तानाशाही नेतृत्व, खैरात की राजनीति– राजदीप सरदेसाई

बाहर से देखने पर जयललिता और ममता बनर्जी एक-दूसरे से उतनी ही भिन्न हैं, जितना इडली सांभर, माछेर झोल से। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री पोएस गार्डन की स्वयंभू साम्राज्ञी हैं। पहुंच से दूर ऐसी शख्सियत, जो राजसी ठाठ-बाट से रहती हैं। इसके ठीक विपरीत पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री सलवटों वाली साड़ी और चप्पलों में खुद को लोक नायिका के रूप में पेश करना पसंद करती हैं और सड़क पर संघर्ष करने वाली नेता की अपनी छवि पर मुग्ध हैं। जयललिता कॉनवेंट में पढ़ीं सिनेमा स्टार हैं, जिन्होंने एमजीआर की विरासत पर कब्जा किया, जबकि ममता कालीघाट की भीतरी गलियों से आईं ‘बाहरी’ शख्सियत हैं, जो बिना किसी गॉडफादर के राजनीति में आगे बढ़ीं। इसके बावजूद सत्ता में लौटने के लिए संघर्षरत दोनों नेताओं में समानताएं रोचक हैं। वे समकालीन भारतीय राजनीति में उम्मीद व नाउम्मीदी दोनों दर्शाती हैं।

जयललिता और ममता, दोनों अपने दलों को कड़ाई से नियंत्रित वन-वुमन शो की तरह चलाती हैं : क्या कोई जानता है कि उनके दलों में नंबर दो कौन है, एेसा कोई जिसे इनका राजनीतिक उत्तराधिकारी कहा जा सके? पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु से गुजरते हुए आपको अन्नाद्रमुक या तृणमूल कांग्रेस के किसी अन्य नेता का पोस्टर नहीं दिखेगा। नतीजा यह है कि शीर्ष पर बैठे व्यक्ति से ही पार्टी की पहचान है। वैकल्पिक सत्ता केंद्र के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। कांग्रेस में मां-बेटा है, भाजपा में नरेंद्र मोदी को कई मौकों पर अमित शाह या अरुण जेटली तक को जगह देनी पड़ती है।

अम्मा और दीदी, दोनों अपने अनुयायियों और विधायकों में आदर व भय की मिश्रित भावना पैदा करती हैं, जो लगभग धमकाए जाने जैसी ही भावना है। किसी अन्नाद्रमुक सांसद को टीवी शो पर आमंत्रित कीजिए और तत्काल प्रतिक्रिया मिलती है, ‘मुझे अम्मा से पूछना पड़ेगा।’ इसके बाद वह शख्स गायब ही हो जाता है। तृणमूल कांग्रेस के स्थानीय नेता बोलने के लिए थोड़े उत्सुक होते हैं, लेकिन पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी की तरह असहमति प्रकट करने वाले नेताओं को अहसास करा दिया जाता है कि पार्टी में उनके दिन पूरे हो गए हैं। संभव है कि नेतृत्व की यह निर्दय, अस्थिर किस्म की शैली पार्टी में पुरुषों को लगातार धमकाकर रखने के लिए जान-बूझकर विकसित की गई है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में शायद गढ़ी हुई सनक की कुछ मात्रा यह सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि वे अपनी नेता को हल्के में न लें। पूर्व मुख्यमंत्री ओ. पनीरसेलवन ने ‘सुप्रीमो’ के सामने दंडवत प्रणाम किया था। पार्टी के भीतर जयललिता की छवि का इससे बेहतर प्रतीक नहीं हो सकता। शायद ममता चापलूसी के

ऐसे सार्वजनिक प्रदर्शन की अनुमति न दें, लेकिन निजी स्तर पर तृणमूल नेताओं से अपेक्षा रहती है वे हर वक्त ‘बॉस’ की ‘सेवा’ में रहें।

 

दोनों की शासन-शैली लोक-लुभावन कदमों के एक जैसे भारी डोज़ से लैस होती है, जिसमें लोक-कल्याण का मिश्रण प्राय: वित्तीय लापरवाही से होता है। जयललिता की ‘खैरात’ की संस्कृति 1 रुपए में इडली देने वाले ‘अम्मा कैंटीन’ जैसे सच्चे इनोवेटिव कदम से लेकर मतदाताअों को ‘रिश्वत’ में मिक्सर-ग्राइंडर व स्मार्टफोन, यहां तक कि इसबार स्कूटर देने तक फैली है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ऐसी चीजें बांटने की अय्याशी करने की स्थिति में तो नहीं हैं, लेकिन वे भी घूस आधारित इसी व्यवस्था को आगे बढ़ा रही हैं, जिसमें 2 रुपए किलो चावल, रियायती दरों पर दवाएं, लड़कियों को मुफ्त साइकिलें और मदरसों को विशेष अनुदान जैसी सहूलियतें दी जा रही हैं। ऐसे में कोई अचरज नहीं कि तमिलनाडु और बंगाल दोनों विशाल बजट घाटे का सामना कर रहे हैं।
दोनों के खिलाफ शहरी मध्यवर्ग का रोष बढ़ता जा रहा है, जो उन पर जवाबदेही रहित सत्ता चलाने और भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप देने का आरोप लगाते हैं। चेन्नई में मुझे एक व्यवसायी ने खुलेआम ‘रेट कार्ड’ के बारे में बताया, जिसके तहत शीर्ष राजनीतिक नेतृत्व को भुगतान करना होता है। कोलकाता में माफिया शैली में काम करने वाले स्थानीय ‘सिंडीकेट’ की बात की जाती है, जो पार्टी की ओर से पैसा इकट्‌ठा करता है। भ्रष्टाचार का आरोप जयललिता के पूरे राजनीतिक कॅरिअर में उनका पीछा करता रहा है। इसके विपरीत ममता ‘ईमानदार’ राजनेता की ख्याति होने के कारण ही सत्ता में आईं। किंतु पिछले साल सामने अाए शारदा चिट फंड घोटाले और विधायकों को पैसा लेते कैमरे में कैद करने वाले नारद स्टिंग ऑपरेशन से ममता की ईमानदार छवि को ठेस पहुंची है।

 

फिर भी इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वे जन-जन की नेता हैं और मतदाताओं से खासतौर पर महिलाओं से तत्काल संवाद साध लेती हैं। दोनों अपनी राजनीति सावधानीपूर्वक रची गई गरीब समर्थक छवि कायम रखने में कामयाब रही हैं। जयललिता की शराब नीति चाहे भरोसा तोड़ने वाली रही, लेकिन अब वे पूर्ण शराबबंदी की बात कर स्थिति संभालने में लगी हैं। ममता का ‘मां, माटी, मानुष’ का नारा चाहे खोखला नज़र आता हो, लेकिन इससे वंचितों के नेता की उनकी छवि पर कोई विपरीत असर नहीं पड़ा है। उनके राजनीतिक कॅरिअर कई उतार-चढ़ाव से गुजरे हैं, लेकिन दोनों नेताओं ने संघर्ष नहीं छोड़ा: दो दशक से भी ज्यादा समय तक ममता बंगाल में लाल सेना के खिलाफ अकेली योद्धा रही हैं, जबकि जयललिता जेल जाती-आती रही हैं। कठिन समय में उनका लचीलापन, सत्ता की उनकी लालसा के साथ विपरीत स्थिति को मात देकर जीत हासिल करने का दृढ़संकल्प भी जाहिर करता है।

दोनों को शायद इस तथ्य का फायदा मिला है कि उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी प्रासंगिकता साबित करने के लिए संघर्षरत हैं। डीएमके-कांग्रेस गठबंधन का नेतृत्व 93 वर्षीय एम. करुणानिधि कर रहे हैं। लगभग तय है कि यह उनकी अंतिम राजनीतिक लड़ाई है, जबकि बंगाल में वाम-कांग्रेस गठबंधन हताशा में की गई जोड़-तोड़ भर है। ज्यादातर जनमत संग्रह संकेत देते हैं कि दोनों सत्ता में लौटेंगी। वे जीतें या न जीतें, लेकिन एक बात तय है : प्रासंगिक बने रहने की उनकी सहज-वृत्ति और लार्जर देन लाइफ व्यक्तित्व से यह सुनिश्चित होता है कि वे संघर्ष नहीं छोड़ने वालीं।

 

पुनश्च : यदि 2016 अम्मा व दीदी के लिए परीक्षा का वर्ष रहा है तो अगला साल ऐसी ही विशेषताओं वाली एक और महिला नेता के लिए परीक्षा का रहेगा : मायावती याबहनजीएक और राजनीतिक ‘सुप्रीमो’ हैं, जिन्हें कम करके नहीं आंका जा सकता। ये ‘तीन देवियां’ भारतीय चुनावी राजनीति के लोकतांत्रिक चरित्र की शक्ति के साथ-साथ तानाशाही तथा नैतिक खोखलेपन की ओर इसके खतरनाक पतन की प्रतीक भी हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

 

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