दलतंत्र का समूचा कामकाज स्वतंत्र, स्वैच्छिक व गैरसरकारी है। लेकिन केंद्रीय सूचना आयोग ने जून 2013 में ‘सूचना के अधिकार" कानून की धारा 2 (एच) के अनुसार दलों को पब्लिक अथॉरिटी यानी सार्वजनिक प्राधिकार बताया था। इस कानून के अनुसार संविधान या कानून से गठित या राज्य से धन लेने वाले निकाय अथवा स्वायत्तशासी संस्थाएं सार्वजनिक प्राधिकार हैं और सार्वजनिक प्राधिकार पर आरटीआई लागू होता है। सूचना आयोग के इस निर्णय को दलतंत्र ने नहीं माना। अब सुप्रीम कोर्ट में याचिका है। याचिका में राजनीतिक दलों को ‘सार्वजनिक प्राधिकार" घोषित करने की मांग की गई है।
जनतंत्र में पारदर्शिता का महत्व है। गैरसरकारी संगठन ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स" ने याचिका में राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदे की जानकारी का प्रश्न उठाया है। कहा गया है कि दलों को चंदे पर आयकर नहीं देना पड़ता। 20 हजार रुपये से कम के चंदे का खुलासा नहीं करना होता। याचिका में शीर्ष अदालत से सारी जानकारियां घोषित कराने की मांग की गई है। धन संग्रह की पारदर्शिता अनुचित मांग नहीं है। सभी दल आयकर विभाग व चुनाव आयोग को ऐसी जानकारियां पहले से ही दे रहे हैं। असल में दलतंत्र सूचना अधिकार कानून के दायरे में नहीं आता। सूचना आयोग ने इसे भी दायरे में लाने के लिए दलों को ‘सार्वजनिक प्राधिकार" बताया और यह भी कहा था कि कांग्रेस, भाजपा, राकांपा, माकपा, भाकपा परोक्ष आंशिक रूप में केंद्र से धन पाते हैं। तब कांग्रेस नेता जनार्दन द्विवेदी ने इसका खंडन किया था।
जवाबदेही और पारदर्शिता जनतंत्र के मूल आधार हैं। संसद व विधानमंडल सरकारी जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता के लिए सूचना का अधिकार कानून (2005) बनाया गया। इसकी शुरुआत में ही कहा गया है कि जनतंत्र में संसूचित नागरिकता आवश्यक है। इसके लिए सूचनाओं की पारदर्शिता जरूरी है। आरटीआई कानून सार्वजनिक प्राधिकार के कामकाज की जानकारी के लिए बनाया जाता है। असली बात है – सार्वजनिक प्राधिकार/पब्लिक अथॉरिटी। मूल प्रश्न यह है कि क्या राजनीतिक दल शासन का अंग हैं? गैरराजनीतिक संगठन सरकारी आर्थिक सहायता पाने के कारण सार्वजनिक प्राधिकार की कानूनी परिभाषा में आते हैं। राजनीतिक दल इस परिभाषा में नहीं आते। प्रश्न चंदे के विवरण का ही नहीं है। ‘सार्वजनिक प्राधिकार" के अंतर्गत रोजमर्रा के सारे कामकाज, निर्णय, प्रस्ताव व चुनावी रणनीति आदि विवरण भी आरटीआई का भाग होंगे। याचिकाकर्ता की मांग में ऐसे सारे तर्क हैं भी।
दलों की उच्चस्तरीय बैठकें गोपनीय होती हैं। सहमति व असहमति भी होती है। संसद और विधानमंडल के लिए प्रत्याशी चुनने की सबकी अपनी शैली है। जिलाध्यक्ष या प्रदेश अध्यक्ष मनोनीतकरने/चुनाव कराने की भी पद्धति है। कम्युनिस्ट पार्टियों में अध्यक्ष नहीं होते? सूचना अधिकार अधिनियम में पूछा जा सकता है कि आपके दलों में अध्यक्ष क्यों नहीं होते? कांग्रेस से प्रश्न होगा कि आपके यहां नेहरू परिवार के ही सदस्य क्यों अध्यक्ष होते हैं? भाजपा से पूछा जा सकता है कि आपके यहां संगठन मंत्री क्यों होते हैं? सपा से पूछा जा सकता है कि सभी महत्वपूर्ण पद प्राधिकार एक घर में ही क्यों हैं? सबसे पूछा जा सकता है कि जिलाध्यक्ष या विधानसभा, लोकसभा प्रत्याशी की न्यूनतम योग्यता क्या है? प्रश्न असंख्य हैं। राष्ट्रजीवन की सभी संस्थाओं में राजनीति सर्वाधिक पारदर्शी क्षेत्र है। शुभ्र पक्ष नेता या दल स्वयं बताता है। मीडिया शुभ्र और कृष्ण पक्ष एक साथ बताता है। विपक्षी पूरा कृष्ण पक्ष ही बताकर पारदर्शिता को निर्वस्त्रता की सीमा तक ले जाते हैं।
पारदर्शिता उत्कृष्ट जीवन मूल्य है। जनतंत्र की जीवनधारा और सरकार का कर्तव्य। शासक की हरेक गतिविधि जानना निर्वाचक मंडल का अधिकार है। बेशक ‘दल संचालन" को भी पारदर्शी होना ही चाहिए। लेकिन दलतंत्र और शासनतंत्र में मौलिक अंतर हैं। दल समान राजनीतिक विचार वाले जनसमूह हैं। वे राजकोष से धन नहीं लेते। समर्थक जनसमूह ही धन देते हैं। बेशक मतदाता को उनकी आय के स्रोत जानने के अधिकार हैं। आय के स्रोतों का विवरण निर्वाचन आयोग में दिया जा सकता है। लेकिन रोजमर्रा की गतिविधि दलों का आंतरिक मामला है। दलों को ‘पब्लिक अथॉरिटी" घोषित करने से दलतंत्र भी शासन की इकाई होंगे। आरटीआई अधिनियम के उद्देश्यों में ऐसी कोई बात नहीं लिखी गई। राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह ने अगस्त 2014 में एक प्रश्न के उत्तर में राज्यसभा में बताया था कि राजनीतिक दल को सार्वजनिक प्राधिकार घोषित करने से दल की आंतरिक कार्यपद्धति पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। इस अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव 2013 में आया था। इसे संसद की स्थायी समिति को विचारार्थ भेजा गया। स्थायी समिति ने भी दलों को ‘सार्वजनिक प्राधिकार" नहीं माना। समिति ने कहा कि दल इस कानून की परिधि में नहीं आते। अब पूरा मामला सर्वोच्च न्यायपीठ के सामने है। याचिकाकर्ता एडीआर की सदाशयता को प्रश्नवाचक नहीं किया जा सकता। लेकिन सच यह भी है कि दलतंत्र सरकारी अंग नहीं हैं।
दलतंत्र सर्वसमावेशी है, इसे और व्यापक समावेशी, गहन जनतंत्री और शत प्रतिशत पारदर्शी बनाने की आवश्यकता है। लेकिन वे सरकार से अलग स्वतंत्र निकाय हैं। उन्हें सार्वजनिक प्राधिकार की कानूनी परिभाषा में नहीं लाया जा सकता।
-लेखक उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं।