महाराष्ट्र के वाशीम ज़िले के एक गांव में रहने वाले किसान मुकुंदा वाघ ने 2009 में पहली बार कीटनाशक पीकर आत्महत्या करने की कोशिश की थी.
जब वो बेहोश होकर गिर गए और उनके मुंह से झाग निकलने लगा तो उनकी पत्नी ने उन्हें देखा और अस्पताल ले गईं.
उस वक़्त अस्पताल में डॉक्टरों ने उनकी जान बचा ली. लेकिन तीन साल के बाद मई 2012 में क़िस्मत ने उनका साथ नहीं दिया.
दो एकड़ ज़मीन में लगी सोयाबीन की उनकी फ़सल बर्बाद हो गई और वो साठ हज़ार रुपए के क़र्ज़ में डूब गए. उन्होंने ये कर्ज़ अपने दोस्तों और रिश्तेदारों से लिया था.
इसके बाद गांववालों को उनका मृत शरीर गांव में ही मौजूद गैस संयंत्र के पास मिला. मुकुंदा 38 साल के थे.
मुकंदा वाघ की पत्नी का कहना है, "कुछ लोग कहते हैं कि उन्होंने बहुत पी लिया था तो कुछ कहते हैं कि उन्हें करंट लग गया था. उनका मृत शरीर काला पड़ गया था. जब यह घटना हुई तो उस वक़्त मैं अपने मायके गई थी. मेरे बच्चों ने कहा कि अगर मैं घर पर होती तो उनके पिता जीवित होते."
आज चार सालों के बाद उन्होंने अपने परिवार को फिर से संभाला है. वो अपने खेत और दूसरे के खेतों में घंटों कड़ी मेहनत करती हैं. वो अपने बेटे और बेटी को पॉलिटेक्निक में पढ़ा रही हैं.
उन्होंने अपने पति का बहुत सारा क़र्ज़ उतार दिया है. एक स्वंयसेवी समूह से कम ब्याज पर मिलने वाला क़र्ज़ उनके लिए वरदान की तरह है.
वो कहती हैं, "मैं ख़ुशक़िस्मत हूं, दूसरी विधवाएं इतनी ख़ुशक़िस्मत नहीं हैं."
इन्हीं में से एक 22 साल की अर्चना बुरारे हैं जो कि अपने बुढ़े मां-बाप और एक बच्चे के साथ वाशिम के एक गांव में रहती हैं.
जब उनके पति ने 2014 में कीटनाशक पीकर आत्महत्या की तो ससुराल वालों ने उन्हें अकेला छोड़ दिया और उन्हें अपने मायके लौट जाने के लिए दबाव डालने लगे.
जब अर्चना की शादी हुई थी तो उनकी उम्र 19 साल थी. उनके पति ने पचास हज़ार रुपए क़र्ज़ लेकर खेती के लिए 12 एकड़ ज़मीन भाड़े पर ली थी.
उन्होंने उसमें चावल, मूंगफली और सोयाबीन की खेती शुरू की. पहले साल अच्छी फ़सल रहने के बाद उन्होंने दूसरे खेत में काम करना शुरू किया.
अर्चना बताती हैं, "शुरु में सबकुछ ठीकठाक चल रहा था, लेकिन तभी बारिश रूक गई और खेत बंजर हो गए. कुंए भी सूख गए और खड़ी फ़सल बर्बाद हो गई."
वो बताती हैं कि तभी उनके पति ने शराब पीकर उनके साथ मार-पीट करना शुरू कर दिया. फिर एक सड़क दुर्घटना में उनकी एक टांग टूट गई लेकिन वो महंगी सर्जरी का ख़र्च नहीं उठा सकते थे.
इस बीच उनके ऊपर क़र्ज़ बढ़ता गया. बहन की शादी में 25000 रुपएका क़र्ज़ लिया, फिर फ़सल बर्बाद होने की वजह से 20000 रुपए का क़र्ज़ चढ़ गया.
अर्चना का कहना है, "मैं अपने मां-बाप के घर चली गई थी और जब उन्होंने कीटनाशक पीया था तो उस वक़्त वो घर में अकेले थे. "
वो आगे बताती हैं, "मुझे कोई मुआवज़ा नहीं मिला क्योंकि मेरे पति के नाम पर ज़मीन नहीं थी. मेरे ससुराल वालों ने मुझसे नाता तोड़ लिया है."
अर्चना बुरारे एक सरकारी चाइल्डकेयर केंद्र में खाना पकाने का काम करती हैं. उन्हें इसके लिए हर महीने 850 रुपये मिलते थे, लेकिन पिछले आठ महीने से उन्हें वो पैसे भी नहीं मिले हैं.
उनकी विधवा पेंशन की फ़ाइल भी सरकारी दफ़्तरों में धक्के खा रही है. फ़िलहाल अर्चना दूसरे के खेत में मज़दूरी करके अपने परिवार का पेट पालने के लिए संघर्ष कर रही हैं.
एक अनुमान के मुताबिक़ 2004 से लेकर 2013 के बीच महाराष्ट्र में हर साल 3000 से ज़्यादा किसानों ने आत्महत्या की है. हाल ही में संसद में एक मंत्री ने बताया कि पिछले साल 3228 किसानों ने आत्महत्या की है, जो पिछले 14 सालों में सबसे ज़्यादा है.
आत्महत्या करने वाले केवल 1818 किसानों के आश्रितों को एक लाख रुपए की मुआवज़ा राशि दी गई है, जबकि बाक़ी को इसके योग्य नहीं समझा गया.
महाराष्ट्र का विदर्भ क्षेत्र कम बारिश के कारण सबसे ज़्यादा प्रभावित इलाक़ा है. विदर्भ के क्षेत्र में महाराष्ट्र के 11 ज़िले आते हैं.
जहां नक़दी फ़सलों की खेती एक महंगा सौदा है, वहीं किसानों को इसके लिए औपचारिक तौर पर बहुत कम क़र्ज़ मिलता है. इसलिए किसान निजी क़र्ज़दाताओं से क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर हैं.
लगातार दो मॉनसून में बारिश नहीं होने के कारण इस इलाक़े के नब्बे लाख किसान प्रभावित हुए हैं.
किसानों की आत्महत्या पर एक सरकारी पैनल की अगुवाई करने वाले मशहूर कार्यकर्ता किशोर तिवारी का कहना है, "विधवाएं सबसे ज़्यादा प्रभावित होती हैं. अकेली औरत पुरुषवादी ग्रामीण समाज में भेदभाव का शिकार होती हैं. अगर वो विधवा हैं तो उसे घर से
निकाल दिया जाता है. उन्हें ज़मीन से बेदख़ल कर दिया जाता है और उनके बच्चों के भविष्य को अंधेरे में धकेल दिया जाता है."
किशोर तिवारी के मुताबिक़ 10000 किसानों की विधवाओं में से 60 फ़ीसदी को कोई मुआवज़ा नहीं मिला है. स्वयंसेवी संगठनों और ग़ैर-सरकारी संगठनों की ओर से विधवाओं को मनोवैज्ञानिक सलाह दी जाती है, उन्हें छोटे-मोटे क़र्ज़ दिए जाते हैं, संपत्ति संबंधी अधिकार के बारे में बताया जाता है और यौन उत्पीड़न से बचाया जाता है.
किसानों की आत्महत्याएं भारत के एक बड़े इलाक़े में बीमार पड़ चुकी कृषि व्यवस्था की तस्वीर दिखाती है.
कृषि का भारत के जीडीपी में 14 फ़ीसदी हिस्सा होता है लेकिन इसके बाद भी यहां बड़ी संख्या में किसानों की हालत दयनीय है.
वर्धा ज़िले में तीन एकड़ ज़मीन पर सोयाबीन औरकपासकी फ़सल बर्बाद होने के बाद मांधा अलोन के पति शरद ने ऑटोरिक्शा ख़रीदने के लिए क़र्ज़ लिया जबकि उन्होंने ख़ुद बंजर पड़ी ज़मीन पर मेहनत की.
लेकिन 2011 में एक सड़क दुर्घटना में शरद घायल हो गए. उन्हें इलाज के लिए अपनी बीवी के गहने और कुछ ज़मीन बेचनी पड़ी और दो लाख रुपये का क़र्ज़ भी लेना पड़ा.
मांधा बताती हैं, "इसने उन्हें अंदर से पूरी तरह तोड़ दिया, वो शराब पीने लगे और मुझे मारने-पीटने लगे. 2013 में होली के दिन गांव के क़रीब नदी में जाकर डूब गए."
वो बताती हैं कि वो एक साल तक डिप्रेशन में रहीं. उन्हें मुआवज़ा नहीं दिया गया क्योंकि जांच में उनके पति के ख़ून में अल्कोहल पाया गया.
तब एक स्वयंसेवी संगठन ने उनकी मदद की और उन्हें एक सिलाई मशीन ख़रीदने के लिए क़र्ज़ दिया.
अब वे कपड़े सीलकर और दूसरे के खेत में काम करके अपना और अपने परिवार का गुज़ारा करती हैं.
लेकिन अभी भी उनके पति ने जो क़र्ज़ लिया था उसे चुकाना बाक़ी है.
वो बताती हैं, "मैंने बैंक और क़र्ज़दाताओं से कहा कि मैं क़र्ज़ नहीं चुका सकती हूं. मैंने उनसे कहा कि वे मेरे बच्चे को अपने पास रख लें और जो करना चाहते हैं करें.”
मांधा अलोन कहती हैं, "खेती में कोई भविष्य नज़र नहीं आता. गांवों के किसान ऑटो-रिक्शा चला रहे हैं, ईंट भट्टों में काम कर रहे हैं, उनकी बेटियां घर में कुंवारी बैठी हुई हैं क्योंकि शादी के लिए अच्छा लड़का नहीं मिल रहा है."
वो कहती हैं "अगर आप दस साल बाद यहां आएंगे तो आपको यहां और भी बहुत सारी विधवाएं देखने को मिलेंगीं."