याप्त है, जहां बच्चा होना मानो एक निचले पायदान पर होना है- चाहे परिवार में हो या समाज में। ऐसे में बच्चे अगर वंचित वर्ग से हों तो फिर स्थिति और विकट हो जाती है। वंचित वर्ग के बच्चों के पास अन्य बच्चों की तरह ही अपने स्वाभाविक अनुभव, ज्ञान और बाजार के दबावों में करवट बदल रही शिक्षा के खांचे अलग-अलग हैं। यही समस्या का मूल है जो ऐसे बच्चों को मुख्यधारा की शिक्षा के प्रति आकर्षित नहीं कर पाता है।
इस बात पर विचार करना होगा कि हमारे सरकारी स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली ‘विषय-वस्तु’ और शिक्षण शास्त्र उन बच्चों के माफिक है जो यहां बहुतायत में हैं या फिर इसमें ही कोई खामी है जिससे बच्चों के अधिगम स्तर पर वांछित परिणाम आते नहीं दिखते। एक वर्ग विशेष के माफिक शिक्षा व्यवस्था में कुछ आमूल-चूल परिवर्तन करने होंगे। ये परिवर्तन पाठ्य-वस्तु से लेकर अधिगम यानी सीखने की विधियों और फिर सीखने के स्तर पर चाहिए। साधारण वर्ग के बच्चों की संख्या नजरअंदाज करने योग्य नहीं है। अगर इन बच्चों की गुणवत्तापरक शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया गया तो एक विकसित राष्ट्र के रूप में उभरने का संकल्प तो एक ढकोसला भर ही होगा।