पिछले कई वर्षों से हम एक नया बदलाव देख रहे हैं। वे मध्यवर्गीय जातियां, जिनके पास जमीन है, पैसा भी है और संख्या बल के लिहाज से राजनीतिक ताकत भी है, अब आरक्षण की मांग कर रही हैं। चाहे वह जाटों का नया आंदोलन हो, या फिर महाराष्ट्र में मराठों का आंदोलन। आंध्र प्रदेश में कापू समुदाय भी आरक्षण की मांग कर रहा है, तो असम में अहोम और गुजरात में पटेल समुदाय की भी यही मांग है। वाकई यह सोचने वाला सवाल है कि आखिर जिन समुदायों का समाज में दबदबा रहा है, वे अपने लिए आरक्षण की मांग क्यों कर रहे हैं?
दरअसल, जब आरक्षण के प्रावधान संविधान में जोड़े गए, तब वे न तो जाति को लेकर थे और न ही आर्थिक पिछड़ेपन को लेकर। तब सामाजिक और शैक्षणिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण देने की बात थी। यह सोचा गया था कि आर्थिक पिछड़ापन दूर करना सरकार का फर्ज है, इसलिए आरक्षण को गरीबी दूर करने का हथियार नहीं समझा गया था। आरक्षण के बारे में पहले काका कालेलकर कमेटी की सिफारिशें आईं, फिर मंडल आयोग की, मगर इंदिरा गांधी ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की, और वी पी सिंह सरकार के कार्यकाल में इसे लागू किया गया। चूंकि वी पी सिंह सरकार राजनीतिक दबाव में थी, इसलिए माना जाता है कि उन्होंने आरक्षण का दांव खेला।
तब यह तय हुआ था कि सरकारी नौकरियों में सिर्फ 27 फीसदी आरक्षण दिया जाएगा। मगर मंडल आयोग विरोध के मुद्दे ने जिस तरह से तूल पकड़ा, उससे वी पी सिंह की सरकार चली गई। बहरहाल, मंडल आंदोलन से उत्तर भारत में नया ओबीसी नेतृत्व उभरा, जिसमें लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव, नीतीश कुमार, कल्याण सिंह, उमा भारती जैसे राजनेता शामिल हैं। उत्तर भारत में बेशक मंडल आंदोलन के बाद ओबीसी नेतृत्व का उदय हुआ, मगर दक्षिण भारत में यह काफी पहले से था। उत्तर भारत में तो आलम यह रहा है कि पिछले दो दशकों में जो सरकारें बनीं हैं, वे ओबीसी नेतृत्व के तहत ही बनीं। स्वाभाविक तौर पर इसकी कठोर प्रतिक्रिया उन समुदायों से आई है, जो राजनीतिक रूप से ताकतवर रही हैं और जमीन-जायदाद से संपन्न हैं। उनमें यह आशंका गहरी हुई है कि उनकी ताकत कोई दूसरा ले जाएगा। इसलिए अब यह मांग हो रही है कि या तो हमें भी आरक्षण दो, या फिर इसका प्रावधान ही खत्म करो। कई विश्लेषक इससे इत्तफाक रखते हैं कि गुजरात में पाटीदारों या हरियाणा में जाटों ने जिस तरह से आरक्षण को लेकर माहौल गरम किया है, वह दरअसल आरक्षण खत्म करने का ही पहला कदम है।
सवाल यह भी है कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? इसके कई कारण हैं। ये समुदाय जमीन से जुड़े हैं। दिक्कत है कि कृषि क्षेत्र का पर्याप्त विकास नहीं हो पा रहा। रोजगार के अवसर कम हो रहे हैं। मुश्किल यह भी है कि इन समुदायों ने अपने बच्चों को उस तरह की तकनीकी या उच्च शिक्षा नहीं दी, जिससे वे आधुनिक जमाने की नौकरियों से तालमेल बिठा सकें। वे खुद को आईटी, स्टार्ट अप या मेक इन इंडिया जैसी कोशिशों के मुफीद नहीं पा रहे। एक मुद्दा आरक्षित वर्गों व जातियों के क्रीमी लेयर का है, जो सारा फायदा ले जा रहा है। इससे बच्चों और नौजवानों में नाराजगी बढ़ी है। उन्हें लगता है कि 90 फीसदी अंक लाकर भी उनका दाखिला बढि़या संस्थानों में नहीं होता, जबकि अपेक्षाकृत काफी कम अंक लाकर आरक्षण के बूते दूसरी जातियां लाभ उठाती हैं। इससे सामाजिक कटुता बढ़ी है। जाटों का सवाल इससे जुदा नहीं है। पिछली हुड्डा सरकार ने आरक्षण की मांग मान ली थी, मगर सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया। जाट शुरू में तो शांति से अपनी आवाज उठा रहे थे, मगर सरकार ने वह आवाज अनसुनी कर दी। नतीजतन जाटों में हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ी। अभी बवाल इसलिए भी मचा कि सरकार ने तब कदम उठाने शुरू किए, जब स्थिति उसके हाथों से बाहर चली गई। एक तो सरकार जाटों को मनाने में नाकाम रही, दूसरा, जाटों को गुस्सा इस वजह से भी है कि हरियाणा में सरकार की कमान किसी गैर-जाट के हाथ में है। जब से हरियाणा राज्य बना है, तब से ज्यादातर कोई जाट ही राज्य का मुख्यमंत्री रहा है। मगर इस बार भाजपा ने न सिर्फ एक गैर जाट को राज्य का मुखिया बनाया, बल्कि इसका महिमामंडन भी किया। आरक्षण से वे अपने अधिकारों में कमी पहले से ही महसूस कर रहे थे, मगर भाजपा के इस कदम से उन्हें लगा कि उनका अस्तित्व ही खत्म होने वाला है। मनोहरलाल खट्टर के साथ मुश्किल यह है कि उनके पास ज्यादा बड़ा अनुभव नहीं है, इसलिए वह स्थिति संभाल नहीं पा रहे हैं।
जाट ओबीसी के लिए तय 27 फीसदी में ही अपने लिए आरक्षण मांग रहे हैं। चूंकि नए रोजगार पैदा नहीं हो रहे, इसलिए उन्हें लग रहा है कि योग्यता के हिसाब से उन्हें नौकरी नहीं मिल रही। हालांकि हरियाणा में अभी जो हुआ है, उसे कोई भी आर्थिक आधार से जोड़ सकता है, मगर मेरा मानना है कि वहां का मामला विशुद्ध रूप से राजनीतिक समस्या है। जाटों को पता है कि 27 फीसदी के कोटे से बाहर आरक्षण लेने का अर्थ है सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसे खारिज कर दिया जाना। इसलिए 27 फीसदी के अंदर ही आरक्षण को लेकर वे आक्रामक हैं। यहां यह भी सवाल है कि अगर इस तरह आरक्षण का लाभ मिलता रहा, तो दूसरी जातियां भी इस रास्ते पर बढ़ चलेंगी, जिससे यह समस्या और जटिल हो जाएगी। नाराजगी ओबीसी समुदायों में भी है। उन्हें लगता है कि अन्य जातियों को आरक्षण दिया गया, तो उनके अवसर सिमट जाएंगे। यदि स्थिति को संजीदगी सेनहींसुलझाया गया, तो आने वाले दिनों में हम जाति-युद्ध के गवाह बन सकते हैं। सवाल है कि इस मुद्दे को सुलझाया कैसे जाए? मेरी राय में इस पर व्यापक नजरिया चाहिए। आज राजनीति इतनी तंगदिल हो गई है कि जब संकट मुहाने आ खड़ा होता है, तब राजनेता उस विषय में सोचते हैं। इस नजरिये को बदलने की जरूरत है। एक दीर्घकालीन योजना चाहिए, ताकि आरक्षण की आग आगे न फैले।