आने वाले दिनों में इस मुद्दे पर जो कवायद होगी, उसका अनुमान लगाया जा सकता है। पहले किसान शिकायत लेकर आएंगे, फिर धरना-प्रदर्शन करेंगे। फिर सरकारें आश्वासन देंगी। केंद्र सरकार तो लोकसभा में आश्वासन दे ही चुकी है। राज्य सरकारें पटवारियों से मूल्यांकन की फाइल चलवाएंगी। फिर केंद्र सरकार से मदद से गुहार करेंगी। फिर केंद्र सरकार अपने बाबुओं को हवाई दौरे पर भेजेगी। फिर मुआवजे की राशि का भाव-तोल होगा। कई महीने बाद राज्य सरकारें किसानों को मुआवजे की घोषणा करेंगी। मुआवजे के चेक पहुंचते-पहुंचते साल भी लग सकता है। उत्तर प्रदेश में तो अभी तक पिछली ओलावृष्टि के सारे चेक नहीं बंटे। उसके बाद खबरें आनी शुरू होंगी कि किसान को 225 रुपये का चेक मिल गया तो किसी को 56 रुपये का। हर साल यही खेल होता है।
मुआवजे की राशि हर राज्य सरकार तय करती है। अधिकांश सरकारें बस उतना मुआवजा देती हैं, जितना उन्हें केंद्र सरकार से मिलता है। केंद्र सरकार ने बहुत साल बाद अपने रेट बढ़ाए और फिर भी प्रति एकड़ सिंचित भूमि पर 5400 रुपये और असिंचित भूमि पर 2700 का मुआवजा तय किया। सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार किसान की फसल की लागत इससे कई गुना ज्यादा है।
भारत सरकार के अनुसार कपास की फसल की लागत 23,000 रुपये, मूंगफली की 20,000, धान की 17,000 और सोयाबीन की लागत 11,000 रुपये प्रति एकड़ है। अगर पूरा मुआवजा मिल जाए तो भी किसान का खर्चा तक नहीं निकलेगा। जो उसे आमदनी होने वाली थी, उसकी तो बात ही छोड़ दीजिए।
वास्तव में उसे यह मुआवजा भी नहीं मिलता। फसल के नुकसान का मूल्यांकन का काम पटवारी के हाथ में दिया जाता है। न तो सरकार के पास पर्याप्त पटवारी हैं, न ही पटवारियों के पास कोई तकनीक है। जाहिर है फसल के मूल्यांकन के आंकड़े घर में बैठकर अपनी मर्जी से भरे जाते हैं। ऊपर से अजीब-अजीब नियम। किसान के नुकसान को तब तक नहीं माना जाएगा, जब तक पूरे ब्लॉक या तहसील में फसलों का नुकसान नहीं हुआ। मूल्यांकन होने के बाद महीनों तक फाइलें सरकारी दफ्तरों में इधर से उधर घूमती रहती हैं। किस जिले में कितनी किस्त भेजी जाए, इसमें राजनैतिक भेदभाव भी होता है। और अंतत: जब चेक आ भी जाता है तो उसे लेने के लिए भी ‘सहायता शुल्क’ देना पड़ता है। उत्तर प्रदेश के किसान ने बताया कि 15 एकड़ की फसल में नुकसान के बदले उसे 3600 रुपये का चेक मिला, वह भी 600 रुपये रिश्वत देने के बाद।
इस व्यवस्था का रोना रोने वाला हर जगह मिल जाएगा, लेकिन इसे बदलने की चिंता किसी को नहीं है। आजकल सरकार के पास हर ऐसे सवाल का एक ही जवाब है-प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना। सरकार की मानें तो इस एक योजना से किसान के सारे दु:ख दूर हो जाएंगे। हकीकत कुछ और है। आज देश में सिर्फ 22 प्रतिशत फसलों का बीमा होता है, और वह भी किसान क्रेडिट कार्ड लेने वालों के साथ जबरदस्ती करके। अधिकांश किसानों को पता भी नहीं होता कि उनका बीमा हुआ है और उसकी किस्त कट गई है। इस नई योजना से यह स्थिति बदलने वाली नहीं है। अगर इस योजना से किसी को फायदा होगा तो बीमा कंपनियों को। अगर किसान को मौसम की मार से बचाना है तो फसल के नुकसान के मुआवजे की पूरी व्यवस्था को बदलना होगा। मुआवजे की राशि कम से कम उतनी हो, जितनी सरकार के हिसाब से उस फसल की लागत है। यह पूरी राशि केंद्र सरकार राष्ट्रीय आपदा राहत कोष से राज्य सरकारों को दे। मुआवजे का लाभ हर फसल, हर खेत और हर किस्म के नुकसान पर मिले और इसे जमीन के मालिक को नहीं, काश्तकार को दिया जाए। नुकसान का आकलन मौसम की रिपोर्ट और सेटेलाइट की मदद से हो, पटवारी की रपट औरअनावरीके आधार पर नहीं। मुआवजे का भुगतान खेती करने वाले के बैंक एकाउंट में हो।
इसमें पैसा खर्च होगा। हर साल 25,000 करोड़ से एक लाख करोड़ रुपये तक का खर्चा है। सवाल है कि जो सरकार अपने कर्मचारियों के वेतन बढ़ाने में हर साल एक लाख करोड़ रुपया अतिरिक्त खर्च करने को तैयार है, क्या वह देश की आधी आबादी को आपदा से बचाने के लिए भी उतना खर्च करने को तैयार है? या कि हमारा किसान औद्योगिक विकास और प्रकृति के विनाश का जुर्माना भरता रहेगा? इस साल की तरह हर साल के बजट में उसे सिर्फ डॉयलॉग ही मिलेंगे?