मोदी ने प्रधानमंत्री का पद संभालने के बाद से लोगों से संपर्क-संवाद का जो सिलसिला शुरू किया था वह कायम है, क्योंकि वे जानते हैं कि देश बदलाव के लिए व्याकुल है। संसद में अपने पहले भाषण से उन्होंने जो सिलसिला शुरू किया, वह 15 अगस्त को लाल किले से दिए गए प्रभावशाली संबोधन के रूप में एक नए मुकाम पर पहुंचा और फिर रेडियो पर ‘मन की बात" के रूप में आम लोगों के दिल-दिमाग पर रच-बस गया। वे न केवल नए भारत के निर्माण का संकल्प व्यक्त कर लोगों को प्रोत्साहित कर रहे हैं, बल्कि सभी से मदद की अपील भी कर रहे हैं।
स्वच्छ भारत अभियान, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, सांसद आदर्श ग्राम योजना और सामाजिक सुरक्षा से जुड़े कई कार्यक्रमों ने जनता के बीच छाप छोड़ी है और उसे यह भरोसा दिया है कि हालात बदल रहे हैं। इन कार्यक्रमों-योजनाओं के पीछे मोदी की दूरदर्शी सोच है, लेकिन उन पर सही तरह अमल की जिम्मेदारी प्रशासनिक तंत्र और राज्य सरकारों पर है। केंद्र सरकार ने अपने स्तर से बदलाव का एक ऐसा माहौल तैयार किया है, जो निराशा में डूबे देश के लिए आवश्यक ही नहीं, बल्कि अपरिहार्य था।
यद्यपि मोदी भारत की दिशा-दशा सुधारने के लिए हरसंभव प्रयास कर रहे हैं, लेकिन एक बड़ी कमी यह है कि जमीनी स्तर पर न तो भाजपा नेता बदलाव की इस कोशिश के साथ कदमताल कर पा रहे हैं और न ही स्थानीय प्रशासनिक तंत्र। इसी वजह से जनता बदलाव को उतने प्रभावी ढंग से महसूस नहीं कर पा रही है, जितना उसे करना चाहिए। मोदी सरकार से जनता की अपेक्षाएं इस हद तक बढ़ गई हैं कि लोग रातोंरात समस्याओं का समाधान चाहते हैं। यह मोदी से लोगों की आसमान छूती अपेक्षाओं को तो दर्शाता है, लेकिन यह भी सही है कि इतनी तेजी से बदलाव संभव नहीं है। जनता जिन समस्याओं से त्रस्त है, उनमें से ज्यादातर का संबंध स्थानीय प्रशासनिक तंत्र, नगर निकायों व राजनीतिक नेतृत्व से है।
भारत के लोकतंत्र का जैसा स्वरूप है, उसके चलते अलग-अलग स्तरों पर अलग-अलग दलों के पास शासन-प्रशासन की बागडोर है। ऐसे में हर स्तर पर केंद्र सरकार का दखल संभव नहीं और न ही सब कुछ उसकी योजनाके अनुरूप हो सकता है। यह भी समझना होगा कि किसी भी सरकार की कोई पहल कितनी ही अच्छी क्यों न हो, विरोध के नाम पर उसके विरोध की प्रवृत्ति बढ़ी है। दुर्भाग्य से इसकी अनदेखी की जा रही है कि ऐसे विरोध की कीमत देश को चुकानी पड़ रही है।
मोदी सरकार के एक साल के कार्यकाल पर विरोधी दलों की राय कुछ भी हो, लेकिन उसकी दो उपलब्धियों पर कोई संदेह नहीं। एक तो मोदी की सक्रिय विदेश नीति और कूटनीति से भारत का अंतरराष्ट्रीय पटल पर मान बढ़ना और पीएम पद की गरिमा बहाल होना। एक साल पहले तक विश्व में भारत की छवि ऐसी बन गई थी कि कोई भी प्रमुख देश उसे गंभीरता से लेने को तैयार नहीं था। तब महाशक्ति बनने का सपना भी बहुत दूर की बात नजर आती थी। मोदी ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और शपथ लेने के दिन से ऐसी विदेश नीति पर अमल किया, जिसने विश्व बिरादरी के बीच भारत को फिर से उभारा।
प्रधानमंत्री बनने से पहले मोदी पर यह कटाक्ष किया जाता था कि उन्हें गुजरात से बाहर कौन जानता है, लेकिन आज हर विकसित देश में न केवल उनकी चर्चा हो रही है, बल्कि अपनी हर विदेश यात्रा में वह सफलता के नए आयाम भी कायम कर रहे हैं। सभी प्रमुख देशों के साथ भारत का यह संपर्क-संवाद आने वाले दिनों में बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश का आधार बनेगा।
मोदी को यह श्रेय भी दिया जाना चाहिए कि उन्होंने मनमोहन सिंह के विपरीत पीएमओ की साख और हैसियत बढ़ाई है। मनमोहन सिंह राजनीतिक रूप से जितने कमजोर थे, मोदी उतने ही शक्तिशाली हैं। यह मोदी के मजबूत प्रशासन का ही नतीजा है कि उनके सहयोगियों के बीच समन्वय का कोई अभाव नहीं है और पूरी सरकार एक दिशा में बढ़ती नजर आती है। इसका एक कारण यह भी है कि इस सरकार में सत्ता के केंद्र को लेकर कोई असमंजस नहीं है।
अगर भाजपा के लिहाज से पिछले एक साल को देखा जाए तो एक मिली-जुली तस्वीर उभरती है। भाजपा सदस्य संख्या के लिहाज से विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बन गई है और पिछले एक साल में उसे हरियाणा, महाराष्ट्र, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में चुनावी सफलता भी मिली है, लेकिन उसे दिल्ली में पराजय का घाव लंबे समय तक सालता रहेगा। दिल्ली के नतीजों ने विपक्षी दलों को न केवल नई ऊर्जा दी, बल्कि यह दावा करने का मौका भी दे दिया कि अब जनता का मोदी से मोहभंग हो रहा है। भाजपा को इसी वर्ष बिहार में एक बेहद कठिन राजनीतिक चुनौती का सामना करना है। जनता परिवार की एकता के प्रयासों ने इस चुनौती को और बढ़ा दिया है। बिहार के साथ ही भाजपा की निगाह उन राज्यों पर भी होगी, जहां जल्द विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश उसकी कड़ी परीक्षा लेंगे।
मोदी सरकार कई महत्वपूर्ण विधेयकों के पारित होने को अपनी उपलब्धि के रूप में गिना सकती है, लेकिन उसके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न बने दो विधेयक अभीभीएक बड़ी उलझन बने हुए हैं। भूमि अधिग्रहण और वस्तु एवं सेवा कर संबंधी जीएसटी विधेयक सरकार के राजनीतिक कौशल का इम्तिहान ले रहे हैं। भूमि अधिग्रहण विधेयक पर विरोधी दल जिस तरह यह माहौल बनाने में सफल हो गए कि मोदी सरकार किसानों के हितों की अनदेखी कर रही है, उससे सरकार की राजनीतिक तैयारी में कमी ही दिखी। विपक्ष इसका लाभ उठाते हुए सरकार की छवि खराब करने में पूरी ताकत से जुटा है।
प्रधानमंत्री ने खुद यह स्पष्ट किया है कि उनकी सरकार सुधार और बदलाव के लिए जिन उपायों को अपना रही है, उनके प्रभाव पूरी तरह दिखने में सात-आठ साल का समय लगेगा। भारत जैसे देश के लिए यह स्वाभाविक भी है, लेकिन सरकार को यह भी ध्यान रखना होगा कि सूचना क्रांति के इस दौर में छोटे से छोटे मामलों पर भी उसकी परीक्षा ली जाएगी। उसे अपनी दूरगामी योजनाओं के साथ-साथ उन चुनौतियों को भी अपनी प्राथमिकता सूची में शामिल करना होगा, जिनमें तत्काल सुधार की अपेक्षा की जा रही है। आम जनता की अपेक्षा यही है कि उसके जीवन स्तर में तात्कालिक सुधार हो। मोदी सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि शहरी क्षेत्रों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक लोग अपने रोजमर्रा के जीवन में कुछ बदलाव महसूस करें। इसके लिए उसे सबसे अधिक ध्यान आर्थिक-सामाजिक विषयों के साथ-साथ बुनियादी ढांचे पर देना होगा।
(लेखक दैनिक जागरण समूह के सीईओ व प्रधान संपादक हैं