पानी नहीं तो मछली नहीं और बिन मछली मराठवाड़ा के लाखों मछुआरों का जीवन कैसे चले?- विनय सुल्तान

50 साल की गीता बाई और उनके परिवार की दिनचर्या में पिछले तीन साल के दौरान तेजी से बदलाव आया है. उनके लिए सही समय पर स्थानीय थोक मंडी में पहुंचना दिन की सबसे बड़ी चुनौती बन चुका है. वे मुंबई, पुणे या पता नहीं कहां से आई हुई मछलियों को थोक में खरीद कर शाम को लगने वाली हाट में बेचती हैं. जब हर रेहड़ी के लिए माल का स्रोत एक ही हो तो गुणवत्ता ही ऐसी चीज है जो आपको बाजार में टिकाए रखती है. थोक बाजार में जल्दी से पहुंचकर मछलियां खरीद लेने और फिर उन्हें जल्दी ही हाट में ले जाने से वे ताजी बनी रहती हैं. इस चक्कर में गीता बाई की दिनचर्या युद्ध सरीखी हो गई है. गीता के लिए यह संकट हाल ही के सालों में खड़ा हुआ है.

तीन साल पहले ये मछुआरे अपने तालाब से पकड़ी गई एक किलो मछली पर 40 से 100 रुपये मुनाफा कमा लेते थे. अब वे थोकबाजार से बाहर की मछली खरीदकर फुटकर में बेचते हैं जिससे उन्हें 10-20 रुपये का ही मुनाफा होता है

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