किसके सपने– कृष्णप्रताप सिंह

अरसा पहले एक गीत में एक बच्चा अपनी मां से कहता था कि वह गोली चलाना सीखेगा, क्योंकि उसे लीडर नहीं, फौजी अफसर बनना है! कई बार इस गीत को युवा पीढ़ी के अराजनीतिकरण की ‘गर्हित’ कोशिशों से भी जोड़ा जाता था। लेकिन अब कोई टॉपर फौजी अफसर बनने की इच्छा भी नहीं दर्शाता। अगर कभी उसके सपनों में समाज सेवा शामिल होती है तो वह एनजीओ है जिसमें बदले में मेवा खाने की गारंटी हो जाती है। इसके अलावा, उसकी किसी समाज कार्य में भी दिलचस्पी नहीं है। देश की अधिकतर माध्यमिक शिक्षा परिषदों द्वारा संचालित हाईस्कूल और इंटर की परीक्षाओं के नतीजों में शीर्ष स्थान प्राप्त करने वालों में से एकाध अपवादों को छोड़ दें, तो आमतौर पर सभी आगे चल कर ‘बड़ी’ कंपनियों की बड़े पैकेज वाली ‘एग्जिक्यूटिव’ किस्म की नौकरियां करना चाहते हैं। राजनीति और उसके नायकों से घृणा करना सिखा कर युवाओं को उससे विमुख करने की कवायदें तो इन नतीजों के आईने में इस हद तक सफल हो गई दिखती हैं कि अब कोई भी टॉपर नेता बन कर ‘गंदी’ राजनीति की सफाई नहीं करना चाहता।

महज दो-तीन दशक पहले तक ऐसे बच्चों के अरमानों में खासी विविधता होती थी। उनमें कोई अच्छा वकील बनना चाहता था तो कोई अध्यापक। कोई बड़ा वैज्ञानिक बनना चाहता था तो कोई डॉक्टर। कोई-कोई किसानों और मजदूरों के लिए अपना जीवन अर्पित करने का भी जज्बा दिखाता था। मतलब देश और समाज उनके सपनों में पूरी शिद्दत से शामिल थे। लेकिन अब जैसे सारे सरोकार उस सफलता के हाथों के खिलौने बन गए हैं, जिसे गाड़ी, नौकर, बंगला, बैंक बैलेंस आदि से मापा जाता है। देश की आजादी के शुरुआती सालों की सरकारों ने जनदबाव में ही सही, अपने स्तर पर अच्छे नागरिकों का निर्माण कर सकने वाली शिक्षा का एक अपेक्षाकृत बेहतर ढांचा खड़ा किया था।

यकीनन उस ढांचे में भी कमियां थीं। लेकिन भूमंडलीकरण के साथ सारा जोर ऐसे संस्थानों पर हो गया, जहां बड़ी कंपनियों के लिए अच्छे पेशेवर और उनके उपयुक्त मानसिकता पैदा ही एकमात्र ध्येय है। इस कारण मानविकी पढ़ाने वाले विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में अब पढ़ाई नहीं, सिर्फ प्रवेश और परीक्षा होती है और वे अयोग्य डिग्रीधारियों की उत्पादन इकाइयों में बदल गए हैं। दूसरी ओर, उक्त संस्थानों में प्रशिक्षित टॉपरों के ज्ञान और प्रतिभा को ‘किसी भी कीमत पर खरीद कर’ कंपनियां हमारी ही लूट में इस्तेमाल कर रही हैं। इस खरीद-बिक्री से ‘अभिभूत’ कोई टॉपर पायलट भी होना चाहता है तो वायुसेना या सरकारी एयरलाइंस का नहीं, बल्कि किसी निजी एयरलाइंस का!

टॉपरों के शहरों के अखबारों में खबरें छप रही हैं कि उन्होंने इस ‘पराक्रम’ से अपने शहर का नाम रोशन किया है। उनके हंसते-मुस्कराते चित्रों के साथ सफलता का सारा श्रेय किसी कोचिंग संस्थान, माता-पिता, गुरुजनों या प्रियजनों को देने वाले उनके बयान भी छप रहे हैं। किसी का दृष्टिकोण बहुत सकारात्मक है तो वह इसे इस तरह भी देख सकता है कि जो प्रतिभाएं कभी देश का नाम रोशन करती थीं, अपने दुर्दिन में भी वे कम से कम अपने शहर का नाम तो रोशन करही रही हैं। लेकिन किसी टॉपर द्वारा अपने सारे संकल्प जगा कर किसी परीक्षा में ऊंचा स्थान पा लेने या उसके बूते महज अपने सुखद और सुंदर भविष्य की गारंटी देने वाली एक अदद बड़ी नौकरी उगाह लेने से उसके शहर का नाम कैसे रोशन होता है? क्या उसके शहर की कामनाओं को सुनहरे पंख तभी हासिल होते हैं जब कोई कंपनी उसके किसी टॉपर को कलाई मरोड़ कर उससे छीन लेती है? क्या इससे शहर को कोई ज्ञात-अज्ञात, प्रत्यक्ष या परोक्ष सुरक्षा हासिल होती है?

अनुभव तो कहता है कि ये बड़ी नौकरियां अपने शहर की कौन कहे, आसपास के शहरों की सेवा का भी मौका नहीं देतीं। उलटे उस व्यवस्था का हिस्सा बना देती हैं जो कई बार बड़ी बदनामी का जरिया बन जाता है। तब टॉपर अपनी प्रतिभा और आत्मसम्मान की कीमत पर नौकरी से जो कुछ हासिल करते हैं, उनके शहर का नाम भला कैसे रोशन हो सकता है? फिर सामाजिक जिम्मेदारियों से भागती सरकारों और लूटो-खाओ की आंधी को ग्लोबल बना डालने वाली कंपनियों की सेवा करके कोई टॉपर अपना नाम रोशन कर सकता है क्या? नाम तो वास्तव में वह रोशन करता है, जिसका खुद को नहीं, दूसरों को रोशन करने में यकीन हो। जिसमें अपने हिस्से की रोशनी दूसरों को दे डालने का जज्बा नहीं, वह स्याह जिसे भी कर दे, रोशन किसी को नहीं करता। हमारे टॉपर तक महज खुद को रोशन करने के लिए सारा उजाला अपनी मुट्ठी में कैद रखने के फेर में हैं तो यह एक निराशाजनक खबर है। इस स्थिति की चिंता को कल पर नहीं छोड़ा जा सकता।

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