दुनिया में घट रही है गरीबी- सोमिनी सेनगुप्ता

भयावह गरीबी में दुनिया भर में तेज गिरावट तो आई ही है, अब लड़कों के साथ-साथ बहुत-सी लड़कियां भी विश्व के तमाम प्राथमिक स्कूलों में पढ़ रही हैं। वहीं मच्छरदानी लगाने जैसे साधारण-से उपायों से करीब साठ लाख लोगों को मलेरिया से होनेवाली मौत से बचाया गया है। लेकिन करीब एक अरब लोग अब भी खुले में शौच करते हैं, जो कई अन्य लोगों के स्वास्थ्य को भी खतरे में डाल रहा है।

ये निष्कर्ष सहस्राब्दि विकास लक्ष्य (मिलेनियम डेवलपमेंट गोल) की सफलता और विफलता पर आधारित अंतिम रिपोर्ट के अंश हैं, जिसे सोमवार को जारी किया गया। गौरतलब है कि पंद्रह वर्ष पहले संयुक्त राष्ट्र ने गरीबों के जीवन में सुधार के लिए सहस्राब्दि विकास लक्ष्य निर्धारित किया था। ओस्लो में रिपोर्ट जारी करते हुए संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने कहा, ‘यह रिपोर्ट इस बात की पुष्टि करती है कि इन लक्ष्यों को हासिल करने के वैश्विक प्रयासों से लाखों जिंदगियां बचाई गईं और दुनिया भर में लाखों अन्य लोगों के जीवन स्तर में सुधार लाया गया।’

हालांकि, वास्तव में उन फायदों का कितना श्रेय लक्ष्यों को दिया जा सकता है, यह अज्ञात है। भयावह गरीबी में तेजी से कमी का बड़ा कारण काफी हद तक एक बड़े देश चीन की आर्थिक प्रगति है। उसी तरह कुछ बड़ी खामियों के लिए थोड़े से उन देशों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो अभी काफी पीछे हैं। मसलन, भारत में अनुमानतः साठ करोड़ लोग अब भी खुले में शौच करते हैं, जो खास तौर पर बच्चों में गंभीर रोगों के खतरे को बढ़ा रहा है।

विशेषज्ञों का कहना है कि सहस्राब्दि विकास लक्ष्य का सबसे बड़ा योगदान अमीर और गरीब देशों द्वारा अपने नागरिकों के लिए किए गए कामों के आकलन का मानदंड स्थापित करना है-ये मानदंड न केवल व्यापक आर्थिक संकेतक हैं, बल्कि यह भी बताते हैं कि स्वास्थ्य के मोर्चे पर कौन-से ठोस उपाय किए गए हैं, मसलन, बच्चों को जन्म देते समय कितनी महिलाओं की मृत्यु होती है या कितने बच्चे चिकित्सीय कुपोषण के शिकार हैं।

 

वाशिंगटन स्थित सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट की अध्यक्ष नैंसी बर्डसैल कहती हैं, ‘यह डाटा रेवोल्यूशन है, जो अपने-आप में महत्वपूर्ण है। इसने विकास के पैमाने को बदल दिया है।’ इस रिपोर्ट के निष्कर्षों पर इस ग्रीष्म ऋतु में अगले विकास लक्ष्य निर्धारित करते समय संयुक्त राष्ट्र में तीखी बहस होने की संभावना है, जिसे दुनिया के नेता सितंबर में अपनाएंगे। उन लक्ष्यों के मसौदे में 169 लक्ष्यों को शामिल किया गया है, जिसे पूरा करने के लिए भारी अनुदान राशि की जरूरत होगी और इससे वैश्विक व्यापार व जलवायु परिवर्तन जैसे मुश्किल राजनीतिक मुद्दे भी उठेंगे। 
रिपोर्ट जारी करते हुए संयुक्त राष्ट्र के अधिकारियों ने कुछ विकास लक्ष्यों के पूरा होने के उपलक्ष्य में जश्न भी मनाया। मसलन, इन लक्ष्यों में एक लक्ष्य वर्ष 2015 तक अत्यंत गरीबी में जी रही वैश्विक आबादी को घटाकर आधा करना था, लेकिन वास्तव में लक्ष्य से ज्यादा गरीबी में गिरावट दर्ज की गई। विकासशील दुनिया के 14 फीसदी लोग अभी अत्यंत निर्धनता में जीरहे हैं, जबकि 1990 में यह आंकड़ा 47 फीसदी लोगों का था। इस मामले में चीन ने उल्लेखनीय काम किया है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 1990 में उसकी 61 फीसदी आबादी अत्यंत निर्धनता में जी रही थी, जो अब घटकर मात्र चार फीसदी रह गई है।

 

बेशक अन्य लक्ष्य पूरा नहीं हो पाए, जिसमें बाल मृत्यु दर और मातृत्व मृत्यु दर को दो तिहाई घटाने का लक्ष्य रखा गया था। मगर फिर भी इन दोनों मोर्चों पर सुधार जरूर हुआ है।

यह रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2000 में जब लक्ष्य निर्धारित किया गया था, तब से मलेरिया कम घातक बीमारी रह गई है। इससे होने वाली मृत्यु दर में 58 फीसदी की कमी आई है। वर्ष 2000 की तुलना में बहुत कम बच्चे खसरा (चेचक) रोग से मरते हैं, लेकिन खसरे के टीकाकरण का दायरा थम गया है, और वर्ष 2013 में 2.16 करोड़ बच्चे पूरी तरह से प्रतिरक्षित नहीं थे। चेचक से अधिकतर मौतें सब-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया में होती हैं, जहां रिपोर्ट के मुताबिक, सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारी निवेश की जरूरत है। दक्षिण एशिया में बाल कुपोषण भी सर्वाधिक है, जहां पांच वर्ष से कम उम्र के 28 फीसदी बच्चे ‘मामूली या गंभीर रूप से कम वजन के हैं’।

चाहे धनी देश हो या गरीब, जिस अनुपात में आबादी बढ़ी है, उस हिसाब से दुनिया में रोजगार का सृजन नहीं हुआ है। भारत जैसे देशों के लिए यह विशेष रूप से गंभीर चुनौती है, जहां रोजगार की तलाश करने वाले युवाओं की आबादी तेजी से बढ़ रही है।

इस रिपोर्ट में लैंगिक समानता के सवाल पर भारी विफलता को भी खुले दिल से स्वीकार किया गया है। रिपोर्ट के मुताबिक, पुरुषों की तुलना में महिलाओं के गरीब होने की आशंका ज्यादा है, और वैश्विक वेतनभोगी श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी बहुत मंथर गति से बढ़ रही है।

हालांकि आलोचकों का कहना है कि केवल वैश्विक लक्ष्य निर्धारित करना ही बहुत प्रेरक नहीं है। येल यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के प्रोफेसर डीन कार्लान, जिन्होंने निर्धनता पर अध्ययन किया है, बताते हैं, ‘मैं वैश्विक मानदंड निर्धारित करने के खिलाफ नहीं हूं, लेकिन मैं इसे पर्याप्त नहीं मानता। आप एक देश से दूसरे देश की तुलना नहीं कर सकते। इससे हमें बहुत मदद नहीं मिलती, खासकर इस अर्थ में कि हमें क्या करना चाहिए।’ मगर क्या इन तमाम कवायदों का सकारात्मक असर नहीं पड़ा है?

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